इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा- जीवनसाथी चुनने का अधिकार जीवन जीने और निजी आजादी के अधिकार में अतर्निहित

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भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिला जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रभावित होगा। एक दंपति द्वारा उनकी शादी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह टिप्पणी की।

प्रयागराज। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि बालिग होने पर एक व्यक्ति को जीवनसाथी चुनने का संवैधानिक रूप से अधिकार मिल जाता है और इस अधिकार से उसे वंचित करने पर ना केवल उसका मानवाधिकार प्रभावित होगा, बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिला जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता का अधिकार भी प्रभावित होगा। एक दंपति द्वारा उनकी शादी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने यह टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि जीवनसाथी, भले ही उसका कोई भी धर्म हो, चुनने का अधिकार जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है। अदालत ने महिला के पिता द्वारा उसके पति के खिलाफ दायर एफआईआर रद्द कर दी। महिला ने धर्म परिवर्तन के बाद उस व्यक्ति से शादी की थी। 

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न्यायमूर्ति पंकज नकवी और न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल ने कुशीनगर के सलामत अंसारी और प्रियंका खरवार उर्फ आलिया द्वारा दायर याचिका को स्वीकार करते हुए यह आदेश पारित किया। याचिकाकर्ताओं ने कुशीनगर के विष्णुपुरा पुलिस थाने में 25 अगस्त, 2019 को आईपीसी की धारा 363, 366, 352, 506 और पॉक्सो कानून की धारा 7/8 के तहत दर्ज की गई एफआईआर रद्द करने की मांग की थी। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि दंपति बालिग हैं और वे अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने में सक्षम हैं। हालांकि महिला के पिता के वकील ने इस आधार पर याचिका का विरोध किया कि महज शादी के लिए धर्म परिवर्तन प्रतिबंधित है और इस तरह की शादी की कानून में कोई शुचिता नहीं है। पीठ ने कहा, ‘‘हम प्रियंका खरवार और सलामत को हिंदू और मुस्लिम के तौर पर नहीं देखते, बल्कि दो बालिग व्यक्तियों के तौर पर देखते हैं जो अपनी इच्छा से पिछले सालभर से शांतिपूर्वक और खुशी खुशी साथ रह रहे हैं।

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