पहले से तैयार पटकथा के मुताबिक हुआ मायावती का इस्तीफा

Mayawati resigns as per pre-scripted script

सब कुछ पहले से तैयार पटकथा जैसा था। उपसभापति का पद किसके पास है। यह भी देखना चाहिए। गुलाम नबी आजाद कह रहे थे कि भाजपा के सदस्य बोलने नहीं दे रहे थे। जबकि बात समाप्त करने का निर्देश उपसभापति ने दिया था। इसमें भाजपा कहीं नहीं थी।

राष्ट्रपति चुनाव के कुछ घंटों बाद बसपा प्रमुख मायावती ने राज्यसभा से त्यागपत्र दे दिया। सतही तौर पर यह मात्र संयोग लगेगा। लेकिन बात इतनी सामान्य नहीं है। राष्ट्रपति के चुनाव और मायावती के त्यागपत्र ने कई प्रश्नों को जन्म दिया है। क्या यह कयास लगाना गलत होगा कि राज्यसभा प्रकरण की पटकथा पहले लिखी जा चुकी थी। उसी के अनुरूप विवाद को बढ़ाया गया। यह पहला अवसर नहीं था जब मायावती ने राज्यसभा में दलितों का मुद्दा उठाया हो, यह पहला अवसर नही था जब सभापति या उपसभापति ने उन्हें बात जल्द समाप्त करने को कहा हो क्योंकि वह निर्धारित समय से ज्यादा बोल चुकी थीं। केंद्र में भाजपा सरकार तो तीन वर्ष से है। इसके पहले उत्तर प्रदेश में जब सपा सरकार थी, तब मायावती लगातर दलितों के उत्पीड़न का आरोप लगती थीं। तब सपा के सदस्यों का हंगामा उन्हें आज तक याद होगा। लेकिन उस स्थिति में भी मायावती ने कभी इस्तीफे की बात नहीं की। राज्यसभा के वर्तमान स्वरूप में तो विपक्ष का ही दबदबा है। यहां तो सत्ता पक्ष की ही आवाज दब जाती है। ऐसे में मायावती के इस्तीफे का कोई आधार नहीं था। तब क्या यह माना जाये कि इस्तीफे के तार बसपा के भविष्य और वोटबैंक से जुड़े थे।

लगातार मिल रही चुनावी विफलता ने बसपा के भविष्य को धुंधला बनाया है। मायावती की परेशानी साफ झलकती है। ईवीएम पर दोष मढ़ना इस परेशानी की अभिव्यक्ति थी। बसपा का अस्तित्व उत्तर प्रदेश तक सीमित है। यहां बसपा, सपा बारी बारी का दौर समाप्त हुआ है। बसपा मुकाबले से बहुत पीछे हो गई है। उसके सभी प्रयोग विफल हुए। सर्वजन, दलित मुस्लिम गठजोड़ आदि नाकाम रहे। अनेक करीबी उनका साथ छोड़ चुके हैं। दलित वोटबैंक में भाजपा सेंधमारी कर चुकी है।

मायावती जानती हैं कि अतिदलित समाज के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने का श्रेय भाजपा को मिलेगा। मायावती को लग रहा था कि मीरा कुमार मजबूती से लड़ेंगी। लेकिन वह मुकाबले में ही नहीं थीं।

मीरा कुमार को समर्थन देने की चाल उलटी पड़ी। सन्देश यह गया कि मायावती अतिदलित समाज के व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर देखना नहीं चाहतीं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के अतिदलित समाज के राष्ट्रपति उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया।

मायावती के इस्तीफे को इस पृष्ठभूमि में देखना होगा। अब वह बताना चाहती हैं कि वह पूरे दलित समाज की नेता हैं। उसके लिए अगले वर्ष समाप्त हो रही राज्यसभा सदस्यता का महान त्याग कर सकती हैं। यह त्यागपत्र तात्कालिक बहस का परिणाम नहीं था। मायावती बहस को उस अंजाम तक ले जाती दिखाई दीं। इसके कई लक्ष्य थे। एक तो वह अति दलित समाज की नाराजगी दूर करना चाहती थीं। दूसरा यह की वह भाजपा पर हमला बोलकर उत्तर प्रदेश में उससे अपनी लड़ाई दिखाना चाहती हैं। तीसरा यह की वह किसी गठबन्धन के पहले अपनी सक्रियता दिखाना चाहती हैं क्योंकि लोकसभा में शून्यता व विधान सभा में मात्र उन्नीस सीट ने उनकी स्थिति को कमजोर कर दिया है। मायावती इन सब चुनौतियों से निपटना चाहती हैं। इस्तीफे का यह दांव कितना सफल होगा, यह देखना होगा।

