लंबे समय से हाशिये पर चल रहे ब्राह्मण मतदाता यूपी की राजनीति के केंद्र में आ गये हैं

Jitin Prasada

राजनीतिक दलों के कर्ताधर्ताओं के इन जातिगत हथकंडों की वजह से ही हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत लंबे समय से हाशिये पर चले गये ब्राह्मण मतदाता एक बार फिर से चर्चा में आकर राजनीति के मुख्य केन्द्र बिंदु में आ गये हैं।

हमारे देश में कोई लाख कहे या प्रयास करे कि देश को जातिगत चुनावी राजनीति से जल्द से जल्द मुक्ति मिल जाये, तो आज के राजनीतिक हालातों में राजनेताओं की कृपा की वजह से यह बिल्कुल भी संभव नहीं लगता है। हाल के वर्षों में गौर करें तो देश में बहुत तेजी से दिन-प्रतिदिन धर्म व जातिगत राजनीति का दायरा बहुत तेजी से बढ़ता ही जा रहा है, हालांकि किसी भी नजरिए से यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था व सभ्य समाज के लिए ठीक नहीं है। लेकिन फिर भी देश की चुनावी राजनीति में "सोशल इंजीनियरिंग" के नाम पर जातीय समीकरण की गुणाभाग बहुत लंबे समय से अहम भूमिका निभाती रही है। जातीय व्यवस्था को समाप्त करने की लाख कोशिशों के बाद भी यह हमारे देश की राजनीति का एक बेहद कड़वा सच है, जिसको आज के आधुनिक समय में भी आसानी से झुठलाया नहीं जा सकता है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का या हमारा दुर्भाग्य है कि सभी राजनीतिक पार्टियां समाज व देशहित के मसलों की जगह अपनी चुनावी रणनीति जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए ही तैयार करती हैं। सबसे बड़ा कमाल तो तब होता है जब सत्तारुढ़ दलों के टिकटों के वितरण के समय भी हमारे देश के सियासी दलों के कर्ताधर्ताओं के लिए प्रत्याशी की क्षेत्र में मेहनत, योग्यता, व्यवहार, सेवाभाव और उनकी सरकार के द्वारा किये गये विभिन्न विकास के कार्यों पर जीत का भरोसा कायम ना रह करके, जाति के गणित पर भरोसा कायम रहता है। हालात देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक दलों के द्वारा जाति के आधार पर भेदभाव ना करने के तमाम दावे चुनावी जीत हासिल करने के लिए धरातल पर खोखले साबित होते नजर आते हैं, राजनीतिक दल एक-एक सीट जीतने के उद्देश्य से क्षेत्र की जातीय स्थिति के अनुसार प्रत्याशियों का चयन करते हैं, जो अखंड विकसित विश्व गुरु भारत के सपने को साकार करने के उद्देश्य से बिल्कुल भी उचित नहीं है।

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राजनीतिक दलों के कर्ताधर्ताओं के इन जातिगत हथकंडों की वजह से ही हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुत लंबे समय से हाशिये पर चले गये "ब्राह्मण मतदाता" एक बार फिर से चर्चा में आकर राजनीति के मुख्य केन्द्र बिंदु में आ गये हैं। जिसकी मुख्य वजह प्रदेश के सत्तारुढ़ दल भाजपा से ब्राह्मण मतदाताओं के एक बहुत बड़े वर्ग का विभिन्न कारणों से नाराज होना है, जिसको अपने पक्ष में साधने के लिए उत्तर प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों में होड़ लगी हुई है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में सभी राजनीतिक दलों ने वर्ष 2022 के फरवरी या मार्च माह में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपनी बिसात बिछाने का कार्य तेजी से शुरू कर दिया है। सतारुढ़ भाजपा के साथ मुख्य विपक्षी दल सपा, बसपा और कांग्रेस ने राज्य की सभी 403 सीटों के हिसाब से अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है। उसी चुनावी रणनीति के चलते भाजपा ने अग्रणी रह कर पहल करते हुए 9 जून को अपने केन्द्रीय कार्यालय में कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री व ब्राह्मण चेतना परिषद के सर्वेसर्वा जितिन प्रसाद को भाजपा में शामिल करवा कर ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। साथ ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इस घटनाक्रम के द्वारा कांग्रेस की चुनावी रणनीति को बड़ा झटका देने के साथ-साथ विधान परिषद सदस्य अरविंद कुमार शर्मा के मसले पर केन्द्रीय नेतृत्व के खिलाफ बगावती रुख अपना रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी एक बड़ा संदेश देने का कार्य किया है। लेकिन यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ब्राह्मण नेता के रूप में जितिन प्रसाद को कितना प्रभावी ढंग से स्थापित कर पाता है और उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण मतदाता भी जितिन प्रसाद को कितनी तवज्जो देते हैं, लेकिन यह कटु सत्य है कि इस राजनीतिक घटनाक्रम से कांग्रेस पार्टी के मिशन "यूपी 2022" को बहुत तगड़ा झटका लगा है।

