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उत्तर प्रदेश में शिवसेना के साथ गठबंधन कर नया प्रयोग कर सकती है कांग्रेस
- स्वदेश कुमार
- नवंबर 30, 2019 12:30
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कांग्रेस बीजेपी को पटकनी देने के लिए शिवसेना को हथियार बनाना चाहती है, इसलिए अंदरखाने से वह (कांग्रेस) यही चाहती है कि शिवसेना पूरी तरह से हिन्दुत्व की विचारधारा से दूर जाने के बजाए उसकी सियासी जरूरतों के अनुरूप अपने हिन्दुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़े।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 'कांटे से कांटा निकालना' की तर्ज पर बीजेपी को पटखनी देने और सपा−बसपा को सबक सिखाने के लिए शिवसेना को वोट कटुआ की तरह आगे बढ़ा सकती है। सपा−बसपा से चोट खाई कांग्रेस चाहती है कि उसकी धर्म निरपेक्षता और शिवसेना के 'धर्मनिरपेक्ष' हिन्दुत्व के सहारे यूपी की सियासी प्रयोगशाला में ऐसा 'मिश्रण' तैयार किया जाए जिससे भाजपा ही नहीं सपा−बसपा को भी धोया जा सके। कांग्रेस, महाराष्ट्र की तरह उत्तर प्रदेश में भी शिवसेना के साथ 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम' एजेंडा बनाकर हिन्दू−मुसलमानों को एक छतरी के नीचे लाना चाहती है। कांग्रेस की भाजपा के गैर ब्राह्मण− गैर क्षत्रिय, गैर जाटव, पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर नजर लगी है जो कभी उसका कोर वोटर हुआ करता था। कांग्रेस महाराष्ट्र में किसानों का कर्ज माफ कराके यूपी के किसानों के बीच भी पैठ बनाना चाहती है। वैसे भी यूपी में पिछले कई चुनावों से कांग्रेस ने किसानों को लुभाने के लिए कोई कोर−कसर नहीं छोड़ रखी है। महाराष्ट्र में अगर किसानों का कर्ज माफ हो गया तो यूपी के किसानों के बीच भी इसका अच्छा मैसेज जाएगा। इसी के साथ कांग्रेस यह उम्मीद भी लगाई बैठी है कि मुम्बई में बसे उत्तर भारतीयों को खुश करके वह लखनऊ−बिहार में रहने वाले उनके परिवार के अन्य सदस्यों का वोट हासिल कर सकती है।
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दरअसल, उत्तर प्रदेश भारतीय सियासत की प्रयोगशाला बनता जा रहा है। 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 'हिन्दुत्व' का प्रथम सफल 'परीक्षण' यहीं किया था। मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने वृहद हिन्दुत्व के नाम पर दलितों−पिछड़ों, अगड़े−पिछड़ों सबको एक छतरी के नीचे ला खड़ा किया था। चर्चा यह भी है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बीजेपी को पटकनी देने के लिए शिवसेना को अपना मजबूत हथियार बनाना चाहती है, इसलिए अंदरखाने से वह (कांग्रेस) यही चाहती है कि शिवसेना पूरी तरह से हिन्दुत्व की विचारधारा से दूर जाने की बजाए उसकी सियासी जरूरतों के अनुरूप अपने हिन्दुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़े।
गौरतलब है कि शिवसेना भी उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से पांव पसारने के प्रयास में लगी हुई है। वह लोकसभा और विधान सभा चुनाव में अपने प्रत्याशी भी उतारती रही है। यह और बात है कि अभी तक उसे यहां कोई सफलता हासिल नहीं हो सकी। इसकी बड़ी वजह 30 साल से हिन्दुत्व के नाम पर केन्द्र और महाराष्ट्र भाजपा के साथ खड़ी शिवसेना को उत्तर प्रदेश में भाजपा द्वारा महत्व नहीं दिया जाना है। यह बात शिवसेना को हमेशा कचोटती रहती थी कि वह यूपी में अपनी जड़ें नहीं जमा पा रही है, लेकिन भाजपा के साथ के कारण उसके हाथ बंधे हुए थे। अब ऐसी कोई बंदिश नहीं है।
सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में शिवसेना की ताकत में बढ़ोत्तरी करने के लिए जल्द ही उद्धव ठाकरे अयोध्या आ सकते हैं। शिवसेना के दिग्गज नेता संजय राउत इसकी पटकथा लिख रहे हैं। शिवसेना का शीर्ष नेतृत्व भी चाहता है कि उद्धव ठाकरे का जल्द से जल्द अयोध्या जाने का प्रोग्राम फाइनल किया जाए ताकि 24 नवंबर को घोषणा के अनुरूप अयोध्या नहीं आ पाने का 'पाप' धोया जा सके। 24 नवंबर को उद्धव को अयोध्या में प्रभु राम के दर्शन करने के लिए आना था, लेकिन सरकार बनाने की व्यस्तता के चलते उनका दौरा रद्द हो गया था। इस पर भाजपा ने उद्धव पर हमला बोलते हुए कहा था कि अपने नये सहयोगियों के डर से उद्धव राम लला के दर्शन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। अब शिवसेना का हिन्दुत्व से कोई सरोकार नहीं रह गया है।
दरअसल, सियासी दुनिया में जब किसी के दो दुश्मन आपस में दोस्त बन जाते हैं तो इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाती है। महाराष्ट्र में भाजपा यह बात भुगत चुकी है। वहीं यूपी में शिवसेना को भाजपा इस बात का कई चुनावों में अहसास करा चुकी है। वैसे तो बीजेपी खूब हिन्दुत्व का ढिंढोरा पीटती है, लेकिन जब सीट बंटवारे की बात होती है तो शिवसेना को हमेशा नीचा देखना पड़ता है। बीजेपी के चलते ही शिवसेना उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर पाई है। खैर, आज शिवसेना की यहां भले कोई खास हैसियत नहीं हो, लेकिन कांग्रेस के साथ मिलकर वह देश के सबसे बड़े सूबे में नया गुल खिला सकती है। महाराष्ट्र में सरकार बनने से 24 घंटे पूर्व शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अपने विधायकों को संबोधित करते हुए कहा भी था, "हमारे गठबंधन की ताकत को किसी कैमरे में कैद नहीं किया जा सकता है। हम लोग यहां आये हैं और हमारे रास्ते स्पष्ट हैं।''
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उन्होंने कहा, "यदि आपको नहीं पता है कि शिव सेना क्या है, तो हमारा रास्ता काटने का प्रयास करें, हम आपको दिखायेंगे कि शिव सेना क्या है? हम महाराष्ट्र से इसकी शुरुआत कर रहे हैं और फिर आगे बढ़ेंगे। उद्धव का इशारा उत्तर प्रदेश की तरफ ही था।
लब्बोलुआब यह है कि उत्तर प्रदेश में अब कांग्रेस−शिवसेना, भाजपा से मुकाबला करने के लिए बसपा−सपा की छत्र−छाया से बाहर निकलना चाहती है। वह अकेले अपनी जड़ें जमा नहीं पा रही है ऐसे में शिवसेना, भाजपा की गठबंधन सहयोगी (लेकिन उससे नाराज चल रहा) अपना दल, शिवपाल यादव की प्रसपा जैसी पार्टियां कांग्रेस के मिशन 2022 को पूरा कर सकती हैं। शिवसेना को भी पता है कि महाराष्ट्र की बात और है, लेकिन उत्तर प्रदेश में सपा−बसपा कभी उसके साथ नहीं आएंगी। ऐसे में गठबंधन के लिए उसके सामने कांग्रेस ही आखिरी रास्ता बचता है।
-स्वदेश कुमार
धर्म और संस्कृति के प्रति हिंदुओं को जागृत करने का कार्यक्रम है निधि समर्पण अभियान
- ललित गर्ग
- जनवरी 19, 2021 13:27
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एक सकारात्मक वातावरण के अन्तर्गत आने वाले समय में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पूरा होने तक ऐसे जागृति अभियान और हिन्दुत्व को संगठित करने के कार्यक्रम चलते रहेंगे जिनसे भारत सहित संपूर्ण विश्व में फैले हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व चेतना जागृत रहे।
अयोध्या में भव्य श्रीराम मन्दिर निर्माण को लेकर देशभर में चल रहा निधि समर्पण अभियान जहां सामाजिक समता एवं सौहार्द का दर्पण है वहीं भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दुत्व सशक्तिकरण का माध्यम भी है। विश्व हिन्दू परिषद इसके माध्यम से ऊंच-नीच, संकीर्णता, स्वार्थ एवं जातिवाद का भेद मिटाकर हिन्दू समाज को एकजुट एवं सशक्त करने में जुटी है। राम मंदिर निर्माण संघ के लिए हिंदुओं के पुनर्जागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का लक्ष्य हासिल करने का एक महत्वपूर्ण चरण रहा है।
