प्राण साहब की खलनायकी का जवाब नहीं, हीरो तक दब जाते थे उनके आगे

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अनु गुप्ता । Jul 12 2018 11:07AM

प्राण के बारे में हम बस इतना ही कह सकते हैं कि उस समय उनका नाम ही काफी था। उनकी एक्टिंग और खलनायकी इतनी जीवंत थी कि उस समय लोगों ने डर कर अपने बच्चों के नाम प्राण रखने बंद कर दिए थे।

भारतीय सिनेमा में ज्यादातर हीरो और हीरोइन को ही तवज्जो दी जाती है लेकिन जब बात आती है विलेन की तो उसके बारे में कम ही बात कि जाती है। आज हम बात करने जा रहे हैं भारतीय सिनेमा के प्रख्यात खलनायक और एक्टर प्राण सिकंद की। इंडस्ट्री में प्राण का मतलब ही खलनायक था। प्राण के बारे में हम बस इतना ही कह सकते हैं कि उस समय उनका नाम ही काफी था। उनकी एक्टिंग और खलनायकी इतनी जीवंत थी कि उस समय लोगों ने डर कर अपने बच्चों के नाम प्राण रखने बंद कर दिए थे। उनके जन्मदिन पर एक नज़र डालते हैं उनके जीवन और फ़िल्मी कॅरियर पर।

प्राण साहब का जन्म 12 फरवरी 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में हुआ था। उनका पूरा नाम प्राण कृष्ण सिकंद था लेकिन वे केवल प्राण के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके पिता केवल कृष्ण सिकंद एक सरकारी कांट्रेक्टर थे जिस कारण प्राण साहब की शिक्षा अलग अलग जगहों कपूरथला, उन्नाव, मेरठ, देहरादून और रामपुर से हुई। उनकी माता का नाम रामेश्वरी था।

बचपन से ही प्राण एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने बाकयदा लाहौर से फोटोग्राफी भी सीखी थी लेकिन किस्मत उन्हें एक्टिंग की तरफ ले आई। हुआ यूँ कि वह एक दुकान पर पान खा रहे थे और तभी वहाँ लेखक वली मोहम्मद वली आ गए और उन्होंने प्राण से पूछा एक्टिंग करोगे क्या जिस पर प्राण ने कहा कि जनाब क्यों मजाक कर रहे हैं। दरअसल वली साहब के पास प्राण के लिए एक रोल था जिसके लिए बाद में प्राण ने भी हाँ कर दी थी। 1940 में आई पंजाबी फिल्म यमला जट्ट इनकी पहली फिल्म रही जिसे दलसुख पंचोली ने बनाया था। धीरे-धीरे उन्होंने लाहौर फिल्म इंडस्ट्री में अपना अच्छा खासा नाम कमा लिया था। 1942 में आई फ़िल्म खानदान उनकी पहली हिंदी फिल्म रही जिसमें उनकी नायिका नूरजहां थी। 

लेकिन 1947 में विभाजन के बाद वे अपने परिवार के साथ मुंबई आ गए थे। यहाँ आकर उन्हें जल्दी से काम नहीं मिला और उन्हें अपने परिवार के भरण पोषण के लिए चिंता सताने लगी। लेकिन लेखक सद्दत हुसैन मंटो की मदद से उन्हें 1948 में बॉम्बे टॉकीज़ की फिल्म ज़िद्दी मिली। जिसके बाद उन्हें फिल्मों में नेगेटिव रोल मिलने लगे और ये राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार जैसे हीरो के साथ फिल्मों में नज़र आने लगे। उस समय हीरो तो कई हुए लेकिन खलनायक सिर्फ एक ही रहा प्राण। 1956 में आई फिल्म हलाकू में उनके द्वारा निभाया गया हलाकू डाकू का किरदार बहुत सफल रहा और इतना ही सफल उनके द्वारा राम तेरी गंगा मैली में निभाया गया राका डाकू का किरदार रहा। उनकी कुछ प्रमुख फिल्में हैं पत्थर के सनम, तुम सा नहीं देखा, बड़ी बहन, मुनीम जी, गंवार, गोपी, हमजोली, दस नंबरी, अमर अकबर एंथनी, दोस्ताना, कर्ज, अंधा क़ानून, पाप की दुनिया, मृत्युदाता आदि।

