हिंदीभाषियों की पीड़ा यूएई ने तो समझ ली, भारतीय अदालतें कब समझेंगी ?

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ललित गर्ग । Feb 14 2019 2:07PM

ज्वलंत प्रश्न है कि विदेशों में बसे भारतीयों की इस तकलीफ का ध्यान रखने का निर्णय लिया गया है तो भारत में ऐसे निर्णय क्यों नहीं लिये जाते ? प्रश्न यह भी है कि विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत ?

संयुक्त अरब अमारात याने दुबई और अबूधाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। इसका मकसद हिंदी भाषी लोगों को मुकदमे की प्रक्रिया, उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सीखने में मदद करना है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के लिहाज से यह कदम उठाया गया है। अमारात की जनसंख्या 90 लाख है। उसमें 26 लाख भारतीय हैं, इन भारतीयों में कई पढ़े-लिखे और धनाढ्य लोग भी हैं लेकिन ज्यादातर मजदूर और कम पढ़े-लिखे लोग हैं। इन लोगों के लिए अरबी और अंग्रेजी के सहारे न्याय पाना बड़ा मुश्किल होता है। इन्हें पता ही नहीं चलता कि अदालत में वकील क्या बहस कर रहे हैं और जजों ने जो फैसला दिया है, उसके तथ्य और तर्क क्या हैं ? ज्वलंत प्रश्न है कि विदेशों में बसे भारतीयों की इस तकलीफ का ध्यान रखने का निर्णय लिया गया है तो भारत में ऐसे निर्णय क्यों नहीं लिये जाते ? प्रश्न यह भी है कि विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत ? झकझोरने वाला प्रश्न यह भी है कि राष्ट्र भाषा हिन्दी को आजादी के 72 वर्ष बीत जाने पर भी अपने ही देश में क्यों घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है? हिन्दी की उपेक्षा राष्ट्रीय शर्म का विषय है, जबकि विश्व में हिन्दी की ताकत बढ़ रही है। भारत सरकार के प्रयत्नों से हिन्दी को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है, यह सराहनीय बात है। लेकिन भारत में उसकी उपेक्षा कब तक होती रहेगी, यह प्रश्न भी सरकार के लिये सोचनीय होना चाहिए। 


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हिन्दी को कानून की भाषा बनाने का जो काम भारत में सबसे पहले होना चाहिए था, वह काम संयुक्त अरब अमारात कर रहा है, इसके लिये अबू धाबी के शेख मंसूर अल नाह्यान बधाई के पात्र हैं, उनके इस निर्णय का स्वागत ही नहीं करना चाहिए, उससे कुछ सीख भी लेनी चाहिए। भारत की अदालतों में आजादी के 70 साल बाद भी भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय तो अभी भी अंग्रेजी में ही सारे काम-काज के लिये अड़ा हुआ है। वहां मुकदमों की बहस अंग्रेजी में ही होती है। जहां बहस ‘अंग्रेजी’ में होती है, वहां फैसले भी अंग्रेजी में ही आते हैं। अभी सुना है कि उनके हिंदी अनुवाद की बात चल रही है। बात केवल कानून के सर्वोच्च संस्थान की ही नहीं है, बल्कि समस्त सरकारी कामकाज भी अंग्रेजी में ही होता है, उच्च शिक्षा भी अंग्रेजी में ही दी जा रही है, यहां तक प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा में भी अंग्रेजी का ही बोलबाला है, कैसे हम अपनी भाषा को प्राथमिकता देंगे ? कब भारत के भाग्य निर्माता हिन्दी को जनभाषा, राजकाज की भाषा एवं कानून की भाषा का दर्जा देकर बधाई के पात्र बनेंगे ? भारत एक है, संविधान एक है। लोकसभा एक है। सेना एक है। मुद्रा एक है। राष्ट्रीय ध्वज एक है। लेकिन इन सबके अतिरिक्त बहुत कुछ और है जो भी एक होना चाहिए। बात चाहे राष्ट्र भाषा की हो या राष्ट्र गान या राष्ट्र गीत- इन सबको भी समूचे राष्ट्र में सम्मान एवं स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को चाहिए कि वह ऐसे आदेश जारी करे जिससे सरकार के सारे अंदरुनी काम-काज भी हिन्दी में होने लगे और अंग्रेजी से मुक्ति की दिशा सुनिश्चित हो जाये। अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करने की दिशा में एक अनुकरणीय एवं सराहनीय पहल होगी। ऐसा होने से महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर और डॉ. राममनोहर लोहिया का सपना साकार हो सकेगा। देश की जनता भी हिन्दी को उचित सम्मान दें एवं उसे अपने जीवन में प्रतिष्ठापित करें। भारतीय जनता की दुर्बलता एवं सबसे बड़ी कमजोरी रही है कि हिन्दी को उसका उचित स्थान और सम्मान नहीं मिल पाया है। नेता हो या जनता- हिन्दी की यह दुर्दशा एवं उपेक्षा सोचनीय है। अत्यन्त सोचनीय है। खतरे की स्थिति तक सोचनीय है कि आज का तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला बना हुआ है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है, यह भयानक स्थिति है। इसी कारण हिन्दी को आज भी दोयम दर्जा हासिल है।