आजादी के बाद से ही हिन्दुत्व को कमजोर करने एवं हिन्दू आस्था केन्द्रों के प्रति राजनीतिक उपेक्षाएं बढ़ती ही गयी थीं। वैसे मध्यकाल एवं विशेष मुस्लिम शासकों ने बड़ी मात्रा में हिन्दू आस्था के केन्द्रों एवं हिन्दू-आस्था को ध्वस्त किया। संघ एवं उससे जुड़े संगठन ही एकमात्र ऐसी रोशनी रही है जिन्होंने हिन्दुओं के अंदर यह भाव पैदा किया कि उनके आस्था केंद्रों पर चोट पहुंचाई गई, उनको तोड़ा गया, दूसरे मजहब के केंद्र बनाए गए, जबरन धर्म परिवर्तन किया गया, शिक्षा पद्धति में हिन्दुत्व की उपेक्षा की गयी और अब उन सबको मुक्त कराना हमारा धर्म है एवं दायित्व भी। संघ धीरे-धीरे लोगों के अंदर ये भावनाएं पैदा करने में सफल हुआ है। उनके अंदर यह विश्वास कायम हो रहा है कि भाजपा सत्ता में रहेगी तो आस्था केंद्रों की मुक्ति का रास्ता आसान होगा, न केवल आस्था केन्द्रों का बल्कि हिन्दुत्व के अजेंडे़ को भी तभी पूरा किया जा सकेगा।
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संघ और भाजपा के एजेंडे में श्रीराम मन्दिर के अलावा कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना, समान नागरिक संहिता लागू करना, गोवंश हत्या निषेध और लव जिहाद को रोकने के आशय वाले कानूनों का निर्माण करना शामिल है। एक बड़ा मसला अब मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी में श्रीविश्वनाथ की मुक्ति का है। मथुरा से संबंधित मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। संघ चाहता है कि मथुरा की तरह ही काशी विश्वनाथ और संपूर्ण भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में छोटे-बड़े मंदिरों के मामले न्यायालयों में डाले जाएं। हिन्दुत्व आस्था एवं संस्कृति को बहुत जतन से बर्बरतापूर्वक कुचला गया, अब पुनः हिन्दुत्व संस्कृति को गरिमा प्रदान करते हुए उसे जीवंत करने का अभियान चल रहा है। हिन्दू घोर अंधेरी रात के साक्षी रहे हैं, एक-दूसरे का हाथ नहीं थामेंगे तो सुबह की दहलीज पर नहीं पहुंच पायेंगे।
एक सकारात्मक वातावरण के अन्तर्गत आने वाले समय में मंदिर का निर्माण पूरा होने तक ऐसे जागृति अभियान और हिन्दुत्व को संगठित करने के कार्यक्रम चलते रहेंगे जिनसे भारत सहित संपूर्ण विश्व में फैले हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व चेतना जागृत रहे। संघ अपनी स्थापना के समय से ही हिंदू राष्ट्र की बात करता है। संघ नौ दशकों बाद दुनिया के सबसे बड़े संगठन के रूप में खुद को स्थापित कर पाया है तो इसका कारण स्पष्ट नीति, सकारात्मक सोच, संस्कृति-विचार एवं अपनी जड़ों को मजबूती प्रदान करना है।
दुनिया के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना केशव बलराम हेडगेवार ने की थी। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लक्ष्य के साथ 27 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन आरएसएस की स्थापना केशव बलिराम हेडगेवार व संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई थी। हेडगेवार के साथ विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, अण्णा साहने, बालाजी हुद्दार, बापूराव भेदी आदि थे। उस वक्त हिंदुओं को सिर्फ संगठित करने का विचार था। संघ परिवार या भाजपा का मानना है कि भारत हिंदू राष्ट्र था, है और रहेगा।
संघ का दावा है कि उसके एक करोड़ से ज्यादा जीवनदानी समर्पित सदस्य हैं। संघ परिवार में 80 से ज्यादा समविचारी या आनुषांगिक संगठन हैं। दुनिया के करीब 40 देशों में संघ सक्रिय है। मौजूदा समय में संघ की 56 हजार से अधिक दैनिक शाखाएं लगती हैं। करीब 13 हजार 847 साप्ताहिक मंडली और 9 हजार मासिक शाखाएं भी हैं। संघ ने अपने लंबे सफर में कठोर संघर्ष के उपरान्त कई उपलब्धियां अर्जित कीं जबकि तीन बार उस पर प्रतिबंध भी लगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को संघ से जोड़कर देखा गया, संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को बंदी बनाया गया। लेकिन 18 महीने के बाद संघ से प्रतिबंध हटा दिया गया। दूसरी बार आपातकाल के दौरान 1975 से 1977 तक संघ पर पाबंदी लगी। तीसरी बार छह महीने के लिए 1992 के दिसंबर में लगी, जब 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी। तमाम वितरीत परिस्थितियों एवं अवरोधों के, संघ हर बार अधिक तेजस्विता एवं प्रखरता से उभर कर सामने आया।
