नवलखा की नजरबंदी खत्म करने के आदेश के खिलाफ SC पहुंची महाराष्ट्र सरकार

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[email protected] । Oct 3 2018 5:44PM

याचिका में कहा गया कि ऐसे मामले में जब कि पुलिस उस मेजिस्ट्रेट के समक्ष ट्रांजिट रिमांड के लिए आवेदन देती है जिसका कि वह अधिकार क्षेत्र नहीं है तो पुलिस के लिए केस डायरी पेश करना आवश्यक नहीं है।

नई दिल्ली। कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार किए गए पांच नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं में से एक गौतम नवलखा को नजरबंदी से मुक्त करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को महाराष्ट्र सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। याचिका शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री में बुधवार सुबह दायर की गई। महाराष्ट्र सरकार के अधिवक्ता निशांत कातनेश्वर ने पीटीआई- बताया कि इसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी गई है।

उच्च न्यायालय ने सोमवार को नवलखा को नजरबंदी से मुक्त कर दिया था। उन्हें चार अन्य कार्यकर्ताओं के साथ करीब पांच हफ्ते पहले गिरफ्तार किया गया था। महाराष्ट्र सरकार ने याचिका में कहा है कि उच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान की गलत व्याख्या करते हुए नवलखा को नजरबंदी से मुक्त किया है। अदालत ने 65 वर्षीय नवलखा को राहत देते हुए निचली अदालत के ट्रांजिट रिमांड के आदेश को भी रद्द कर दिया।

इस आदेश को नवलखा ने तब चुनौती दी थी जब मामला उच्चतम न्यायालय में पहुंचा नहीं था। पुणे पुलिस में सहायक आयुक्त शिवाजी पंडितराव पवार की ओर से दायर याचिका में कहा गया, ‘‘ इस मामले में दिखता है कि संबंधित आदेश पारित करते वक्त उच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (1) और (2) की गलत व्याख्या की। ’’

याचिका में कहा गया कि ऐसे मामले में जब कि पुलिस उस मेजिस्ट्रेट के समक्ष ट्रांजिट रिमांड के लिए आवेदन देती है जिसका कि वह अधिकार क्षेत्र नहीं है तो पुलिस के लिए केस डायरी पेश करना आवश्यक नहीं है। याचिका में कहा गया, ‘‘ इस मामले में पुलिस ने देश के अलग-अलग स्थानों से पांच लोगों को गिरफ्तार किया। इसलिए संबद्ध अदालतों में केस डायरी पेश करना संभव नहीं है और ऐसी उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए।’’

याचिका में यह भी कहा गया कि उच्च न्यायालय का यह कहना गलत था कि ट्रांजिट रिमांड का आदेश पारित करते वक्त चीफ मेट्रोपोलिटन मेजिस्ट्रेट ने दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया। इसमें यह भी कहा गया कि जब उच्चतम न्यायालय ने नजरबंदी चार हफ्ते के लिए बढ़ा दी थी तो नजरबंदी को खत्म करने के बारे में विचार करने की जरूरत ही नहीं थी। इसमें यह भी दावा किया गया कि उच्च न्यायालय द्वारा रिमांड का आदेश रद्द करके नवलखा की याचिका को इजाजत देना भी गलत था।

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