ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी अमर शहीद भगत सिंह ने

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अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली नई दिल्ली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल पेश होने के दौरान भगत सिंह और बीके दत्त ने बम फेंका था।

‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा। कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे, जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा’ 1916 में कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र द्वारा देशभक्ति की लिखी कविता की ये पंक्तियां देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपना सर्वस्व न्यौछावर करने खासकर भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु के लिए बेमानी साबित हो रही हैं। 

शहीद-ए-आजम भगत सिंह की 28 सितंबर को 112वीं जयंती है। बड़े दुख की बात है कि 15 अगस्त 2019 को देश की आजादी को 73 साल हो चुके हैं लेकिन देश के लिए मर मिटने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को शहीद का दर्जा नहीं मिल सका है। देश का दुर्भाग्य है कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए उनके परिजनों को भूख हड़ताल करनी पड़ रही है। शहीद का दर्जा दिलवाने के लिए उनके परिजनों को सड़कों पर धक्के खाने पड़ रहे हैं। सितंबर 2016 में इसी मांग को लेकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के वंशज जलियांवाला बाग से इंडिया गेट तक शहीद सम्मान जागृति यात्रा निकाल चुके हैं। तीनों शहीदों (भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु) ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन सरकारों की तरफ से भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उचित सम्मान आजतक नहीं मिल पाया है जोकि अत्यंत शर्मनाक, दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।

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ब्रिटिश साम्राज्य नींव हिलाने वाले शहीद भगत सिंह के प्रपौत्र यदवेंद्र सिंह के मुताबिक अप्रैल 2013 में आरटीआई के जरिए उन्होंने भारत के गृह मंत्रालय से पूछा था कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को कब शहीद का दर्जा दिया गया था। और अगर ऐसा अब तक नहीं हुआ, तो सरकार उन्हें यह दर्जा देने के लिए क्या कदम उठा रही है? मई, 2013 में भारत के गृह मंत्रालय के पब्लिक इंफॉर्मेशन ऑफिसर श्यामलाल मोहन ने जवाब दिया कि मंत्रालय के पास यह बताने वाला कोई रिकॉर्ड नहीं कि इन तीनों क्रांतिकारियों को कब शहीद का दर्जा दिया गया। 

इससे बड़ा देश का कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है कि आज शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आतंकवादी कहा जा रहा है तथा स्कूलों एवं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में भी आतंकवादी पढ़ाया जा रहा है।  वर्ष 2007 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा- मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र में पूछा गया था कि ‘स्वतंत्राता के लिए भारत के संघर्ष के उद्देश्य को भगत सिंह द्वारा निरूपित क्रांतिकारी आतंकवाद के योगदान का मूल्यांकन कीजिए’।

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दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही ‘स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष’ शीर्षक से लिखी एक पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से डीयू के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1990 में प्रकाशित हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रवक्ता मलय नीरव के मुताबिक 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' शीर्षक वाली किताब, जिसके लेखक बिपन चंद्रा, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, सुचेता महाजन और केन पानिक्कर हैं और जिसे डीयू ने प्रकाशित किया था, की बिक्री और वितरण रोक दिया गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय की इस किताब का मामला पहले संसद में भी उठा था। यहां सांसदों ने इस पर गंभीर एतराज जताया था। 

दिसंबर 2018 में जम्मू विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर मोहम्मद ताजउद्दीन के लेक्चर का वीडियो वॉयरल हुआ था। इसमें उन्होंने शहीद-ए-आजम भगत सिंह को कथित रूप से ‘आतंकी’ कहा था हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान पर सफाई देते हुए माफी मांग ली थी।

अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों को अपने साहस से झकझोर देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को फैसलाबाद जिले के जरांवाला तहसील स्थित बंगा गांव में हुआ था। भगत सिंह पंजाब के लायलपुर के जिस बंगा गांव में पैदा हुए वह अब पाकिस्तान में है, जो अब फैसलाबाद कहलाता है। 1928 में साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन करने वालों पर अंग्रेज सरकार ने लाठीचार्ज करवा दिया था, जिसमें लाला लाजपत राय की मौत हो गई। इस लाठीचार्ज के जिम्मेदार पुलिस अफसर जॉन सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह ने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था। 

अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और अंग्रेजों की नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शन के लिए 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली नई दिल्ली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल पेश होने के दौरान भगत सिंह और बीके दत्त ने बम फेंका था। दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन दोनों ने हंसत-हंसते आत्मसमर्पण कर दिया। अपनी फांसी से एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को भगत सिंह ने अपने साथियों को एक आखिरी खत भी लिखा था कि ‘मुझे फांसी होने के बाद देश की खातिर कुर्बानी देने वालों की तादाद बढ़ जाएगी’।

23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर ब्रिटिश सरकार ने भारत के तीन सपूतों भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू को फांसी पर लटका दिया था। देश में तीनों की फांसी को लेकर जिस तरह से लोग विरोध और प्रदर्शन कर रहे थे, उससे अंग्रेज सरकार डर गई थी। तीनों सपूतों को फांसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार को माहौल बिगड़ने का डर था, इसलिए नियमों को दरकिनार कर एक रात पहले ही तीनों क्रांतिकारियों को चुपचाप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। 

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देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है। 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा बुलंद करके नौजवानों के दिलों में आजादी का जुनून भरने वाले भगत सिंह का नाम इतिहास के पन्नों में अमर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी मिलने के बाद भगत सिंह के साथ-साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद घोषित करने से सरकारें परहेज कर रही हैं।  शहीद भगत सिंह का कहना था कि 'ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती है दूसरों के कन्धों पर तो सिर्फ जनाजे उठाये जाते हैं।' भारत सरकार को अब चाहिए कि वह अविलंब सरकारी रिकॉर्ड में वतन पर अपनी जान न्योछावर करने वाले भगत सिंह के साथ साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद का दर्जा दे।

-युद्धवीर सिंह लांबा

(लेखक अकिडो कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, बहादुरगढ़ जिला झज्जर, हरियाणा में रजिस्ट्रार के पद पर कार्यरत हैं।)

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