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सम्पूर्ण साहस, सूझबूझ एवं तय सोच के साथ वैसे कदम उठा रहे हैं जिनकी चाहत संघ परिवार के एक-एक कार्यकर्ता और समर्थक के अंदर सालों से कायम रही है। दिशा एवं दशा, समय और संयोग भी उनका साथ दे रहा है। उदाहरण के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता उच्चतम न्यायालय ने साफ कर दिया। इसके पूर्व तीन तलाक को अपराध करार देने के कानून का आधार भी न्यायालय के फैसले ने ही प्रदान किया। अयोध्या पर न्यायालय के फैसले के बाद पूरा संघ परिवार मंदिर निर्माण की प्रक्रिया को अपनी सोच के अनुसार आगे बढ़ा रहा है। संपूर्ण देश को इससे जोड़ने का कार्यक्रम भी अनुकूल माहौल निर्मित कर रहा है। क्योंकि संघ ने धीरे-धीरे अपनी पहचान एक अनुशासित और राष्ट्रवादी संगठन की बनाई। जिससे न केवल देश में बल्कि दुनिया में इसके समर्थन का माहौल बन रहा है। सच तो यह है कि संस्कृति, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं का कोई मजहब और सम्प्रदाय नहीं होता। अगर संवेदनहीनता एक तरफ है और वह समस्याओं की जड़ में है, तो वैसी ही संवेदनहीनता उस तरफ भी पायी जाती है जिधर आरोप लगाने वाले होते हैं। सबसे बड़ी बात अपने भीतर के न्यायाधिपति के सामने खड़े होकर खुद को जांचने, सुधारने, संगठित होने और आगे का रास्ता तय करने की होती है।
संघ साफ तौर पर हिंदू समाज को उसके धर्म और संस्कृति के आधार पर शक्तिशाली बनाने की बात करता है। संघ से निकले स्वयंसेवकों ने ही भाजपा को स्थापित किया। संघ एवं भाजपा के प्रयासों से आज समूचा देश राममय बना है, भगवान श्रीराम सबके हैं, इसलिये उनके मन्दिर निर्माण में सबसे सहयोग लेने के प्रयास हो रहे हैं। इसी मन्दिर के लिये गुरु गोविन्द सिंह ने भी दो बार युद्ध लड़ा। गुरुनानक देवजी जब अयोध्या आये थे तब अपने शिष्य मर्दाना को बोला था कि यह मेरे पूर्वजों की धरती है। जैन धर्म के 24 में से 22 तीर्थंकरों की यह कल्याणक भूमि है तो महात्मा बुद्ध श्रीराम के वंश से जुड़े थे। बाबा साहब अंबेडकर ने कई बार अयोध्या का जिक्र किया तो महात्मा गांधी ने तो अपने प्राण ही श्रीराम को पुकारते हुए त्यागे थे। हिन्दू संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवंत संस्कृति भी है। यह राष्ट्रीयता की द्योतक है। अतः राष्ट्रीयता को सशक्त एवं समृद्ध हमें अपने सांस्कृतिक तत्वों से करना चाहिए अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति गौरवशील नहीं रहने देगी। यह भारत भूमि जहां राम-भरत की मनुहारों में 14 वर्ष पादुकाएं राज-सिंहासन पर प्रतिष्ठित रहीं, महावीर और बुद्ध जहां व्यक्ति का विसर्जन कर विराट बन गये, श्रीकृष्ण ने जहां कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान दिया और गांधीजी संस्कृति के प्रतीक बनकर विश्व क्षितिज पर एक आलोक छोड़ गये, उस देश में एक समृद्ध संस्कृति को धुंधलाने के प्रयत्न होना, सत्ता के लिये मूल्यों एवं संस्कृति को ध्वस्त करना, कुर्सी के लिये सिद्धान्तों का सौदा, वैभव के लिये अपवित्र प्रतिस्पर्धा और विलास के हाथों राष्ट्र को कमजोर करने का षड्यंत्र होना लगातार चुभन पैदा करता रहा है, अब इन धुंधलकों के बीच रोशनी का अवतरण हो रहा है तो उसका स्वागत होना चाहिए। संघ परिवार एवं भाजपा इस दिशा में जितना प्रखर होकर चलेंगे, देश उतना ही सशक्त होगा। जितने मजबूत इनके इरादे होंगे, उतना ही जन-समर्थन बढ़ेगा।
-ललित गर्ग
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- अजय कुमार
- जनवरी 18, 2021 13:44
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2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था।
