Matrubhoomi: कहानी वीरांगना मातंगिनी हाजरा की, जिसके शरीर को गोलियों से भून दिया गया पर आखिरी सांस तक हाथ से नहीं छोड़ा तिरंगा

Matangini Hazra
रेनू तिवारी । Mar 29 2022 4:50PM

मातंगिनी हाजरा के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है लेकिन कुछ तथ्यों के अनुसार उनका जन्म 1869 में तामलुक के पास होगला के छोटे से गाँव में हुआ था। वह एक गरीब किसान की बेटी थी, इसलिए उन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की।

बी प्राक का एक मशहूर गाना है 'तेरी मिट्टी में मिल जावा'... देश प्रेम की भावनाओं से लबरेज इस गाने को सुनकर दिल पसीझ उठता है। आज इस भारत भूमि पर हम आजादी का जीवन जी रहे हैं तो यह जिंदगी हमें हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने दी है। हम आज अगर भारत में खुद को महफूज समझते हैं तो यह जिंदगानी हमें वतन के लिए मर मिटने वाले रणबांकुरों के कारण मिली है। भारत वो देश है जिसने लंबे समय तक गुलामी झेली है और स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने रक्त की नदियां बहा कर अंग्रेजों से भारत की आजादी छींनी हैं। 1857 का विद्रोह, जलियावाला बाग हत्याकांड अंग्रेजों के जुल्म को बयां करता है। जब भारत का खून अंग्रेज चूस रहे थे तब कुछ जाबाजों ने भारत को आजाद करवाने की ठानी। देश में ऐसे कई वीर हैं जिन्होंने आजादी के लिए बड़ा बलिदान दिया लेकिन उनका नाम कम लोग ही जानते हैं। उन्हीं में से एक हैं मातंगिनी हाजरा, जिन्होंने मरते दम तक तिरंगे को हाथ से छूटने नहीं दिया। आज हम आपको उस वीरांगना के बारे में बताने जा रहे हैं जिसने 62 साल तक संघर्ष किया और अपनी आखिरी जिंदगी भी देश के नाम कर दी। 

वीरांगना मातंगिनी हाजरा

मातंगिनी हाजरा एक भारतीय क्रांतिकारी थीं, जिन्होंने 29 सितंबर 1942 को तमलुक पुलिस स्टेशन के सामने ब्रिटिश भारतीय पुलिस द्वारा गोली मारकर हत्या किए जाने तक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। जब  वीरांगना पर गोलियां चली थी तब उनके हाथ में तिरंगा था गोलियां लगने के बाद भी उन्होंने अपने हाथ से तिरंगा गिरने नहीं दिया। भारत में उन्हें लैडी गांधी- बूढ़ी गांधी के नाम से जाना जाता है। 

गांधीवादी विचारों के साथ लड़ी आजादी की लड़ाई

1905 में वह एक गांधीवादी के रूप में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से दिलचस्पी लेने लगीं। मिदनापुर में स्वतंत्रता संग्राम की एक उल्लेखनीय विशेषता महिलाओं की भागीदारी थी। 1932 में उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और नमक अधिनियम को तोड़ने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें तुरंत रिहा कर दिया गया लेकिन उन्होंने लगातार कर को समाप्त करने का विरोध किया। उन्हें एक बार फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें बहरामपुर में छह महीने के लिए कैद दी गयी थी। रिहा होने के बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं और अपनी खुद की खादी काटने लगीं। 1933 में उन्होंने सेरामपुर में उपखंड कांग्रेस सम्मेलन में भी भाग लिया और पुलिस द्वारा आगामी लाठीचार्ज में घायल हो गईं।

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प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी

मातंगिनी हाजरा के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है लेकिन कुछ तथ्यों के अनुसार उनका जन्म 1869 में तामलुक के पास होगला के छोटे से गाँव में हुआ था। वह एक गरीब किसान की बेटी थी, इसलिए उन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की। उनकी शादी 12 साल में एक बूढ़े आदमी से कर दी गयी थी जिसके कारण वह 18 साल की उम्र में ही विधवा हो गयी। जैसे तैसे करके ही उन्होंने अपनी जिंदगी तंगी में काटी। वह बिना किसी संतान के विधवा हो गई थी। इस लिए आखिरी सांस तक वह अकेली ही रहीं। 62 साल संघर्ष करने के दौरान उन्होंने भारत में अंग्रेजों के अत्याचार को देखा और उसके बाद उन्होंने अन्य नेताओं की तरह देश की आजादी की लड़ाई के लिए लड़ाई लड़ने की ठानी। 62 साल की उम्र में वह स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ने लगीं। वह एक गांधीवादी के रूप में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से दिलचस्पी लेने लगीं। मिदनापुर में स्वतंत्रता संग्राम की एक उल्लेखनीय विशेषता महिलाओं की भागीदारी थी। 1930 में उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया और नमक अधिनियम को तोड़ने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

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जुबां पर वंदे मातरम, हाथ में तिरगां, गोलियों से भुना शरीर ऐसी देशभक्त थी मातंगिनी हाजरा

भारत छोड़ो आंदोलन के हिस्से के रूप में, कांग्रेस के सदस्यों ने मेदिनीपुर जिले के विभिन्न पुलिस स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों पर कब्जा करने की योजना बनाई। यह जिले में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने और एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना में एक कदम होना था। हाजरा, जो उस समय 72 वर्ष की हो चुकी थी, ने तामलुक पुलिस थाने पर कब्जा करने के उद्देश्य से छह हजार समर्थकों के जुलूस का नेतृत्व किया, जिनमें ज्यादातर महिला स्वयंसेवी थीं। जब जुलूस शहर के बाहरी इलाके में पहुंचा, तो उन्हें क्राउन पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 144 के तहत भंग करने का आदेश दिया गया। जैसे ही वह आगे बढ़ी, हाज़रा को गोली मार दी गई। गोली लगने के बाद भी उन्होंने आगे कदम बढ़ाया और पुलिस से भीड़ पर गोली नहीं चलाने की अपील की। इस दौरान वह शहीद हो गयी। इस घटना पर समानांतर तमलुक राष्ट्रीय सरकार के बिप्लबी अखबार ने टिप्पणी की थी-  मातंगिनी ने आपराधिक अदालत की इमारत के उत्तर से एक जुलूस का नेतृत्व किया। फायरिंग शुरू होने के बाद भी, वह सभी स्वयंसेवकों को पीछे छोड़ते हुए तिरंगे झंडे के साथ आगे बढ़ती रही। पुलिस ने उन्हें तीन गोलियां मारी। माथे और दोनों हाथों पर घाव होने के बावजूद वह आगे बढ़ती रही। मातंगिनी आगे बढ़ी रही और पुलिस बार-बार गोली मारती रही, वह वंदे मातरम, "मातृभूमि की जय हो" के वह नारे लगाती रहीं।

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