नंदीग्राम चुनाव: ममता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे शुभेंदु के लिये राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई
जीत मिलने की सूरत में वहन केवल बंगाल में खुद को भाजपा के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने में कामयाब होंगे बल्कि राज्य में पार्टी की जीत होने पर वह मुख्यमंत्री की कुर्सी के भी काफी करीब पहुंच सकते हैं। अधिकारी ने बड़ी ही तेजी से अपनी छवि भूमि अधिग्रहण आंदोलन के समावेशी नेता से बदलकर हिंदुत्व के पैरोकार वाले नेता के रूप में कर ली है।
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वहीं, जीत मिलने की सूरत में वहन केवल बंगाल में खुद को भाजपा के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने में कामयाब होंगे बल्कि राज्य में पार्टी की जीत होने पर वह मुख्यमंत्री की कुर्सी के भी काफी करीब पहुंच सकते हैं। अधिकारी ने बड़ी ही तेजी से अपनी छवि भूमि अधिग्रहण आंदोलन के समावेशी नेता से बदलकर हिंदुत्व के पैरोकार वाले नेता के रूप में कर ली है। अब वह दावा कर रहे हैं कि अगर वह चुनाव हारते हैं तो तृणमूल नंदीग्राम को मिनी पाकिस्तान बना देगी। हाल ही में तृणमूल छोड़ भाजपा में आए शुभेंदु के पिता शिशिर अधिकारी कहते हैं, ममता ने शुभेंदु का राजनीतिक करियर खत्म करने के लिये उनके खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया क्योंकि वह उनके भतीजे (अभिषेक बनर्जी) के लिये चुनौती बनकर उभरे थे। लेकिन हमें नंदीग्राम की जनता पर पूरा भरोसा है। यह न केवल शुभेंदुबल्कि हमारे पूरे परिवार के राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई है। अधिकारी के छोटे भाई दिव्येंदु भी तृणमूल के असंतुष्ट सांसद हैं। अपने बचपन के वर्षों में आरएसएस की शाखा में प्रशिक्षण पाने वाले अधिकारी ने 1980के दशक में छात्र राजनीतिक में कदम रखा जब उन्हें कांग्रेस की छात्र इकाई छात्र परिषद का सदस्य बनाया गया। वह 1995 में चुनावी राजनीति में उतरे और कोनताई नगरपालिका में पार्षद चुने गए। अधिकारी चुनाव राजनीति से अधिक संगठन में दिलचस्पी रखते थे। अधिकारी और उनके पिता 1999 में तृणमूल में शामिल हो गए। उस समय तृणमूल के गठन को एक साल ही हुआ था। इसके बाद वह 2001 और 2004 में लोकसभा चुनाव लड़े और दोनों ही चुनावों में उन्हें नाकामी हाथ लगी। हालांकि 2006 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें कोनताई सीट से जीत हासिल हुई। साल 2007 में नंदीग्राम में हुए कृषि भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन ने बंगाल की राजनीति की पूरी तस्वीर ही बदल दी। इस आंदोलन ने अधिकारी को तृणमूल के चोटी के नेताओं की कतार में लाकर खड़ा कर दिया। बनर्जी और अधिकारी को नंदीग्राम आंदोलन का नायक बताया गया।
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इससे तृणमूल की सियासी जमीन मजबूत हुई। अधिकारी को जल्द ही तृणमूल की कोर ग्रुप का सदस्य बनाया गया। साथ ही तृणमूल की युवा इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में तामलुक सीट से उन्हें जीत हासिल हुई। सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलन की सफलता पर सवार होकर बनर्जी ने 2011 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की। तृणमूल में कई लोगों को मानना है कि ममता के बाद सबसे लोकप्रिय नेता अधिकारी उनके उत्तराधिकारी होते। हालांकि ममता ने कुछ और ही तय कर रखा था। दोनों नेताओं के बीच मतभेद के बीज उस समय पड़े जब 21 जुलाई 2011 के सत्ता में आने के बाद तृणमूल की पहली वार्षिक शहीद दिवस रैली में बनर्जी ने अपने भतीजे अभिषेक के राजनीति में आने की घोषणा की। महज 24 साल के अभिषेक को तृणमूल की युवा इकाई के समानांतर संगठन ऑल इंडिया युवा तृणमूल कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया, जिसकी अगुवाई अधिकारी कर रहे थे। ममता के इस फैसले से अधिकारी स्तब्ध रह गए क्योंकि पार्टी के संविधान में दो युवा इकाई होने का प्रावधान नहीं था। इसके बाद से दोनों नेताओं के रिश्ते खराब होते चले गए। नतीजा यह हुआ कि अधिकारी ने इस साल की शुरुआत में तृणमूल छोड़ने की घोषणा कर दी।
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