जलवायु वित्त के मुद्दों पर विकसित देशों को दावों की भारत ने खोली पोल: सरकार

Ashwini Kumar Choubey
ANI

अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में विकसित देशों के विफल रहने के कारण पेरिस में आयोजित सीओपी-21 बैठक में 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष लक्ष्य का विस्तार वर्ष 2025 तक करने का निर्णय लिया गया था।

नयी दिल्ली। केंद्र सरकार ने कहा है कि भारत जलवायु संबंधी वित्त के मुद्दों को उठाने में अग्रणी रहा है कि उसके प्रयासों के चलते ही विकसित देशों के उन अतिशयोक्तिपूर्ण दावों की पोल खुली है, जिनमें कहा गया था कि वे विकासशील देशों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर संयुक्त रूप से जुटाने को प्रतिबद्ध हैं। वर्ष 2009 में कोपनहेगन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) के 15वें पक्षकारों के सम्मेलन (सीओपी-15) में विकसित देशों ने विकासशील देशों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष 100 अमेरिकी अमेरिकी डॉलर संयुक्त रूप से जुटाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी। अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में विकसित देशों के विफल रहने के कारण पेरिस में आयोजित सीओपी-21 बैठक में 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष लक्ष्य का विस्तार वर्ष 2025 तक करने का निर्णय लिया गया था।

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पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने बृहस्पतिवार को राज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में कहा, ‘‘भारत जलवायु संबंधी वित्त के मुद्दों को उठाने में अग्रणी रहा है। भारत के प्रयासों ने बार-बार विकसित देशों की एजेंसियों के दावों को गलत साबित किया है कि यह लक्ष्य पूरा होने के करीब है। साथ ही यह बताया है कि वर्तमान में जुटाया गया जलवायु संबंधी वित्त वास्तव में बहुत कम है।’’ उन्होंने बताया कि भारत जलवायु संबंधी नीति की परिमें स्पष्टता लाने और ऐसे वित्त के पैमाने, दायरे और आपूर्ति की गति के महत्व को स्पष्ट करने की मांग करने में भी अग्रणी रहा है। उन्होंने कहा कि भारत हमेशा इस बात पर कायम रहा है कि जलवायु संबंधी वित्त नया और अतिरिक्त (विदेशी विकास सहायता के संबंध में) मुख्य रूप से अनुदान के रूप में होना चाहिए, ऋण के रूप में नहीं। साथ ही यह शमन और अनुकूलन के बीच संतुलित होना चाहिए। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि वर्तमान में जलवायु संबंधी वित्त की परिके संबंध में तथा आकलनों एवं की गई प्रगति के संबंध में अनेक मुद्दे हैं और धन जुटाने के लक्ष्यों को किस हद तक हासिल किया जा सकता है, इसकेअलग-अलग अनुमान हैं। यूएनएफसीसीसी की वित्त संबंधी स्थाई समिति के चौथे द्विवार्षिक आकलन में वर्ष 2018 तक जलवायु संबंधी वित्त प्रवाह के संबंध में एक अद्यतन समीक्षा और इसके रुझान प्रस्तुत किए हैं और इसके मुताबिक कुल सार्वजनिक वित्तीय सहायता वर्ष 2017 में 45.4 अरब तथा वर्ष 2018 में 51.8 अरब डॉलर थी। 

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चौबे ने कहा, ‘‘एक अभूतपूर्व चरण में ग्लासगो के सीओपी-26 के अंतिम निर्णय में बड़े अफसोस के साथ यह उल्लेख किया गया कि सार्थक शमन कार्यों और कार्यान्वयन पर पारदर्शिता के संदर्भ में विकसित देशों के पक्षकारों की यह प्रतिबद्धता अभी तक पूरी नहीं हुई है।’’ उन्होंने कहा कि सीओपी-26 के अंतिम निर्णय में यह सहमति हुई थी कि पेरिस समझौते के पक्षकारों की बैठक वर्ष 2025 की बैठक से पहले विकासशील देशों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर की न्यूनतम सीमा से एक नया सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य निर्धारित किया जाएगा। केंद्रीय मंत्री ने कहा, ‘‘इस लक्ष्य को अधिक पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित किया जाना है और विकासशील देशों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए शमन और अनुकूलन की दिशा में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना है।’’ उन्होंने कहा कि भारत की जलवायु संबंधी कार्रवाइयों को अब तक बड़े पैमाने पर घरेलू स्रोतों से वित्त पोषित किया जा रहा है, जिसमें बाजार तंत्रों और नीतिगत हस्तक्षेपों के संयोजन के साथ-साथ सरकारी बजटीय सहायता शामिल है। उन्होंने कहा कि भारत की तीसरी वार्षिक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार घरेलू रूप से जुटाया गया वित्त, अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषण की कुल राशि से काफी अधिक है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है, जिस पर सामूहिक कार्यवाही अपेक्षित है और जिसे बहुपक्षवाद के माध्यम से हल किया जाना है।

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