दादा साहब फाल्के ने रखी थी, भारत में सिनमा की नींव

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Prabhasakshi

भारत में फिल्म निर्माण को लेकर दादा साहब के दिल-दिमाग में एक अलग जोश, जुनून और जज्बा था, यहां फिल्म निर्माण के लिए उन्होंने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में बतौर फोटोग्राफर अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़ दी।

सिनेमा के बिना जिन्दगी शायद बहुत नीरस और बेरंग होती । सिनेमा एक ऐसा साधन है जो लोगों में जीवन के प्रति एक जोश पैदा करता है, हर कार्य के बाद इंसान को रीक्रिएशन की आवश्यकता होती है ऐसे में सिनेमा उसका एक अच्छा दोस्त साबित होता है। सिनेमा मनोरंजन के साथ ही ज्ञान का भी स्त्रोत है, यह महज कुछ घंटों में दुनिया की सैर करा देता है और प्रेम प्रसंग हों, धर्म, राजनीति या इतिहास सब कुछ रोचक तरीके से सचित्र हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है। इंसान गरीब हो या अमीर सिनेमा देखकर खुद को किसी हीरो से कम नहीं समझता। 

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भारत में सिनेमा की बात करें तो इसे सबसे अधिक भारत में देखा जाता है। भारत में सिनेमा की शुरुआत का श्रेय दादा साहब फाल्के को जाता है, जिन्हें भारतीय सिनेमा का पितामह कहा जाता है। दादा साहब फाल्के मशहूर प्रोड्यूसर, डायरेक्टर के साथ स्क्रीनराइटर भी थे। उन्होंने भारत में फिल्में बनाने का सपना देखा था और उसे पूरा भी किया। 

आज 30 अप्रैल दादा साहब फाल्के का जन्मदिन है, इस अवसर पर आइए जानते हैं सिनेमा को दिए उनके जीवन के सफर के बारे में खास बातें-

दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को त्रयंबकेश्वर में एक मराठी परिवार में हुआ था। उनका नाम धुंडिराज गोविन्द फाल्के था, फिल्मों में उन्हें दादा साहब फाल्के के नाम से जाना गया। इनके पिता गोविंद फाल्के एक प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान और बंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में शिक्षक थे। 

दादा साहब फाल्के की प्रारंभिक शिक्षा बंबई (वर्तमान में मुंबई) में हुई, यहां से हाई स्कूल पूरा करने के बाद वह आगे की शिक्षा के लिए जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स काॅलेज और फिर वड़ोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में गए जहाँ उन्होंने चित्रकला, इंजीनियरिंग, ड्राइंग, मूर्तिकला और फोटोग्राफी सीखी। 

भारत में फिल्मों के निर्माण का विचार दादा साहब फाल्के को 1910 में बंबई के अमरीका-इंडिया पिक्चर पैलेस में प्रदर्शित फ्रेंच फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ को देखकर आया जिसे देखने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि वह भी भारतीय धार्मिक और काल्पनिक चरित्रों को रूपहले पर्दे पर जीवंत करेंगे। 

भारत में फिल्म निर्माण को लेकर दादा साहब के दिल-दिमाग में एक अलग जोश, जुनून और जज्बा था, यहां फिल्म निर्माण के लिए उन्होंने भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में बतौर फोटोग्राफर अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़ दी। 

भारतीय सिनेमा का कारोबार दादा साहब ने 20 से 25 हजार रूपए की लागत से शुरू किया था जो उस समय एक बड़ी राशि मानी जाती थी, यह पैसा जुटाने में दादा साहब का साथ उनके पूरे परिवार ने दिया, उनकी पत्नी ने गहने बेचकर कई बार उनकी मदद की। इसके लिए दादा साहब फाल्के को कर्ज भी लेना पड़ा।

