राजनीति में उभरी जातीय सत्ता समाज को तहस-नहस कर रही है

castism in politics is destroying society
संजय तिवारी । Apr 16 2018 10:14AM

सरकार बनाने के लिए होने वाले चुनाव जिस प्रकार से जातिगत आधार पर लड़े और जीते जा रहे हैं उनके कारण देश का सामाजिक ढांचा ही चरमरा गया है। राजनीति में उभरी जातीय सत्ता ने समाज को तहस-नहस कर दिया है।

भारत में वर्ण व्यवस्था आदिकाल से है। चार वर्णों में विभाजित समाज का संचालन उसी अनुरूप होता रहा है। आधुनिक समाज ने अपनी प्रगति के साथ खुद को उन्हीं चार वर्णों में बाँट रखा है। अंतर सिर्फ यह है कि इन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र न कह कर क्लास वन, टू, थ्री और क्लास फोर कहा गया है। इन चार क्लासों में सारी प्राचीन और अर्वाचीन जातियों को बाँट लिया गया है। यानी आज भी उसी चार वर्ण में समाज का संचालन हो रहा है। अंतर यह आया है कि उसमें जो ब्राह्मण रहे होंगे, हो सकता है यहाँ उनकी स्थिति क्लास फोर की हो चुकी हो और जो शूद्र रहे होंगे, संभव है वे क्लास वन में हों। ऐसा कई कारणों से हुआ है। उस व्यवस्था के शूद्र को ऊपर उठाने के लिए कुछ ख़ास व्यवस्थाएं बनायीं गयी जिनमें उसी समय के उच्च वर्णों की सोच और चिंतन शामिल था। लेकिन आज देश में जिस तरह से नव वर्ण में निहित जातियों को लेकर राजनीति की जा रही है वह बहुत निराश करने वाली है। 

वर्ण के आधार पर समाज का विभाजन, जिसे अब जाति कहा जाता है वैदिक काल से ही मौजूद रहा है। इस व्यवस्था की शुरुआत व्यक्ति के पेशे की सम्माननीय पहचान के रूप में हुई थी लेकिन, मुगलकाल के बाद और ब्रिटिश शासन में जाति का इस्तेमाल ‘फूट डालो और राज करो’ के औजार के रूप में किया गया। भारत में जिस वर्ग को अनुसूचित जाति व जनजातियों के रूप में जाना जाता है उनके साथ भेदभाव, अन्याय और हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा व नौकरियों में आरक्षण और एससी/एसटी कानून जैसे कदम भेदभाव रोकने और समाज के हाशिये पर मौजूद इन तबकों को ऊपर लाने के लिए उठाए गए। 

देश की व्यवस्था संचालन के लिए सरकार बनाने के लिए होने वाले चुनाव जिस प्रकार से जातिगत आधार पर लड़े और जीते जा रहे हैं उनके कारण देश का सामाजिक ढांचा ही चरमरा गया है। राजनीति में उभरी जातीय सत्ता ने समाज को तहस-नहस कर दिया है। यही वजह है कि देश में अब जाति की आग सुलग भी रही है और कई बार भभक भी उठती है। यह विचार का विषय है कि आखिर देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐसा क्या कह दिया था जिसके कारण कुछ ख़ास जातियों ने देश में तूफ़ान खड़ा कर दिया ? 15 लोगों की जान भी गयी। भारी मात्रा में राजकीय धन, सम्पदा और संसाधनों की बर्बादी भी हुई। सरकार तमाशबीन बनी रही। जिस तरह से देवी देवताओं के चित्रों पर अभद्रता की गयी वह भारत जैसे देश के लिए शर्मनाक ही कहा जायेगा। क्योंकि इस पूरे दरमियान आखिर उन देवताओं का क्या दोष है ? किसके लिए और किसके खिलाफ यह घृणा परोसी जा रही है ? इन सबके पीछे कौन सी ताकतें काम कर रही हैं ? 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान हटाए जाने के बाद दलित संगठनों की ओर से आयोजित भारत बंद के दौरान हिंसक विरोध में हुआ जान-माल का नुकसान विचलित करने वाला है। हमारे लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक व समुदाय को अपनी बात सकारात्मक ढंग से रखने और जनतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन करने का अधिकार है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह हिंसक प्रदर्शन पर उतारू हो जाएं। यहां विडंबना यही है कि भारत बंद में यही देखने को मिला। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और हरियाणा में बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी की घटनाएं हुईं। यह समझना कठिन है कि जब केंद्र सरकार ने सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने का भरोसा दिया था और याचिका भी दायर की जा चुकी है तब भारत बंद बुलाने की इतनी हड़बड़ी क्यों आ गई? उस दिन जो भी हुआ, क्या वह होना चाहिए था? जाति के खांचे में बंटी राजनीति इस प्रश्न का उत्तर देगी? 

-संजय तिवारी

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