Matrubhoomi: 3000 चीनी सैनिक से भिड़ गए भारत के 120 जवान, जब 18 हजार फीट की ऊंचाई पर हुई Border फिल्म जैसी लड़ाई

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अभिनय आकाश । Dec 27 2025 7:35PM

ये 1962 के भारत और चीन युद्ध के साथ जुड़ी है। इसमें भी वीरता की तमाम मिसालें हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए था, सुनाया जाना चाहिए था और दुनिया को बताया जाना चाहिए था। लेकिन उन्हें उस तरह से नहीं बताया गया जिस तरह से उनका उस युद्ध में योगदान था। इस जंग में शामिल कई भारतीय जवानों के पार्थिव शव बर्फ में दबे मिले थे।

"बहुत से लोग बगैर लड़ाई लड़े ही रिटायर हो जाते हैं। लेकिन कुछ चुने हुए लोगों को भारत माता अपनी सेवा करने का मौका देती है। इस बार भारत माता ने अपनी रक्षा के लिए हमें चुना है। चीन सोच रहा है कि जैसे बीस अक्टूबर को उसने दगाबाजी ने हमारी जमीन छीन ली है वैसे ही अब वो चुशूल भी छीन लेगा। लेकिन उसे ये नहीं पता कि यहां कौन बैठा है। 13 कुमाऊं के बहादुरों अब दुश्मन को सबक सिखाने का वक्त आ गया है।" 11 नवंबर 1962 के दिन ठीक सुबह 10 बजे लेफ्टिनेंट कर्नल एचएस ढींगरा के ये जोश भरे शब्द लद्दाख की बर्फिली वादियों में गूंज रहे थे। इस वक्त तक चीन से लड़ाई छिड़े 20 दिन से ज्यादा का वक्त गुजर चुका था। लेफ्टिनेंट कर्नल एचएस ढींगरा के संबोधन के बाद भारतीय सेना के जवानों ने चीन के खिलाफ असाधारण वीरता का परिचय दिया। कोई भी जंग होती है और उस जंग में जब जीत होती है, तो उसकी कहानियां, उसकी वीरता की कहानियां , शहादत के किस्से कई दशकों तक सुने सुनाए जाते हैं। लेकिन अगर किसी जंग में हार हो जाती है तो उस हार की वजहों वाली फाइल के साथ ही वैसी कहानियों को भी दफ्न कर दिया जाता है। एक ऐसी ही कहानी रेजांग ला की भी है। ये 1962 के भारत और चीन युद्ध के साथ जुड़ी है। इसमें भी वीरता की तमाम मिसालें हैं जिन्हें सुना जाना चाहिए था, सुनाया जाना चाहिए था और दुनिया को बताया जाना चाहिए था। लेकिन उन्हें उस तरह से नहीं बताया गया जिस तरह से उनका उस युद्ध में योगदान था। इस जंग में शामिल कई भारतीय जवानों के पार्थिव शव बर्फ में दबे मिले थे। वो भी तीन महीने बाद। इन जवानों के पार्थिव शवों को देखकर ऐसा लग रहा था मानो वो अभी भी दुश्मनों से मोर्चा लिए हुए हैं। 

भेड़ों को चराते चराते भटकता हुआ गड़ेरिया पहुंचा रेजांगला

बात फरवरी 1963 की है। चीन से लड़ाई खत्म होने के तीन महीने बाद लद्दाख का एक गड़ेरिया अपनी भेडों को चराते चराते भटकता हुआ चुशूल से रेजांगला जा पहुचा। एकदम से उसकी निगाह तबाह हुए बंकरों और इस्तेमाल की गई गोलियों के खोलों पर पड़ी। वो और पास गया तो उसने देखा कि वहां चारों तरफ लाशें ही लाशें पड़ी हुई थी। वर्दी वाले सैनिकों की लाशें। नर्सिंग असिस्टेंट के हाथ में सिरिंच था, किसी की राइफल आगे से उड़ चुकी थी पर उसका बट उनके हात में ही था। इस तरह की लाशें मिली जिससे तब पता चला कि ये लोग कितनी बहादुरी से लड़े थे। गड़ेरिया वापस आया, उसने अधिकारियों को जानकारी दी। हालाँकि रेजांगला से लौटे कुछ जवानों ने पहले भी ये कहानी सुनाई थी कि रेजांगला में क्या हुआ, लेकिन तब किसी ने उनकी बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया था। 124 सैनिकों ने चीन की 3000 की फोज को रोक दिया था। सुनने में असंभव लगता था। ये असंभव संभाव कैसे हुआ? 

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18 नवंबर 1962 को क्या हुआ था

