Jan Gan Man: Supreme Court Collegium को लेकर क्यों बढ़ रहा है विवाद? क्या चाहती है सरकार? क्या निकल सकता है हल?

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इसके अलावा सवाल यह भी उठाये जा रहे हैं कि क्यों अंग्रेज शासन की तरह आज भी हमारी अदालतों में लंबी लंबी छुट्टियां होती हैं? देश में एक तरफ अदालतों पर काम का भारी बोझ है लेकिन आप सुप्रीम कोर्ट का हॉलीडे कैलेंडर देखेंगे तो चौंक जायेंगे।

नमस्कार, प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम जन गण मन में आप सभी का स्वागत है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसी प्रणाली को मंजूरी देकर ऐतिहासिक निर्णय लिया है क्योंकि अक्सर देखने में आता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से अपनी हार की कुंठा में चुनाव आयोग पर निशाना साधा जाता है। अब प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश वाली समिति की सलाह पर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होने से चुनाव आयोग जैसी संस्था और पारदर्शी होगी। वाकई यह एक बड़ा कार्य हुआ है लेकिन अब एक और अधूरे पड़े काम को लेकर चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। दरअसल देश में इस बात की मांग बढ़ती जा रही है कि क्यों नहीं उच्च और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन करने वाले कॉलेजियम में सरकार का प्रतिनिधि हो? मांग यह भी हो रही है कि जज का चुनाव कॉलेजियम की बजाय फुल कोर्ट करे।

इसके अलावा सवाल यह भी उठाये जा रहे हैं कि क्यों अंग्रेज शासन की तरह आज भी हमारी अदालतों में लंबी लंबी छुट्टियां होती हैं? देश में एक तरफ अदालतों पर काम का भारी बोझ है लेकिन आप सुप्रीम कोर्ट का हॉलीडे कैलेंडर देखेंगे तो चौंक जायेंगे। आप भले होली पर एक या दो दिन की छुट्टी मना कर आ गये लेकिन सुप्रीम कोर्ट में होली की सप्ताह भर की छुट्टी है। एक आंकड़ा दिया जा रहा है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में साल भर में सप्ताहांत के अलावा सिर्फ 11 छुटि्टयां रहेंगी लेकिन भारतीय सुप्रीम कोर्ट साल भर में 100 दिन बंद रहेंगे। यह स्थिति तब है जब निचली अदालतों से शीर्ष अदालतों तक लगभग 4.9 करोड़ मामले लंबित हैं। भारत में स्थिति यह है कि अगर एक जज दिन में 100 मामले निपटाता है तो 200 नए केस आ जाते हैं।

जहां तक कॉलेजियम में सरकार का प्रतिनिधि होने की मांग से संबंधित बात है तो हम आपको बता दें कि केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने इस संबंध में मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा था और मांग की थी कि उच्च और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन करने वाले कॉलेजियम में सरकार का भी प्रतिनिधि होना चाहिए। कुछ न्यायविद् इसे एनजेएसी अधिनियम की वापसी बता रहे हैं तो वहीं सरकार से जुड़े लोगों का कहना है कि हमने कोई अभूतपूर्व मांग नहीं की है क्योंकि पूरी दुनिया में ही ऐसा होता है। कानून मंत्री का भी मानना है कि कॉलेजियम प्रणाली में सरकार का प्रतिनिधि होने से इसमें पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही भी आएगी। 

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देखा जाये तो उच्चतम न्यायालय की मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री के बयान के बाद कुछ पूर्व न्यायाधीशों ने भी इस मुद्दे पर बयान दिये जिस पर न्यायालय ने नाखुशी भी जताई थी। लेकिन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जिस तरह एनजेएसी अधिनियम को रद्द किये जाने पर संसद में चर्चा नहीं होने पर हैरत जताई थी, उससे अंदेशा हो गया था कि सरकार कोई कदम उठा सकती है। केंद्रीय कानून मंत्री ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कॉलेजियम में सरकार का प्रतिनिधि रखने की जो मांग की उससे स्पष्ट हो गया कि सरकार न्यायाधीशों के चयन के मुद्दे को सिर्फ कॉलेजियम के भरोसे छोड़ने को तैयार नहीं है। हम आपको याद दिला दें कि 2015-16 में संसद से पारित एनजेएसी में कॉलेजियम प्रणाली को पलटने का प्रावधान था, हालांकि शीर्ष अदालत ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था।

