Prabhasakshi NewsRoom: पूर्व CJI NV Ramana के खुलासे से उठा सवाल- जब जजों पर ही दबाव पड़ता है तो आम नागरिक का क्या होगा?

न्यायमूर्ति रमणा ने अपने संबोधन में कहा कि वह अमरावती से छात्र जीवन से ही जुड़े रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि अमरावती शहर आज जिन किसानों की दृढ़ता के कारण अस्तित्व में है, वह पिछले पाँच वर्षों तक राज्य की तीन राजधानियों की नीति के विरुद्ध आंदोलनरत रहे।
भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमणा ने एक ऐसा खुलासा किया है जिसने देश की न्यायिक और राजनीतिक व्यवस्था के संबंधों पर नई बहस को जन्म दे दिया है। हम आपको बता दें कि आंध्र प्रदेश के अमरावती में आयोजित वीआईटी-एपी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए न्यायमूर्ति एनवी रमणा ने कहा कि जब वह भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले थे, तब आंध्र प्रदेश की तत्कालीन वाईएस जगन मोहन रेड्डी सरकार ने उनके परिवार के विरुद्ध पुलिस मामले दर्ज कराए ताकि उन्हें दबाव में लाया जा सके। उन्होंने कहा, “मेरे परिवार को निशाना बनाया गया, झूठे आपराधिक मामले बनाए गए। यह सब केवल मुझे विवश करने के लिए किया गया था।” देखा जाये तो यह वक्तव्य केवल एक व्यक्ति का अनुभव नहीं, बल्कि यह संकेत है कि भारत की संवैधानिक संस्थाओं पर राजनीतिक दबाव और प्रतिशोध की प्रवृत्ति कितनी गहराई तक जा पहुँची है।
न्यायमूर्ति रमणा ने अपने संबोधन में कहा कि वह अमरावती से छात्र जीवन से ही जुड़े रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि अमरावती शहर आज जिन किसानों की दृढ़ता के कारण अस्तित्व में है, वह पिछले पाँच वर्षों तक राज्य की तीन राजधानियों की नीति के विरुद्ध आंदोलनरत रहे। 2019 से लेकर 2024 तक ये किसान अपने अधिकारों और सम्मान के लिए शांतिपूर्वक संघर्ष करते रहे और अंततः 2024 में एन. चंद्रबाबू नायडू की वापसी के साथ ही तीन राजधानी की योजना वापस ले ली गई।
रमणा ने कहा, “दक्षिण भारत में शायद ही किसी आंदोलन ने इतनी लंबी और स्थायी लड़ाई लड़ी हो जितनी अमरावती के किसानों ने लड़ी है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि न मीडिया ने सच्चाई कही, न ही राजनेताओं ने इन किसानों को वास्तविक श्रेय दिया।” उन्होंने अपने “कठिन दिनों” को याद करते हुए कहा कि जब उनके परिवार पर पुलिस कार्रवाई हुई, तब केवल वह अकेले नहीं थे— “जो भी किसान आंदोलन के पक्ष में बोले, उन्हें डराया-धमकाया गया। यहाँ तक कि वह न्यायाधीश भी, जिन्होंने संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा की, वह स्थानांतरण और दबाव के शिकार हुए।”
देखा जाये तो यह स्वीकारोक्ति भारतीय लोकतंत्र की संविधानिक रीढ़ यानि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। यदि एक न्यायाधीश, वह भी देश के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति, यह कहे कि उन्हें या उनके परिवार को राजनीतिक दबावों से गुज़रना पड़ा, तो यह केवल व्यक्तिगत प्रकरण नहीं रह जाता, बल्कि सत्ता की प्रवृत्ति का दर्पण बन जाता है। लोकतंत्र में ‘Rule of Law’ (कानून का शासन) को तभी स्थिर माना जा सकता है जब सत्ता का कोई अंग दूसरे पर अनुचित प्रभाव न डाल सके।
न्यायमूर्ति रमणा ने ठीक ही कहा, “सरकारें बदल सकती हैं, परंतु न्यायपालिका और कानून का शासन ही स्थायित्व के आधार स्तंभ हैं। यह तभी जीवित रह सकता है जब न्याय के संरक्षक अपनी सत्यनिष्ठा को सुविधा के लिए गिरवी न रखें।” यह कथन न केवल वर्तमान राजनीतिक वातावरण पर टिप्पणी है, बल्कि न्यायपालिका के भीतर बढ़ती संवेदनशीलता और भय के वातावरण की ओर भी संकेत करता है।
देखा जाये तो पिछले कुछ वर्षों में कई अवसरों पर यह प्रश्न उठा है कि क्या न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र निर्णय ले पा रही है? न्यायमूर्ति रमणा की टिप्पणी दर्शाती है कि राजनीतिक शक्तियाँ न्यायालयों पर अप्रत्यक्ष दबाव डालने का प्रयास करती हैं, कभी दंडात्मक कार्रवाई के रूप में, तो कभी स्थानांतरण या पदोन्नति के माध्यम से। यदि किसी न्यायाधीश का परिवार भी इस प्रक्रिया में अप्रत्याशित पीड़ित बनता है, तो यह न केवल संस्थागत बल्कि नैतिक संकट भी है। न्यायपालिका का भयमुक्त रहना ही नागरिकों के अधिकारों की गारंटी है। जब न्यायाधीश असुरक्षित महसूस करते हैं, तो सामान्य नागरिक के लिए न्याय पाना और कठिन हो जाता है।
इसके अलावा, न्यायमूर्ति रमणा ने कहा कि “इन कठिन समयों में कई राजनीतिक नेता मौन रहे और कोई स्पष्ट पक्ष नहीं लिया। केवल विधिवेत्ता, वकील और न्यायालय ही संवैधानिक वादे पर टिके रहे।” वहीं दूसरी ओर, उन्होंने उम्मीद जताई कि आने वाले समय में किसान, वकील, न्यायविद, सिविल सोसाइटी और न्यायाधीश, ये सभी कानून के शासन की रक्षा के प्रेरक बने रहेंगे।
बहरहाल, न्यायमूर्ति रमणा की यह स्वीकारोक्ति केवल आत्मकथन नहीं, बल्कि सिस्टम को आईना दिखाने वाला बयान है। यह हमें सोचने पर विवश करता है कि जब संविधान के रक्षक ही दबाव में हों, तो नागरिक अधिकारों की रक्षा कौन करेगा? भारत जैसे लोकतंत्र में न्यायपालिका की निष्पक्षता केवल संस्थागत संरचना का प्रश्न नहीं, बल्कि नैतिक साहस का भी है। और यही साहस आज हर स्तर पर परखा जा रहा है। यह प्रसंग केवल अमरावती या किसी राज्य की राजनीति तक सीमित नहीं है, यह उस बुनियादी सवाल को उठाता है जो हर लोकतंत्र के हृदय में गूंजता है। न्यायमूर्ति रमणा की आवाज़ इस प्रश्न का उत्तर खोजने का आग्रह है— सत्ता से नहीं, समाज से; क्योंकि जब जनता न्याय की स्वतंत्रता की रक्षा करेगी, तभी लोकतंत्र वास्तव में जीवित रहेगा।
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