प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का लोकतंत्र और मजबूत हुआ
मूल्यों की राजनीति करने वालों के सम्मुख बड़ा संकट है। जबकि राजनीति को सत्ता का हथियार मानने वाले समाधान के लिए कदम उठाने में भय महसूस कर रहे हैं। डर है सत्ता से विमुख हो जाने का। पर यदि दायित्व से विमुखता की स्थिति बनी तो यह लोकतंत्र के लिये ज्यादा बड़ा खतरा है।
लोकतंत्र के रूप में दुनिया में सबसे अधिक सशक्त माने जाने वाले एवं सराहे जाने वाले अमेरिका के ताजा घटनाक्रम के बाद भारत के लोकतंत्र को दुनिया अचंभे की तरह देख रही है। बिना किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत का लोकतंत्र सशक्त हो रहा है और तमाम बाधाओं के लोकतंत्र का अस्तित्व अक्षुण्ण दिखाई दे रहा है। देश की आम-जनता को प्रधानमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी पर भरोसा है और वह भारत के भाग्यविधाता के रूप में उभर कर ईमानदारी, सेवा, समर्पण भाव से राष्ट्र को सशक्त बनाने का कार्य कर रहे हैं। गत सात वर्षों में एक भी आरोप उन पर नहीं लग सका तो अब उनके देशहित के निर्णयों की छिछालेदार करने के प्रयास हो रहे हैं, फिर भी उनके नेतृत्व में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है।
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कोई किसी का भाग्य विधाता नहीं होता। कोई किसी का निर्माता नहीं होता। भारतीय संस्कृति के इस मूलमंत्र को समझने की शक्ति भले ही वर्तमान राजनीतिज्ञों में न हो, पर इस नासमझी से सत्य एवं लोकतंत्र की अस्मिता एवं अस्तित्व का अंत तो नहीं हो सकता। अंत तो उसका होता है जो सत्य का विरोधी है, अंत तो उसका होता है जो जनभावना के साथ विश्वासघात करता है, अंत तो उसका होता है जिसने राजनीतिक मर्यादाओं को लांघा है। जनमत एवं जन विश्वास तो दिव्य शक्ति है। उसका उपयोग आदर्शों, सिद्धांतों और मर्यादाओं की रक्षा के लिए हो। तभी अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति होगी। तभी होगा राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान। तभी होगी अपनत्व और विश्वास की पुनः प्रतिष्ठा। वरना राजनीतिक मूल्यों की लक्ष्मण रेखा जिसने भी लांघी, वक्त के रावण ने उसे उठा लिया। कांग्रेस सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा ही प्रतीत होता है।
भारत की राजनीति के उच्च शिखर पर नेतृत्व करने वाले अभी भी जीवनदानी, घर-द्वार छोड़ने वाले ऐसे राजनेता हैं, जिन पर भारत की जनता को भरोसा है। परन्तु एक कहावत है, ’अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’ अन्यथा ऐसा ही चलता रहा तो भारत की राजनीति में समर्पित व जीवनदानी राजनेताओं का अकाल हो जायेगा। वैसे भी लोकतंत्र में सबका साथ-सबका विकास का दर्शन निहित है। कहा जाता है कि 'अच्छे लोग’ राजनीति में आयें। प्रश्न यह है कि ’अच्छे लोग’ की परिभाषा क्या है? योग्य, कर्मठ, ईमानदार, ’न खायेंगे न खाने देंगे’ के सिद्धान्तों पर चलने वाले, क्या इन्हें अच्छे लोग कहा जायेगा? लेकिन इनके पास धन-बल और बाहुबल नहीं होगा, फलतः वे चुनाव नहीं जीत सकेंगे। इसलिये वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन्हें अयोग्य कहा जाने लगा है। तब फिर प्रश्न उठता है कि राजनीति की दशा व दिशा सुधरेगी कैसे ? लोकतंत्र में ईमानदारी का वर्चस्व कैसे स्थापित होगा ?
