गोरक्षा के नाम पर सड़कों पर खूनी खेल सभ्य समाज के माथे पर कलंक

increasing numbers of Mob Lynching is serious concern

आखिरकार मोबोक्रेसी के खिलाफ सरकार और भीड़ के माध्यम से खूनी खेल खेलने वालों को सख्त संदेश देने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत को आगे आना ही पड़ा। वैसे भी सामान्य समझ की बात है कि कानून हाथ में लेने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है?

आखिरकार मोबोक्रेसी के खिलाफ सरकार और भीड़ के माध्यम से खूनी खेल खेलने वालों को सख्त संदेश देने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत को आगे आना ही पड़ा। वैसे भी सामान्य समझ की बात है कि कानून हाथ में लेने का अधिकार किसी को कैसे दिया जा सकता है ? पिछले कुछ समय से जिस तरह से अफवाहों के चलते भीड़ तंत्र का खूनी खेल हो रहा है और जब सर्वोच्च अदालत एक और मॉब लिंचिंग के खिलाफ केन्द्र व राज्य सरकारों को आदेश दे रही थी, उधर भीड़ द्वारा सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश को पीटने का सिलसिला चल रहा था, इससे साफ हो जाता है कि भीड़तंत्र की यह अराजकता का सिलसिला बेखौफ जारी है। यही नहीं राजस्थान के अलवर में भी जिस तरह गोरक्षा के नाम पर एक व्यक्ति की पीट पीटकर हत्या कर दी गयी वह शर्मनाक और दुखदायी है।

कभी गोरक्षा के नाम पर तो कभी बच्चों के अपहरण तो कभी चोरी चकारी, छेड़−छाड़ की अफवाह के चलते राह चलते आदमी को घेर कर मौत के घाट उतार देना किसी तालीबानी कदम से कमतर नहीं माना जा सकता। आखिर यह कौन-सा तरीका है कि कुछ स्वार्थी लोग पहले अफवाहें फैलाते हैं और फिर राह चलते आम आदमी को घेर कर उस पर टूट पड़ते हैं। पहली चीज तो यह कि देश में कानून का राज है। हर गलत की सजा का प्रावधान है। कानून व्यवस्था के लिए पूरा प्रशासनिक अमला होने के बावजूद कानून को हाथ में लेकर दोषी या निर्दोषी का फैसला भीड़ को करने का हक दुनिया का कोई कानून या कोई व्यवस्था नहीं देती।

देखा जाए तो कुछ लोग माहौल को गर्माने में माहिर होते हैं। फिर सोशल मीडिया का दुरुपयोग जगजाहिर होता जा रहा है। स्थितियों को सुधारने के लिए सरकार द्वारा कुछ समय के लिए इंटरनेट सेवा बंद कर देने पर हो हल्ला मचाने वाले यह भूल जाते हैं कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग कितना नुकसान दायक है, यहां तक कि कानून व्यवस्था बिगाड़ने के साथ ही किसी के जीवन से खेलने की अति स्थिति तक पहुंच जाता है। हालांकि इंटरनेट सेवाएं कुछ समय के लिए बंद करना कोई समाधान नहीं माना जा सकता। होना तो यह चाहिए कि सरकार का प्रचार तंत्र खासतौर से अफवाहों पर रोक लगाने में प्रभावी होना जरूरी है। इस ओर देश की सर्वोच्च अदालत ने भी साफ−साफ इशारा किया है। पिछले कुछ समय से देश में तालीबानी सोच का असर तेजी से बढ़ा है। देश का कोई हिस्सा या प्रदेश इससे अछूता नहीं है। भीड़ का खूनी खेल इंसान की मौत पर जाकर ही रुकता है। यह सही है कि कोई दोषी हो सकता है, तो उस दोषी को सजा के कानूनी प्रावधान है। प्रतिक्रियावादियों को दोषी को कानून के दायरे में सजा दिलाने में सहयोग करना चाहिए। लेकिन हो ठीक उलट रहा है। प्रतिक्रियावादी लोग स्वयं ही कानून को हाथ में लेकर निर्दोष तक को मौत की नींद सुलाने में नहीं हिचक रहे हैं।

मॉब लिंचिंग के माध्यम से मौत के बढ़ते आंकड़े बेहद चिंताजनक है। गोरक्षा के नाम पर 33 लोगों की मौत के घाट सुलाया जा चुका है। 2010 से अब तक हिंसक वारदातों में 86 लोगों को जीवन से हाथ धोना पड़ा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान व केरल में गोरक्षा के नाम पर सांप्रदायिक माहौल खराब करने के प्रयास जारी हैं। पिछले एक साल में ही भीड़ द्वारा हिंसा के खुले खेल के चलते 31 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। आखिर किसी की जान लेने का हक किसी को कैसे हो सकता है।

मोबीक्रेसी के दौर में सर्वोच्च न्यायालय का केन्द्र व राज्य सरकार को दिये गये 11 सूत्री दिशा−निर्देश अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसे भी महज संयोग ही माना जा सकता है कि जहां 17 जुलाई को विश्व न्याय दिवस मनाया जा रहा था उसी दिन देश की न्याय की सर्वोच्च अदालत ने महत्वपूर्ण निर्देश देते हुए साफ संदेश दिया कि देश में गोरक्षा या भीड़ तंत्र के नाम पर खुले खूनी खेल की इजाजत नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने प्रत्येक जिले में एसपी स्तर के अधिकारी को नोडल अफसर बनाते हुए ऐसे इलाकों की पहचान के निर्देश दिए हैं वहीं हिंसा पीड़ितों को उचित मुआवजा भी मौत या चोट के अनुसार देने के निर्देश दिए हैं। अब तो पीड़ित के वकील का खर्चा भी सरकार को ही वहन करना होगा वहीं डीजीपी व होम सैकेट्री को मॉनिटरिंग के लिए कहा गया है। केन्द्र और राज्य को आपसी समन्वय के साथ ही हिंसा के खिलाफ प्रचार तंत्र को मजबूत करने को कहा गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अगली सुनवाई में कोर्ट के सामने आने के सरकार को निर्देश दिए हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की कानून व्यवस्था व न्यायिक प्रक्रिया पर आज भी किसी तरह का प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। यह तो कुछ अतिवादियों के चलते देश में हिंसक गतिविधियों में तेजी आई है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सरकार की राजनीतिक या अन्य किसी मजबूरी के चलते मॉब लिंचिंग की घटनाएं कम होने की जगह तेजी से बढ़ी हैं। केवल एक साल में ही इस तरह की 31 से अधिक घटनाओं का होना आंखें खोलने के लिए काफी है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का ताजा आदेश महत्वपूर्ण हो जाता है। वैसे भी देखा जाए तो आरोपी जितना दोषी है, कानून को हाथ में लेने वाले उससे कहीं अधिक दोषी हो जाते हैं। संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था ही नहीं किसी भी समाज में किसी को भी कानून हाथ में लेने का हक नहीं दिया जा सकता। आखिर आदिम समाज में भी कोई व्यवस्था तो रही है। भीड़ के खूनी खेल या यों कहें कि भीड़ तंत्र को खूली छूट कहीं भी नहीं दी जा सकती। आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र व राज्य सरकारों को सर्वोच्च न्यायालय के ताजा दिशा-निर्देशों से भीड़ तंत्र पर अंकुश लगाने में कारगर कदम उठाने को बाध्य करेगी। हालांकि यह बाध्यकारी है पर सरकारों को ऐसी स्थितियां आने ही नहीं देनी चाहिए थी। अराजकता को सभ्य समाज में किसी भी स्तर पर नहीं स्वीकारा जा सकता।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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