मंत्री और मुख्यमंत्री के रूप में विफल रहीं हैं ममता, अब चल सकती हैं जल्द चुनाव का दाँव

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संभव है कि भाजपा को और मजबूत बनने का समय मिले, इससे पहले ही वह राज्य विधानसभा भंग कर जल्द चुनाव कराने का दांव खेल दें। ममता बनर्जी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना चाह रही थीं।

लोकसभा चुनाव परिणामों से सबसे बड़ा झटका लगा है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को। ममता बनर्जी को इस बात का पूरा विश्वास था कि राज्य में वह भाजपा के उभार को उसी तरह रोक लेंगी जैसा विधानसभा चुनावों के समय हुआ था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। लोकसभा चुनावों की घोषणा के समय से ही जिस तरह तृणमूल कांग्रेस के सांसदों, विधायकों और पार्टी नेताओं का भाजपा में शामिल होना शुरू हुआ था वह चुनाव परिणाम आ जाने के बाद तक अनवरत जारी है। तृणमूल कांग्रेस विधायक और भाजपा नेता मुकुल रॉय के बेटे सुभ्रांशु राय के साथ दो तृणमूल विधायक और बड़ी संख्या में पार्टी के पार्षद मंगलवार को भाजपा में शामिल हो गये। आपको याद होगा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी था कि 'दीदी आपके 40 विधायक मेरे संपर्क में हैं।' तृणमूल कांग्रेस में मची इसी उठापटक का ही परिणाम है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी संगठन के पुनर्गठन के मकसद से तृणमूल कांग्रेस अपने नाराज नेताओं से संपर्क साध रही है और गलतफहमियां भुला कर फिर से उन्हें पार्टी में सक्रिय होने का आग्रह कर रही है।

ममता का किला ढह गया

पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणामों पर सरसरी नजर डालें तो राज्य की कुल 42 लोकसभा सीटों में से तृणमूल कांग्रेस को इस बार 22 सीटों पर विजय मिली जबकि भाजपा 18 सीटों पर विजय हासिल करने में सफल रही। दो सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। जबकि 2014 में तृणमूल कांग्रेस 34 सीटों पर विजयी रही थी और भाजपा के हिस्से में मात्र दो सीटें ही आ पाई थीं।

इस बार के चुनाव परिणामों को यदि विधानसभा-वार देखें तो कुल 294 सीटों में से भाजपा 128 विधानसभा सीटों पर आगे रही है जबकि 60 विधानसभा सीटें ऐसी रहीं जहाँ भाजपा की हार का अंतर 4 हजार या उससे कम मतों का है। साफ-साफ कहा जा सकता है कि यदि भाजपा के आगे बढ़ने का यही क्रम आगे बना रहा तो निश्चित ही पार्टी राज्य की सत्ता हासिल कर सकती है। चुनावों से पहले ममता बनर्जी 22 विपक्षी दलों को एक साथ लाकर भाजपा को घेरना चाह रही थीं लेकिन चुनाव परिणाम ने इस सारी कवायद की हवा ही निकाल दी।

जल्द चुनाव करा सकती हैं ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चिंता इसीलिए बढ़ गयी है कि यदि एक बार भाजपा राज्य की सत्ता में आ गयी तो तृणमूल कांग्रेस का पश्चिम बंगाल की राजनीति में वामपंथी दलों जैसा हाल हो जायेगा। ऐसे में संभव है कि भाजपा को और मजबूत बनने का समय मिले, इससे पहले ही वह राज्य विधानसभा भंग कर जल्द चुनाव कराने का दांव खेल दें।

ममता बनर्जी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना चाह रही थीं लेकिन खबर है कि उनकी पार्टी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। तृणमूल कांग्रेस की रणनीति अब यह है कि आक्रामक तरीके से भाजपा का मुकाबला करना जारी रखा जाये और राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच रहा है या नहीं, इसकी निगरानी बढ़ायी जाये।

अपने भी खड़ी कर रहे हैं मुश्किलें

तृणमूल कांग्रेस पार्टी संगठन की मजबूती पर अब विशेष ध्यान देने जा रही है और नाराज नेताओं को मनाने तथा नये या नामचीन लोगों को पार्टी से जोड़ने का काम अब और तेजी के साथ किया जायेगा। लेकिन भाजपा भी तृणमूल कांग्रेस का मनोबल तोड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है। वह लगातार तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर रही है। तृणमूल कांग्रेस के लिए जितनी बड़ी मुश्किल भाजपा बनती जा रही है लगभग उतनी ही मुश्किलें उसके अपने लोग भी पार्टी के लिए खड़ी कर रहे हैं। राजनीतिक भविष्य खतरे में देख तृणमूल नेता और कार्यकर्ता भाजपा में स्वतः जा रहे हैं और बगावती बयान भी दे रहे हैं। अब तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पत्रकार चंदन मित्रा को ही लीजिये, उन्होंने लोकसभा चुनावों में भाजपा को जोरदार प्रदर्शन के बाद उसे ‘government-in-waiting' करार दे दिया है।

भाजपा ने कैसे किया किला फतह

भाजपा की बात करें तो निश्चित रूप से लोकसभा चुनाव परिणाम उसके लिए बेहद उत्साहवर्धक रहे हैं और पार्टी ने साफ कर दिया है कि उसकी नजर अब पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों पर है। भाजपा ने ममता बनर्जी के अभेद्य समझे जाने वाले किले पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर जीत और 40.5 प्रतिशत मत हासिल कर अपने आगामी इरादे साफ कर दिये हैं। देखा जाये तो भाजपा के इस बेहतरीन प्रदर्शन में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, एनआरसी, तृणमूल कांग्रेस के अंदर जबरदस्त खींचतान और वाम मतों का उससे खिसकना जैसे कारक अहम रहे।