मूल्यों की राजनीति करने वालों के सम्मुख बड़ा संकट है। जबकि राजनीति को सत्ता का हथियार मानने वाले समाधान के लिए कदम उठाने में भय महसूस कर रहे हैं। डर है सत्ता से विमुख हो जाने का। पर यदि दायित्व से विमुखता की स्थिति बनी तो यह देश के लोकतंत्र के लिये ज्यादा बड़ा खतरा है। इसी तरह, हरेक सफल लोकतंत्र अपने नागरिकों से भी कुछ अपेक्षाएं रखता है। उसकी सबसे बड़ी अपेक्षा यही होती है कि संवाद के जरिए हरेक विवाद सुलझाएं जाएं, ताकि कानून-व्यवस्था के लिए कोई मसला न खड़ा हो और समाज के ताने-बाने को नुकसान न पहुंचे। भारत जैसे बहुलवादी देश में तो संवादों की अहमियत और अधिक है। फिर असहमति और मुखर विरोध किस कदर प्रभावी हो सकते हैं, किसान आन्दोलन इसका ताजा सुबूत है। मगर देश के रचनात्मक माहौल को ऐसे विवादों एवं आन्दोलनों से कोई नुकसान न पहुंचे, यह सुनिश्चित करना सरकार से अधिक विभिन्न राजनीतिक दलों, विचारधाराओं एवं नागरिक समाज की जिम्मेदारी है। एक खुले और विमर्शवादी देश-समाज में ही ऐसी संभावनाएं फल-फूल सकती हैं। उदारता किसी धर्म की कमजोरी नहीं, बल्कि उसका सबसे बड़ा संबल होती है, यह बात उससे बेजा लाभ उठाने की धृष्टता करने वालों और उसके रक्षकों, दोनों को समझने की जरूरत है।
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लोकतंत्र में अतिश्योक्तिपूर्ण विरोध और दमनचक्र जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज का राजनीतिक वर्ग अनभिज्ञ है। सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने शायद उनके विवेक का अपहरण कर लिया है। कहीं कोई स्वयं शेर पर सवार हो चुका है तो कहीं किसी नेवले ने सांप को पकड़ लिया है। न शेर पर से उतरते बनता है, न सांप को छोड़ते बनता है। धरती पुत्र, जन रक्षक, पिछड़ों के मसीहा और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर का मुखौटा लगाने वाले आज जन विश्वास का हनन करने लगे हैं। जनादेश की परिभाषा अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं। देश के राष्ट्रवादी, चिन्तनशील, ईमानदार आम जनमानस को एकजुट होना होगा। दूरदृष्टि के साथ भारत के भविष्य की चिन्ता करनी होगी। राजनीतिक क्षेत्र के नकारात्मक व सकारात्मक सोच का भेद समझना होगा। उन्माद, अविश्वास, राजनैतिक अनैतिकता, दमन एवं संदेह का वातावरण उत्पन्न हो गया है। उसे शीघ्र कोई दूर कर सकेगा, ऐसी सम्भावना दिखाई नहीं देती। ऐसी अनिश्चय और भय की स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए संकट की परिचायक है। जिनकी भरपाई मुश्किल है। भाईचारा, सद्भाव, निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य खो रहे हैं। मूल्य अक्षर नहीं होते, संस्कार होते हैं, आचरण होते हैं, इनसे ही लोकतंत्र सशक्त बनता है।
राजनीति गिरावट का ही परिणाम है कि भारत के साथ आजादी पाने वाले अनेक देश समृद्धि के उच्च शिखरों पर आरोहण कर रहे हैं जबकि भारत गरीबी उन्मूलन और आम आदमी को संपन्न बनाने की दिशा में अभी भी संघर्ष ही कर रहा है। राजनीतिक दलों, जनप्रतिनिधियों और सरकार में महत्वपूर्ण पद संभालने वालों की गुणवत्ता को देखकर इसका स्पष्ट आभास होता है कि भारतीय लोकतंत्र के संचालन में व्यापक गिरावट आयी है। बताया जाता है कि देश में फिलहाल 36 प्रतिशत सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। पारिवारिक मिल्कियत जैसे राजनीतिक दल, धार्मिक हितों से जुड़े समूह, धनबल-बाहुबल और उत्तराधिकार की महत्ता खासी बढ़ गई है। यहां तक कि अगर कुछ विषय विशेषज्ञ पेशेवरों को भी सरकार में महत्वपूर्ण पद मिलते हैं तो अधिकांश मामलों में वे भी पद प्रदान करने वाली पार्टी के अहसान तले ही दबे रहते हैं और किसी वाजिब मसले पर एक राजनेता के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने से हिचकते हैं। जबकि सरकार में होने का तकाजा ही यही होता है कि नेता एक राजनेता के रूप में उभरकर अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए कदम उठाएं, न कि अपने राजनीतिक दल के हितों को पोषित करें।
अफसोस की बात यही है कि परिपक्व लोकतंत्रों में भी ईमानदार, चरित्र सम्पन्न एवं नैतिक राजनेताओं की प्रजाति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। राजनीतिक दलों में संख्या-बल का बढ़ना एक सूत्री कार्यक्रम बन गया और गुणवत्ता-बल दोयम दर्जे पर हो गया है। राजनैतिक दल भी चुनाव जीतने का एक सूत्री कार्यक्रम बना चुके हैं जो उनकी मजबूरी भी है। चुनाव भी राजनीति का एक सक्रिय भाग है। विपक्ष में वे रहना ही नहीं चाहते और आदर्श विपक्ष की भूमिका का निर्वहन वे जानते ही नहीं हैं। सत्ता से पैसा तथा पैसे से सत्ता अर्जित करने का क्रम बन गया है और भ्रष्टाचार ने अपना विराट व विकृत स्वरूप बना लिया है। अहम बात तो यह है कि राजनीति में प्रवेश के पहले वे क्या थे और फिर क्या से क्या हो गये ? कितने ही राजनेता भ्रष्टाचार के कारण जेल जा चुके हैं, जो पकड़ा गया वो चोर है और जिसे नहीं पकड़ पा रहे हैं वे मौज कर रहे हैं, नीति-नियंता, भारत के भाग्य विधाता बने हैं।
-ललित गर्ग
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