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विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज के प्रयासों से विदेशों में हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ रही है, एक नया विश्वास जगा है कि वैश्विक स्तर पर हिंदी को मान्यता दिलाने के सरकार के प्रयास सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं। विश्व हिन्दी सम्मेलन 1975 से लेकर भोपाल में आयोजित 2018 के सम्मेलन तक बार-बार यह प्रश्न खड़ा होता रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी कब अधिकारिक भाषा बनेगी ? हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राष्ट्र एवं राज भाषा हिन्दी का सम्मान बढ़ाने एवं उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊंचाई देने के लिये अनूठे उपक्रम किये हैं। हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिये नरेन्द्र मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी के प्रयत्नों को राष्ट्र सदा स्मरणीय रखेगा। क्योंकि मोदी ने सितंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर न केवल हिन्दी को गौरवान्वित किया बल्कि देश के हर नागरिक का सीना चौड़ा किया। सबसे पहले 1977 में हिंदी में भाषण दिया था अटल बिहारी बाजपेयी ने। उस वक्त वे जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री थे और यूएन में भारत की अगुवाई कर रहे थे। संयुक्त राष्ट्र में किसी भी भारतीय के पहले हिंदी भाषण का पूरे देश में जोरदार स्वागत हुआ था। उनके भाषण की जगह-जगह चर्चा होती थी। इसके बाद उन्होंने सन 2002 में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में दोबारा इस अंतरराष्ट्रीय मंच से हिंदी में अपनी बात रखी थी। लेकिन प्रश्न यह है कि दोनों ही सक्षम नेताओं ने हिन्दी को अपने ही देश में क्यों उपेक्षित रहने दिया। क्या कारण है कि आजादी के 70 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है।

सच्चाई तो यह है कि देश में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान अंग्रेजी को मिल रहा है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं की सहायता जरूर ली जाए लेकिन तकनीकी एवं कानून की पढ़ाई के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। क्योंकि इससे राष्ट्रीयता कमजोर होती है। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। राष्ट्र-भाषा को लेकर छाए धूंध को मिटाने के लिये कुछ ऐसे ही ठोस कदम उठाने ही होंगे। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान् नहीं। महान् उस दिन बनेंगे जिस दिन हिन्दी को उचित स्थान एवं सम्मान देंगे।

कितने दुख की बात है कि आजादी के 72 साल बाद भी हमारे दूर-दराज के जिलों में राज्य सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों के कामकाज में आपसी लोगों से सम्पर्क स्थापित करने का अभिनव कार्य किया है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए।

चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सुरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गये हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों ? शेक्सपीयर ने कहा था- ‘दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।’ पर आज शेक्सपीयर होता तो आम भारतीय एवं सरकारों के द्वारा हो रही हिन्दी की उपेक्षा के परिप्रेक्ष्य में कहता- ‘दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता एवं शासन व्यवस्था है।’ क्योंकि दुनिया में हिन्दी का वर्चस्व बढ़ रहा है, लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होना, इन्हीं विरोधाभासी एवं विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों को ही दर्शाता है।

-ललित गर्ग

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