भारतीय जनता पार्टी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 1980 में गठन के बाद 1984 के लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी के आज तीन सौ से अधिक सांसद हैं। कई राज्यों में उसकी सरकारें हैं, लेकिन बीजेपी आज भी सर्वमान्य पार्टी नहीं बन पाई है। दक्षिण के राज्यों में उसकी पकड़ नहीं के बराबर है। कर्नाटक को छोड़ दें तो दक्षिण के राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना में आज भी बीजेपी ज्यादातर मुकाबले में नजर नहीं आती है। इसी के चलते बीजेपी पर पूरे देश की बजाए उत्तर भारतीयों की पार्टी होने का ठप्पा चस्पा रहता है। उत्तर भारत में भी बीजेपी को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों की अलग-अलग धारणा है। कभी बीजेपी को बनिया (व्यापारियों) और ब्राह्मणों की पार्टी कहा जाता था, तो ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं थी जो बीजेपी को शहरी पार्टी बताया करते थे। इस अभिशाप को मिटाने के लिए बीजेपी को काफी पापड़ बेलने पड़े तो प्रभु राम ने उसका (बीजेपी) बेड़ा पार किया।
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अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली के पांच सौ वर्ष पुराने विवाद में ‘कूद’ कर बीजेपी ने ऐसा रामनामी चोला ओढ़ा कि वह बनिया-ब्राह्मण की जगह हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की लम्बरदार बन बैठी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की राजनैतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी ने वर्षों से अलग-अलग अपनी ढपली बजाने वाले हिन्दुओं को भगवान राम के नाम पर एकजुट करके उसे बीजेपी का वोट बैंक भी बना दिया, लेकिन फिर भी बीजेपी के ऊपर शहरी पार्टी होने का ठप्पा तो लगा ही रहा। यह वह दौर था जब बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस सहित अन्य तमाम गैर-भाजपाई दल मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत में लगे हुए थे। वहीं हिन्दुओं के वोट बंटे रहें, इसके लिए साजिशन हिन्दुओं के बीच जातिवाद घोलकर उनके वोटों में बिखराव पैदा किया गया। यादवों के रहनुमा मुलायम बन गए और मायावती दलितों को साधने में सफल रहीं। हिन्दुओं के वोट बैंक में बिखराव के सहारे ही बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने वर्षों तक सत्ता हासिल करने में कामयाबी हासिल की। बसपा सुप्रीम मायावती ने भी कई बार दलित-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाबी हासिल की। यह सब तब तक चलता रहा जब तक कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी युग का श्रीगणेश नहीं हुआ था।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जलाई की शहर से लेकर गाँव तक में मोदी-मोदी होने लगा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि बीजेपी ने गाँव-देहात में अपने संगठन को मजबूत कर लिया था। बीजेपी पर शहरी पार्टी होने का ठप्पा लगा था। इस ठप्पे को हटाने के लिए ही मोदी सरकार ने तमाम विकास योजनाओं का रूख गांव-देहात और अन्नदाताओं की तरफ मोड़ दिया। फसल बीमा योजना, कृषि में मशीनीकरण, जैविक खेती, सॉइल हेल्थ कार्ड और प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ऐसी प्रमुख योजनाएं हैं जो केंद्र सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं। किसानों से लगातार संवाद किया जा रहा है। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कई राहत पैकजों की भी घोषणा की गई। नया कृषि कानून भी इसका हिस्सा है जिसको लेकर आजकल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसानों ने मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा भी खोल रखा है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने नये कृषि कानून पर अंतरिम रोक लगा कर एक कमेटी भी गठित कर दी है।