भाजपा को 2014 में दो सीटें मिली थीं और उसे कुल 17 प्रतिशत मत मिले थे। लेकिन इस बार भाजपा ने न केवल पश्चिम बंगाल में अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की बल्कि लगभग 130 विधानसभा क्षेत्रों में मतों के लिहाज से बढ़त बनाई। राज्य में दो साल बाद 2021 में विधानसभा चुनाव होने हैं। लोकसभा चुनावों में पूरे चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा की राजनीतिक बहस ज्यादातर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के आसपास रही, साथ ही ममता बनर्जी सरकार की तुष्टिकरण की नीति की भी लगातार आलोचना हुई, जिससे राज्य में बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ। गौरतलब है कि राज्य में मुसलमानों की आबादी करीब 27 प्रतिशत है।

इसके अलावा घुसपैठियों को बाहर करने के लिए एनआरसी का वादा, धार्मिक रैलियों पर ममता सरकार की ओर से लगायी जाने वाली रोक और विगत कुछ समय में राज्य में कई सांप्रदायिक दंगे रोक पाने में ममता बनर्जी सरकार की विफलता से सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा मिला। इसके अलावा केंद्रीय बलों की सख्त निगरानी में जो इस बार का चुनाव हुआ उससे मतदाता बिना किसी भय के घर से बाहर निकले और तृणमूल कांग्रेस से अपनी नाराजगी उसके खिलाफ वोट देकर जताई। स्वाभाविक है कि सिर्फ बातें बनाकर लोगों को ज्यादा समय तक गुमराह नहीं किया जा सकता।

भाजपा बहुत पहले से कर रही थी तैयारी

जो लोग सोच रहे हैं कि सिर्फ तगड़ा चुनाव प्रचार करके भाजपा ने यह सफलता हासिल की है वह गलत हैं। भाजपा ने राज्य में अपनी जड़ें जमाने का काम 2014 में अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनते ही तेजी से शुरू कर दिया था। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं की संख्या में हुई जबरदस्त वृद्धि ने भाजपा के लिए संजीवनी का काम किया। संघ से जुड़े संगठनों ने खासतौर पर जिस तरह आदिवासी क्षेत्रों में काम किये हैं उसका लाभ भाजपा को साफ-साफ मिला है।

इसके अलावा जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में लगभग हर चरण के मतदान से पहले जमकर प्रचार किया उससे भाजपा के पक्ष में माहौल तेजी से बनता चला जा रहा था। भाजपा को राज्य के पश्चिमी क्षेत्र जंगल महल इलाके और उत्तरी बंगाल में जबरदस्त सफलता मिली है। राजधानी कोलकाता जहाँ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने हिंसा की थी वहां से भाजपा उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई। भाजपा के कार्यकर्ताओं की जिस तरह चुनावों से पहले, चुनावों के दौरान और अब चुनाव परिणामों के बाद भी हत्याओं का दौर जारी है उससे प्रदेश की जनता में एक साफ संदेश जा रहा है कि वाम हिंसा खत्म करने का वादा कर सत्ता में आई तृणमूल कांग्रेस शासन के दौरान राजनीतिक हिंसा की घटनाएं बढ़ गयी हैं। लोकतंत्र में विचारधारा का विरोध चुनाव प्रक्रिया में भाग लेकर होता है ना कि गोली मारकर।

सफल प्रशासक सिद्ध नहीं हो सकीं ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीति में जो सबसे बड़ी खामी देखने को मिल रही है वह यह है कि भाजपा के तेजी से बढ़ते ग्राफ की वजह से उनकी एक ही चिंता रह गयी है 'भाजपा रोको'। ऐसे में राज्य प्रशासन निष्क्रिय-सा नजर आने लगा है। ना बंगाल में नये निवेश आ रहे हैं, ना ही वहां की सामाजिक स्थितियों में कोई सुधार नजर आ रहा है। राज्य के अधिकांश इलाकों में आपको आज भी पिछड़ापन और गरीबी के हालात ही नजर आयेंगे। लोगों को बड़ा लाभ देने वाली कई केंद्रीय योजनाओं को बंगाल में लागू नहीं किया गया है। ऊपर से चिटफंड घोटाले में राज्य की सत्ताधारी पार्टी के लोगों का नाम आने से पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी छवि एकदम खत्म हो गयी है। ममता बनर्जी केंद्रीय मंत्री के रूप में भी ज्यादा सफल नहीं रही थीं। मुख्यमंत्री के रूप में भी वह अपने राज्य को विकास के पथ पर ज्यादा आगे नहीं ले जा सकी हैं।

बहरहाल, चुनावों के दौरान एक पत्रकार के तौर पर मेरा तृणमूल कांग्रेस कार्यालय जाना हुआ तो वहां देखने को मिला कि आगंतुकों को शक की नजर से देखा जाता है कि कहीं आने वाला व्यक्ति भाजपा का कोई एजेंट तो नहीं। जाहिर है शक की बीमारी का कोई इलाज है ही नहीं। 

-नीरज कुमार दुबे

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