सुबह होने को थी, बर्फीला धुंआ का पसरा हुआ था। सूरज 17,000 फीट की उचाई तक अभी नहीं चढ़ पाया था। लद्दाख में ठंडी और कलेजा जमा देने वाली हवाएं चल रही थी। यहां सीमा पर भारत से प्रहरी मौजूज थे। 13 कुमाओं बटालियन की सी कंपनी चुषूल सेक्टर में तैनात थी। सुबह के धुन्दल के पर रिजांगला यानी रिजांगला के पास पर चीन की तरफ से कुछ हलचल शुरू हुई। बटालियन के जवानों ने देखा कि उनकी तरफ रोशनी के कुछ गोले चले आ रहे हैं। बटालियन के अगुआ मेजर शैतान सिंह थे, उन्होंने गोली चलाने के आदेश दे दिये। थोड़ी देर बाद मेजर शैतान सिंह को पता चला कि ये रोशनी के गोले असल में लालटेन हैं। इन्हें कई सारे यार्क के गले में लटका कर चीन के सेना ने इन्हें भारत की तरफ भेजा था। ये एक चाल थी भारतिय फौज को चकमा देने की। भारतीय फौज के पास हथियार सीमित थे। बंदूके भी ऐसी जो एक बार में एक फायर कर पाती थी। इतने हथियारों के साथ रिजांगला को बचाना था। इसके अलावा इन सैनिकों को इतनी हाइट पर लडने का अनुभव भी नहीं था। 13 कुमाऊं की बटालियन को सीधे कश्मीर से चुषूल भेजा गया था ताकि वहां मौझूद हवाई पट्टी को बचाया जा सके। इतनी उचाई तक आने के लिए कोई रोड नहीं था। रसद पहुचांने का एक मात्र तरीका हवाई जहाज था। 18,000 फीट की उचाई पर पढ़ने वाली थंड से बचने के लिए सैनिक पूरी तरह तैयार नहीं थे। अधिकतर जवान हरियाणा से थे, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में बर्फ पहले कभी नहीं देखी थी। न ढंग के कपड़े थे, न ही बर्फ के जूते। कुछ तो ट्रेनिंग कर रहे थे, वहां से लाए गए 18-19 साल के इन लड़कों को सीधे चुषूल भेजा गया था। बहुत कुछ था जो नहीं था, लेकिन एक चीज की कोई कमी नहीं थी और वो थी जोश, जो उन्हें अपने लीडर मेजर शैतान सिंह से भरपूर मिल रहा था। 

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बटालियन ने अपने मेजर के फैसले पर भरोसा दिखाया

18 नवंबर को जब लड़ाई शुरू हुई, मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को पहाड़ी के सामने की ढलान पर तैनात किया। उनकी पोजीशंस बेहतर थी क्योंकि चीन का हमला नीचे से उपर की ओर होना था। हलांकि चीनी सेना पूरी तयारी से आई थी, उन्हें ठंड में लड़ने की आदत भी थी और उनके पास पर्याप्त हथियार भी थे। हमले के पहले दौर में भारतीय फौज ने चीनियों को पीछे खदेडा। लेकिन शैतान सिंह जानते थे कि चीनी फौज उनका गोला बारूद खत्म होने का इंतजार कर रही है। उन्होंने वायलेस पर सीनियर अधिकारियों से बात की, मदद मांगी। सीनियर अफिसर्स ने कहा कि अभी मदद नहीं पहुंच सकती। आप चाहें तो चौकी छोड़कर पीछे हट सकते हैं, अपने साथियों के जान बचाईए मेजर इसके लिए लेकिन तैयार नहीं हुए। चौकी छोड़ने का मतलब था हार मानना। उन्होंने अपनी टुकडी के साथ एक छोटी सी मीटिंग की, सिच्वेशन की ब्रीफिंग दी। कहा कि अगर कोई पीछे हटना चाहता है तो हट सकता है लेकिन मैं लड़ रहा हूँ और मेरे साथ जो लोग रुकेंगे वो भी लड़ेंगे। गोलियां कम थी, ठंड की वजह से उनका शरीर जबाब दे रहा था और चीन से लड़ पाना नामुंकिन सा था। लेकिन बटालियन ने अपने मेजर के फैसले पर भरोसा दिखाया। तो जवानों ने आपस में डिसकस करके बोला कि हम पीछे नहीं हटेंगे। तब उन्होंने बोला कि ठीक है, यही मैं आगे फॉर्वर्ड कर रहा हूँ कि लास्ट मैन लास्ट बुलेट तक लड़ेंगे लेकिन इसके बाद अगर कोई भी पीछे मुड़ेगा तो मैं उसको गोली से मार दूँगा। फिर थोड़ी देर रूक कर कहा कि उन्होंने बोला कि अगर मैं मुड़ता हूँ तो मैं आज आपको परमिशन दे रहा हूँ कि आप मुझे गोली मार देना।

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रेजांग ला के युद्ध में क्या हुआ था?

उस वक्त उनकी पूरी रेजीमेंट ने पोस्ट पर डटे रहने का फैसला किया था और युद्ध में जाबांजी दिखाते हुए चीनी सैनिकों को आगे बढ़ने से रोका था। चीनी सैनिकों ने किस्तों में हमला किया, उनके पास मशीनगन था, जबकि भारतीय सैनिक राइफल से युद्ध लड़ रहे थे, वे संख्या में 3000 थे और भारतीय 120। बावजूद इसके मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 120 जांबाजों ने जान लड़ा दिया और 1300 से अधिक चीनी सैनिकों को मारा। उनके हमलों को नाकाम करते हुए वे तबतक लड़े जबतक उनके शरीर में जान रही। मेजर शैतान सिंह ने तो दोनों हाथ जख्मी होने के बाद अपने पैरों से गन चलाया और दुश्मनों को मारा. मेजर शैतान सिंह को हमले से बचाकर रखने वाले सैनिक ने उनकी लाश को बर्फ में दबा दिया था। इस युद्ध के लड़ाकों ने हथियार और गोली-बारूद समाप्त हो जाने के बाद अपने हाथों और मेजर ने उससे कहा था तुम चले जाओ और जाकर सबको बताओ कि 13 कुमाऊं रेजीमेंट के लड़ाकों ने कैसे युद्ध लड़ा था। इस युद्ध में कुछ को चीनी सैनिकों ने बंदी बना लिया था और कुछ वापस लौट गए थे, उन्होंने युद्ध के बारे में अपने सीनियर्स को बताया लेकिन किसी ने उनकी बातों को माना नहीं, क्योंकि बर्फ जम जाने की वजह से रेजांग ला में सबकुछ उसमें दफन हो गया था।

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