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किसानों को लेकर कई कदम उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी केन्द्र सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए कई किसान योजनाएं लेकर आई है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में सिंचन क्षमता में वृद्धि तथा सिंचाई लागत में कमी लाकर कृषकों की आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। 50 लाख किसान ड्रिप स्प्रिंकलर सिंचाई योजना से लाभान्वित हुए। योजना में लघु एवं सीमांत कृषकों को 90 प्रतिशत एवं सामान्य कृषकों को 80 फीसदी का अनुदान मिला है। लघु, सीमांत, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कृषक समूह के लिए मिनी ग्रीन ट्यूबवेल योजना की भी शुरुआत की गई है। योजना के तहत नलकूप के सबमर्सिबल पम्प का संचालन सौर ऊर्जा के माध्यम से किया जाएगा।
योगी सरकार खेतों की मुफ्त में जुताई और बुवाई का भी कार्यक्रम लेकर आई है। पहले चरण में ये योजना यूपी के लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर समेत 16 जिलों में लागू की गई। इसके तहत लघु और सीमांत किसानों को राहत देने के लिए योगी सरकार ने ट्रैक्टरों से मुफ्त में खेतों की जुताई और बुवाई कराने जैसी बड़ी सुविधा दी गई है। मुख्यमंत्री कृषक योजना के तहत 500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। हाल ही में किसान सम्मान निधि योजना के तहत 2.13 करोड़ किसानों के बैंक खातों में 28,443 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये गये। देश के किसानों के लिए यह सब योजनाएं केन्द्र की मोदी सरकार लाई है तो यूपी की योगी सरकार अपने प्रदेश के किसानों की माली हालत सुधारने में लगी है।
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बात सरकार से अलग संगठन की कि जाए तो भारतीय जनता पार्टी इसमें भी अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है। शहर के चौक-चौराहों से निकलकर बीजेपी गाँव-देहात में चौपालों तक दस्तक देने लगी है। इसीलिए भारतीय जनता पार्टी पंचायत चुनावों में भी ताल ठोंकने लगी है। कई राज्यों के पंचायत चुनाव में बीजेपी अपनी ताकत दिखा भी चुकी है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी ने गांव की सरकार के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। भाजपा पंचायत चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। अबकी बार बीजेपी अपने चुनाव चिन्ह कमल के निशान पर पंचायत चुनाव लड़ने जा रही है ताकि भविष्य में बीजेपी ताल ठोक कर कह सके कि उसकी पहुंच गाँव-गाँव तक है।
दरअसल, पार्टी अभी तक त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव (जिला पंचायत, क्षेत्र पंचायत और ग्राम पंचायत) में अपने उम्मीदवारों को सिर्फ समर्थन देती थी, सिंबल नहीं दिया जाता था। प्रत्याशी को बीजेपी समर्थित कहा जाता था, लेकिन मौजूदा बीजेपी नेतृत्व का मानना है कि हर राजनीतिक दल को खुद का कर्तव्य मानकर हर चुनाव में उम्मीदवार उतारने चाहिए क्योंकि चुनाव के दौरान सियासी दलों को अपनी नीतियां और योजनाओं को आमजन के सामने रखने का खास अवसर मिलता है। चुनाव सियासी दलों की परीक्षा समान हैं।
-अजय कुमार
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- प्रो. सुधांशु त्रिपाठी
- जनवरी 16, 2021 13:02
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वास्तव में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भारत शांतिपूर्ण तरीके से जिस तरह तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है उससे संपूर्ण विश्व अचंभित है परंतु देश के भीतर तथा विदेश में बैठे इन कट्टर राष्ट्रविरोधी ताकतों को अच्छा नहीं लग रहा है।