जाति के अनुसार बात करें तो उत्तर प्रदेश में सवर्ण समाज मुख्य रूप से भाजपा का मतदाता माना जाता है, वहीं सपा के साथ मुख्य रूप से पिछड़े वर्ग के मतदाता जुड़े हुए माने जाते हैं, बसपा के साथ एससी मतदाता हैं। वहीं कांग्रेस के साथ कोई एक बड़ी जाति खड़ी हुई नजर नहीं आती है, जिसकी वजह से वो राज्य की राजनीति में विलुप्त होने के कगार पर है। हालांकि जब से प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश की बागडोर अपने हाथ में ली है तब से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व आम लोगों को एक आशा जगी थी कि कांग्रेस प्रदेश में कुछ बेहतर करेगी, लेकिन यहां पर कांग्रेस के दिग्गज रणनीतिकार राज्य में सपा व बसपा के कांग्रेस से मजबूत रहते हुए दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने का सपना देख रहे हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में जिस भी पार्टी को 30 प्रतिशत के आसपास मत मिलते हैं वह पार्टी प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो जाती है। इसलिए राज्य की राजनीति में चुनावी रणनीतिकारों के लिए छोटे-छोटे जातीय समीकरण भी काफी अहम होते हैं, क्योंकि इन समीकरणों को नजरअंदाज करने का मतलब स्पष्ट है कि आप सत्ता से दूर होते जा रहे हैं।

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जितिन प्रसाद को भाजपा में शामिल कराके पार्टी ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2022 की तैयारियां जोरदार ढंग से अभी से ही शुरू कर दी हैं। भाजपा के रणनीतिकार अच्छी तरह से जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चुनाव को मूल मुद्दों से हटाकर किस तरह से अन्य मुद्दों पर लड़ना है इसलिए उन्होंने ब्राह्मण मतदाताओं को आकर्षित करने का राग अलापना शुरू किया है। वैसे भी भाजपा जानती है राज्य में एनडी तिवारी के बाद से लंबे समय से कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना है, इसलिए वह ब्राह्मण मतदाताओं की कमजोर नब्ज तलाश रही है। वैसे जन्म से लेकर मरण तक सनातन धर्म को मानने वाले व्यक्ति के जीवन में ब्राह्मण का महत्वपूर्ण स्थान होता है और ब्राह्मण अपनी व्यवहारिकता की बदौलत अपने साथ-साथ अन्य जातियों के मतदाताओं को भी प्रभावित करने में सक्षम होता है, इसलिए राज्य की राजनीति में ब्राह्मण केन्द्र में है।

वैसे भी पिछले चुनावों की बात करें तो वर्ष 2007 में दलित मतदाताओं के साथ ब्राह्मण मतदाताओं को जोड़कर उनके सहयोग से ही बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार उत्तर प्रदेश में आई थी। तब बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने के लिए सतीश चंद्र मिश्रा का चुनावों में जमकर उपयोग किया था। हालांकि बसपा की सरकार बनने के बाद संतोषजनक सम्मान ना मिलने के चलते ब्राह्मण मतदाता बाद में बसपा से नाराज हो गया था, जिसके बाद से राज्य की राजनीति में ब्राह्मण मतदाता कभी इतनी चर्चाओं में नहीं रहा। हालांकि वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण मतदाताओं ने सपा को समर्थन दिया और समाजवादी पार्टी के युवा चेहरे अखिलेश यादव पर विश्वास करके उनको मुख्यमंत्री बनाया था। लेकिन उसके बाद वर्ष 2014 के लोकसभा व वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण भाजपा के साथ बिना किसी शोरशराबे के मजबूती के साथ खड़े रहे, लेकिन प्रदेश में वर्ष 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से राज्य में घटित कुछ घटनाक्रमों की वजह से ब्राह्मण समाज भाजपा से धीरे-धीरे दूर होने लगा। जिसको अपने-अपने दल की तरफ आकर्षित करने के लिए सभी दल रात-दिन एक करके लगे हुए हैं, कोई भगवान परशुराम की प्रतिमा स्थापित करने की बात कर रहा है कोई अन्य राजनीतिक हथकंडे अपना रहा है। जिसके चलते लंबे समय के बाद राज्य की राजनीति ब्राह्मण मतदाताओं के इर्दगिर्द घूम रही है। लेकिन अब यह देखना होगा कि वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के रणनीतिकारों की बदौलत यूपी में योगी-मोदी लहर एक बार फिर से चलेगी या सपा के युवा चेहरा अखिलेश यादव का जादू 2012 की तरह मतदाताओं पर एक बार फिर से चलेगा या मतदाता हाथी पर सवार होकर तमाम दलों के मंसूबों पर पानी फेर कर मायावती को उत्तर प्रदेश की कमान सौंप देंगे।

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लेकिन इन सब के बीच जिस तरह से कांग्रेस प्रियंका गांधी के नेतृत्व में यूपी में अपनी पूरी ताकत झोंक रही है वह भी तमाम सियासी दलों के भविष्य को तय करने के लिए अहम होगा। खैर यह तो आने वाला समय ही तय करेगा कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, राजनीति का केंद्र बन चुके ब्राह्मण मतदाताओं का आशीर्वाद किस दल को मिलेगा। लेकिन देश व समाज के हित में बेहतर यह है कि मतदाता इतने जागरूक बनें कि वह जाति व धर्म की राजनीति से देश को छुटकारा दिलाकर, लोकतांत्रिक व्यवस्था में वास्तव में अच्छे लोगों का चयन करें।

-दीपक कुमार त्यागी

(वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक)

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