प्राण साहब ने अपने आप को खलनायकी तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि किशोर कुमार की फिल्म हाफ टिकट में वे कॉमेडी करते भी नज़र आए। 50 और 60 के दशक में उन्होंने अधिकतर विलेन का ही रोल किया लेकिन 1967 में आई फिल्म उपकार में उनके द्वार निभाया गया मलंग चाचा के किरदार से उनकी छवि बदली। इस फिल्म में उन्होंने एक गाना भी गया और दर्शकों को रुलाया भी। इस फिल्म के बाद उन्हें विलेन के अलावा भी किरदार मिलने लगे। जंजीर फिल्म जिसने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन के रूप में स्थापित किया था उसमें प्राण द्वारा निभाया गया पठान का किरदार आज भी लोगों को हीरो के रोल से ज्यादा याद है। उन्होंने ना केवल ब्लैक एंड व्हाइट सिनेमा में काम किया बल्कि रंगीन सिनेमा में उभरते हुए प्रोड्यूसर्स जैसे सुभाष घई के साथ विश्वनाथ, कर्ज और क्रोधी जैसी फिल्मों में जबरदस्त भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने अपने 50 साल के फ़िल्मी कॅरियर में लगभग 400 फिल्मों में काम किया। 

प्राण साहब जब भी स्क्रीन पर आते थे तो अपनी बहुआयामी और ऊर्जावान एक्टिंग से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनके बारे में कहा जाता है कि राम और श्याम फिल्म के बाद लोग सही में उनसे डरने लगे थे और उनसे नफरत करने लगे थे लेकिन उपकार फिल्म में निभाए मलंग चाचा के किरदार के बाद उन्हें जनता से प्यार मिलने लगा। उनके डायलॉग बोलने के अंदाज़ को आज भी याद किया जाता है। उनके नाम का पर्याय ही खलनायकी बन चुका था। उन्होंने सिनेमा की कई पीढ़ियों के साथ काम किया। उनकी आँखें भी अभिनय करती थीं और किरदार के लिये जरूरी क्रूरता उनकी आँखों से ही झलकती थी। कई फिल्मों में उनके किरदार और उनकी एक्टिंग फिल्म के नायक पर भी भरी पड़ते थे। प्राण साहब फिल्मों में अपने किरदारों के लिए अलग अलग पोशाक औऱ विग प्रयोग करने के लिए भी जाने जाते थे।

पर्दे पर नकारात्मक किरदार निभाने वाले प्राण असल जीवन में बहुत ही दयालु थे। वे कई समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े हुए थे और संकट की स्थिति में लोगों की मदद भी करते नज़र आते थे। प्राण साहब को खेलों से बहुत लगाव था। पचास के दशक में उन्होंने अपनी फुटबॉल टीम डायनामोस फुटबॉल क्लब में पैसा लगा रखा था। और कई बार वे वहां मैचों का लुत्फ़ उठाते भी देखे जाते थे। उनकी जीवनी प्राण एंड प्राण के नाम से लिखी गई है।

बात करें उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे में तो उनकी शादी 1945 में शुक्ला अहलूवालिया से हुई और शादी के बाद उनके तीन बच्चे दो बेटे अरविंद और सुनील और एक बेटी पिंकी हुई। 12 जुलाई 2013 में काफ़ी बीमार होने के बाद प्राण साहब हमेशा हमेशा के लिए इस दुनिया को छोड़ के चले गए थे। बात करें उनकी उपलब्धियों की तो उन्हें अपने कॅरियर में कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

4 बार उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

पंजाब सरकार द्वारा शिरोमणि पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उन्हें द लायन क्लब अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था।

स्टारडस्ट उन्हें विलेन ऑफ़ द मिलेनियम के पुरस्कार से सम्मानित कर चुका है।

भारत सरकार 2001 में उन्हें पदम् भूषण से सम्मानित कर चुकी है

साल 2012 में उन्हें भारतीय सिनेमा में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए सिनेमा के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

-अनु गुप्ता

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