केंद्र सरकार तथा आंदोलनकारी किसान नेताओं के बीच कई दौर की वार्ता के बाद भी दोनों पक्षों को स्वीकार्य कोई हल अब तक निकल नहीं सका है। वस्तुतः संपूर्ण घटनाक्रम शाहीन बाग की याद दिला रहा है। जिस तरह से किसान आंदोलन के नाम पर चंद मुट्ठी भर अमीर से बेहद अमीर किसानों के नेतृत्व में पंजाब तथा हरियाणा के बहुसंख्य किसानों ने न केवल दिल्ली बल्कि आसपास के चतुर्दिक सामान्य जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। ये प्रदर्शनकारी या तथाकथित अन्नदाता किसान दिल्ली के समीप सिंघु बॉर्डर पर पिछले पचास दिनों से डेरा डाले बैठे हुए हैं जिससे सामान्य किसानों की रोजी-रोटी पर तो कुठाराघात हो ही रहा है, साथ ही दैनिक मजदूरों और अन्य दिहाड़ी कामगारों को भी अपने जीवकोपार्जन में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। वस्तुतः उनके इस अनवरत प्रदर्शन से दिल्ली तथा संबंधित सभी राज्यों की कानून व्यवस्था संभालने वाली पुलिस तथा प्रशासनिक मशीनरी को इन अन्नदाताओं के धरना स्थलों की सुरक्षा तथा दिल्ली के चारों ओर सभी राज्यों से यहाँ प्रतिदिन आकर काम करने वालों के लिये दैनिक आवागमन सुलभ बनाने तथा सामान्य कानून एवं व्यवस्था की स्थापना करने में भी एड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। इसमें न केवल देश के करदाताओं का अमूल्य धन नष्ट हो रहा है जिसका अन्यथा सामाजिक कल्याण एवं विकास के कार्यों में उपयोग किया जा सकता था बल्कि पूरे प्रशासनिक अमले का परिश्रम नष्ट हो रहा है जिससे निश्चय ही सामान्य जनजीवन की सुरक्षा बढ़ाई जा सकती थी तथा उनका राष्ट्रहित में उपयोग किया जा सकता था।
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यद्यपि ये अन्नदाता कृषि कानून को वापस लिये जाने पर अड़े हैं तथा इसके लिए केंद्र सरकार पर अनेकों प्रकार से दबाव बना रहे हैं जिसमें देश के कुछ प्रमुख तथाकथित बुद्धिजावियों के साथ लगभग सभी प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दल और चीन समर्थित माओवादी कम्युनिस्ट पार्टियां तथा लंदन से खालिस्तान समर्थक उग्रवादी संगठन भी भरपूर समर्थन दे रहे हैं जो अखंड भारत के भीतर एक स्वतंत्र पंजाब/खालिस्तान देश का सपना संजोए बैठे हैं। निश्चय ही इन अन्नदाताओं ने अपने निहित स्वार्थों के लिए संपूर्ण देश के बहुसंख्यक सामान्य किसानों को बुरी तरह से भ्रमित करके डरा दिया है क्योंकि इनके लिए राष्ट्रहित का कोई महत्व नहीं है, अन्यथा किसानों के आंदोलन में इन सभी विघटनकारी तत्वों का क्या काम है। यद्यपि कृषि कानून में उल्लिखित विभिन्न सकारात्मक प्रावधानों के महत्व को ये अन्नदाता मौन रूप से स्वीकार कर रहे हैं तथापि अपने संकीर्ण स्वार्थों की निर्बाध पूर्ति के लिए ये इन सभी महत्वपूर्ण किसान-हितकारी उपबंधों की उपेक्षा कर रहे हैं जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम0एस0पी0) की गारंटी के साथ ही किसानों को अपनी फसल को देश के किसी भी स्थान पर बेचे जाने की छूट दी गयी है तथा मंडियों में फैले भ्रष्टाचार से उन्हें बचाने का प्रयास भी किया गया है। संभवतः अपने इन तुच्छ स्वार्थों एवं संकीर्ण उद्देश्यों के चलते तथा इस आंदोलन के देश विरोधी और विघटनकारी-आतंकवादी तत्वों के हाथों में पड़ जाने के कारण इन आंदोलनकारी किसान नेताओं में उत्पन्न निराशा साफ दिखायी दे रही है।
वास्तव में देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भारत शांतिपूर्ण तरीके से जिस तरह तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है उससे संपूर्ण विश्व अचंभित है परंतु देश के भीतर तथा विदेश में बैठे इन कट्टर राष्ट्रविरोधी ताकतों को अच्छा नहीं लग रहा है। विश्व के सभी प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष यथा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एवं फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन तथा आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन, इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू एवं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आदि सभी प्रमुख नेतागण प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली से अत्यंत प्रभावित हैं। यह प्रधानमंत्री मोदी की विश्व में बढ़ती हुई लोकप्रियता की स्वीकारोक्ति ही है कि अनेक प्रमुख देश उन्हें अपने-अपने सर्वोच्च राजकीय सम्मान से सम्मानित कर चुके हैं।