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साल 1912 में दादा साहब फाल्के लंदन गए जहां लगभग दो सप्ताह तक उन्होंने फिल्म निर्माण के बारे में सीखा और इससे जुड़े उपकरण खरीदने के बाद मुंबई वापस लौट आए। मुंबई आने के बाद उन्होंने फिल्म कंपनी की शुरुआत की और राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म बनाने का फैसला किया।

फिल्म निर्माण के कार्य की शुरुआत में, फिल्मों की बारीकियां जानने के लिए दादा साहब ने उस समय में बंबई में मौजूद थियेटरों में लगने वाली कई सारी फिल्में देखीं और लगातार इस कार्य में जुटे रहे, फिल्म निर्माण के दौरान वह तीन से ज्यादा घंटे सोए भी नहीं जिसकी वजह से उनकी आंखें भी प्रभावित हुई धीरे-धीरे उनके देखने की क्षमता कमजोर होती गई। आंखों के इलाज और चश्मों की मदद से उन्होंने फिल्म निर्माण का काम पूरा किया। 

1913 में दादा साहब की मेहनत रंग लाई जब साल 1913 में ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम से भारत की उनकी पहली फुल-लेंथ फीचर फिल्म तैयार हुई जो 21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलम्पिया सिनेमा हॉल में रिलीज की गई। इस फिल्म को बनाने में दादा साहब फाल्के को छह माह का समय लगा। आम जनता में यह फिल्म काफी सफल रही। 

‘राजा हरिश्चंन्द्र’ के बाद दादा साहब ने दो और पौराणिक फिल्में ‘भस्मासुर मोहिनी’ और ‘सावित्री’ बनाईं जिन्हें भी अपार सफलता हासिल हुई। इसके बाद फ़िल्में बनाने का उनका जोश थमा नहीं, उन्होंने लगातार एक से बढ़कर एक बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया।

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19 साल लंबे अपने फिल्मी कॅरियर में दादा साहब ने  95 फुल लेंग्थ फिल्में और 27 शॉर्ट फिल्में बनाईं जिनमें राजा हरिश्चंद्र (1913), सावित्री सत्यवान (1914), लंका दहन (1917), बर्थ आॅफ श्री कृष्ण (1918), कालिया मर्दन (1919), शकुंतला (1920), कंस वध (1920), संत तुकाराम (1921), भक्त प्रहलाद (1926), भक्त सुदामा (1927), वसंत सेना (1929), सेतु बंधन (1932), इत्यादि बेहद हिट फिल्में थीं। फिल्म ‘सेतुबंधन’ तक उनकी फिल्मों को आवाज नहीं मिली थी, यह दादा साहब की आखिरी मूक फिल्म थी। इसके बाद 1937 में दादा साहब ने फिल्म ‘गंगावतरण’ बनाई जो उनकी पहली एकमात्र बोलती फिल्म थी।

लगभग तीन दशक तक फिल्मों के जरिए दर्शकों के दिलों में राज करने वाले दादा साहब फाल्के 16 फरवरी 1944 को दुनिया को अलविदा कह गए। फिल्म इतिहास में उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। फिल्मों में उनके  ऐतिहासिक योगदान के लिए उनकी सौवीं जयंती के अवसर पर 1969 से भारत सरकार ने उनके सम्मान में दादा साहब फाल्के अवार्ड की शुरुआत की जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरस्कार माना जाता है। 

दादा साहब पुरस्कार प्रतिवर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में भारतीय सिनेमा के विकास में उत्कृष्ट योगदान देने वाले व्यक्तियों को दिया जाता दिया जाता है। इस पुरस्कार में विजेता को एक स्वर्ण कमल, प्रशस्ति पत्र, शॉल और 10 लाख रुपये नकद राशि सम्मान में दी जाती है।  पहला दादा साहब फाल्के पुरस्कार 1969 में देविका रानी को मिला था, जो उस समय की मशहूर अभिनेत्री थी। 

- अमृता गोस्वामी

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