न्यायपालिका और सरकार के बीच कॉलेजियम प्रणाली पर मतभेद उस समय भी सामने आये थे जब हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने केशवानंद भारती मामले में अदालत के ऐतिहासिक फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा था कि न्यायपालिका, संसद की संप्रभुता से समझौता नहीं कर सकती। उल्लेखनीय है कि उस फैसले ने देश को 'संविधान के मूलभूत ढांचे का सिद्धांत' दिया था। धनखड़ ने जयपुर में आयोजित पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को निरस्त किये जाने पर एक बार फिर सवाल उठाते हुए कहा था कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए संसदीय संप्रभुता और स्वायत्तता सर्वोपरि है।

इसके अलावा, न्यायपालिका और सरकार के बीच खींचतान की खबरों के बीच, केंद्रीय कानून मंत्री ने हाल ही में एक टीवी समाचार चैनल पर साक्षात्कार के दौरान न्यायपालिका पर हमले के आरोपों के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि मोदी जी के पिछले साढ़े आठ सालों के शासन में एक उदाहरण बताइए, जब हमने न्यायपालिका के अधिकारों को कम करने की कोशिश की या उसे नीचा दिखाने की कोशिश की? उनका कहना था कि मैंने जूडिशरी के बारे में जो कुछ भी कहा है, वह सिर्फ एक प्रतिक्रिया है। उन्होंने कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट की बेंच से कहा गया कि सरकार फाइलों पर बैठी है, तो लोकतंत्र में मेरे लिए जवाब देना जरूरी हो जाता है। उन्होंने कहा था कि हम फाइल लेकर ऐसे ही नहीं बैठे हैं, बल्कि प्रक्रिया के तहत जो काम करना चाहिए, वह कर रहे हैं। रिजिजू ने कहा था कि कोर्ट को भी सोचना चाहिए कि कोई ऐसी बात न कहे जिससे लोगों में गलत संदेश जाए। उनका कहना था कि अपनी बात अगर मैं सही तरीके से कहता हूं, तो उसको हमला नहीं मानना चाहिए। जूडिशरी को हम सब मान्यता देते हैं और भारत का लोकतंत्र अगर मजबूती से चल रहा है तो उसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि भारत की न्याय प्रणाली मजबूत है। उनका कहना था कि हमारे बीच में एक लक्ष्मण रेखा है। यह हमें अपने संविधान से प्राप्त है। इस लक्ष्मण रेखा को कोई पार न करे, इसी में देश की भलाई है।

वहीं दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात अश्विनी उपाध्याय का कॉलेजियम मुद्दे पर कहना है कि सुप्रीम कोर्ट में 34 जज हैं लेकिन किसे जज बनाना है, यह निर्णय केवल 5 जज करते हैं। उनका कहना है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में 160 जज हैं लेकिन किसे जज बनाना है, यह निर्णय केवल 3 जज करते हैं। उन्होंने कहा कि जज का चुनाव 3 या 5 जज के कॉलेजियम की बजाय फुल कोर्ट को करना चाहिए।

बहरहाल, यह भी एक तथ्य है कि भारत में जज ओवरटाइम काम भी करते हैं। भारत के जजों जितनी कड़ी मेहनत दुनिया में कोई भी जज नहीं करता है। भारत में एक जज औसतन 100 मामलों का निपटारा करता है, जबकि अमेरिका में एक जज केवल एक केस का निपटारा करता है। आमतौर पर एक भारतीय जज रोजाना 50 से 60 मामलों को देखता है। अदालतों में सुविधाओं और संसाधनों की भी भारी कमी है जिसे दूर करने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया है जब तक सुविधाएं और संसाधन बढ़ेंगे तब तक केसों का नया अंबार लग चुका होगा।

-नीरज कुमार दुबे

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