वर्तमान कोरोना की विश्वव्यापी महामारी के दौर में देश के प्रधानमंत्री ने जिस सूझ-बूझ का परिचय देते हुए सभी देशवासियों की सुरक्षा एवं उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सारे व्यापक उपाय किए उसकी न केवल देश में बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी वैश्विक संस्था तथा विभिन्न देशों द्वारा कई प्रमुख मंचों पर भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। कोविड-19 के कठिन दौर में भी जब पड़ोसी देश चीन ने अत्यंत शर्मनाक विश्वासघात करते हुए भारत-चीन सीमा, (एल0ए0सी0) पर देश में अनेक स्थानों पर घुसपैठ करने की कोशिश की, उसका अत्यंत साहसपूर्वक ढंग से सामना करते हुए भारतीय सेना प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में बीजिंग को जिस तरह से मुँहतोड़ जवाब दे रही है उससे चीन बेहद परेशान हो चुका है तथा उसके कारण चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को न केवल विश्व में बल्कि अपने देश में भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। समग्रतः विश्व में भारत की तेजी से उभरती सशक्त छवि देशविरोधी शक्तियों के लिए एक बहुत बड़ी परेशानी का कारण बन चुकी है। अतः ये सब, जिनमें देश के भीतर सक्रिय टुकडे-टुकड़े गैंग की प्रभावी भूमिका रहती है, केवल मौके की तलाश में रहते हैं कि कैसे भारत को एक बार पुनः अस्थिर तथा विखंडित किया जाए। किसानों के इस आंदोलन ने इन्हें पुनः एक मौका दे दिया है।
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ऐसे चिंताजनक परिदृश्य में यद्यपि देश की सर्वोच्च अदालत ने इस कानून पर रोक लगा कर केंद्र सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच चले आ रहे लंबे टकराव पर विराम लगाने का प्रयास तो किया है और समाधान निकालने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है परंतु एक सदस्य द्वारा समिति में शामिल न होने के फैसले से आगे की कार्यवाही प्रभावित हो सकती है और विलंब हो सकता है। इसी असमंजस के बीच इन आंदोलनकारी किसानों द्वारा देश के आगामी गणतंत्र दिवस 26 जनवरी पर विशाल ट्रैक्टर जुलूस निकालने की चेतावनी दोनों पक्षों के बीच तनाव को बढ़ाने का काम करेगी। अंततोगत्वा सरकार तथा आंदोलनकारी किसानों को ही इस समस्या का हल खोजना होगा जो दोनों के बीच बातचीत से ही निकल सकता है। लेकिन इसके लिए इन किसान आंदोलनकारियों को अपने बीच से स्वार्थी किस्म के छद्म नेताओं तथा विघटनकारी तत्वों को हटाना होगा क्योंकि तभी दोनों के बीच सार्थक वार्तालाप हो सकेगा और दोनों पक्षों को स्वीकार्य हल निकल सकेगा, जो अब तक की कई दौर की वार्ता के सम्पन्न होने पर भी नहीं निकल सका। साथ ही देश के संपूर्ण जनता-जर्नादन अर्थात् हम भारत के लोग को भी जाति, धर्म, भाषा, समुदाय, क्षेत्र आदि जैसे संकीर्ण विचारों से ऊपर उठना चाहिए तथा किसान आंदोलन के नाम पर अपने तुच्छ हितों की रक्षा करने वाले इन स्वार्थी और देश विरोधी किसान नेताओं एवं असामाजिक तत्वों तथा कट्टर राष्ट्रविरोधी-विघटनकारी एवं खालिस्तान समर्थक उग्रवादी संगठनों को अलग-थलग कर देना चाहिए जिससे देश की अखंडता तथा राष्ट्रहित और मानव संस्कृति की रक्षा हो सके तथा समाज में शांति एवं सुरक्षा की स्थापना के साथ ही सामाजिक समरसता भी कायम की जा सके। ऐसा हो सकता है क्योंकि मानव उद्यम से परे कुछ नहीं होता है।
-प्रो. सुधांशु त्रिपाठी
आचार्य
उप्र राजर्षि टण्डन मुक्त विश्वविद्यालय
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।
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