बसपा प्रमुख मायावती पिछले कई चुनावों में मिल रही पराजय से निराश थीं। पहले उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता से वंचित होना पड़ा। इसके बाद लोकसभा चुनावों में बसपा का सफाया हुआ। फिर विधान सभा चुनाव में मायूसी मिली। सहारनपुर में दलितों के खिलाफ अत्याचार का मुद्दा उठाते हुए मायावती ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह अपने कोर वोट बैंक दलितों के बीच मायावती फिर से चर्चा में तो आ गर्इं। पिछले दो चुनाव मायावती के लिए काफी बुरे परिणाम थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी का खाता भी नहीं खुल सका था। जबकि विधानसभा चुनाव में बसपा 80 से घटकर सिर्फ 19 सीटों पर आ गई। चुनाव के बाद मायावती और अखिलेश साथ आने का ऐलान कर चुके हैं। अब मायावती फिर से यूपी में अपनी खोई हुई सियासी जमीन तैयार करने की तैयारी में हैं। पर उन्हें कितनी सफलता मिलेगी यह भविष्य के गर्त में है।

इस दौरान मायावती ने कई प्रयोग किये। सर्वजन से लेकर दलित मुस्लिम गठजोड़ तक के दांव आजमाए। लेकिन सभी नाकाम हुए। बसपा मुख्य मुकाबले से बाहर हो चुकी थी। उसके दलित वोटबैंक में सेंध लग चुकी थी। वह किसी नए कदम की तलाश में थी। राज्यसभा से इस्तीफा ऐसा ही पैंतरा था। मायावती दलित उत्पीड़न की बात राज्य सभा में रख चुकी थीं। पूरा विषय आ चुका चुका था। इसी लिए उपसभापति ने कहा कि उनकी बात आ चुकी है। मायावती नाराज हुईं। इस्तीफे का ऐलान किया। कुछ देर बाद इस्तीफा दे भी दिया। गौरतलब है कि कांग्रेस नेताओं ने उन्हें मनाने की कोशिश की। लेकिन सपा के सदस्य खामोश रहे। इससे भी नए समीकरण की चर्चा शुरू हुई। मतलब साफ है। सब कुछ पहले से तय पटकथा जैसा था। उपसभापति का पद किसके पास है। यह भी देखना चाहिए। गुलाम नबी आजाद कह रहे थे कि भाजपा के सदस्य बोलने नहीं दे रहे थे। जबकि बात समाप्त करने का निर्देश उपसभापति ने दिया था। इसमें भाजपा कहीं नहीं थी। लेकिन मायावती और गुलाम नबी आजाद के स्वर एक जैसे थे। ये भाजपा पर हमलावर थे।

असली कहानी कुछ और है। मायावती यह संदेश देना चाहती थीं कि वह दलितों के लिए त्याग कर सकती हैं। इसे वह मुद्दा बनाने का प्रयास करेंगी। जबकि उनके आरोपों में खास दम नही था। पिछले दिनों घटी कतिपय घटनाएं निंदनीय थीं। सहारनपुर में स्थिति सामान्य ही चुकी है। हिंसक संघर्ष की साजिश चर्चा में थी। अब दलित व क्षत्रिय सामान्य रूप में जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे में इस मुद्दे को राज्य सभा में उठाना ही गलत था। पिछले दिनों मायावती की सहारनपुर यात्रा के बाद शांत हो रहा सहारनपुर पुनः अशांत हो गया था। एक बार फिर मायावती ने न केवल इसे उठाया बल्कि इस्तीफे तक ले गईं। बसपा उन्हें पुनः राज्यसभा भेजने की स्थिति में नहीं है। मायावती समय पर अवकाश लेतीं तो उसका कोई राजनितिक लाभ नहीं होता। अब मुद्दा मिल गया। पिछले तीन वर्षों से कानून व्यवस्था के कुछ मामले उठा कर भाजपा पर हमले होते रहे हैं। सभी घटनाएं निंदनीय थीं। दोषियों के खिलाफ कार्रवाई भी की गई। लेकिन इसे वर्षों तक ऐसे प्रचारित किया गया जैसे देश में अराजकता व्याप्त है। ऐसे लोग पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि का नाम नहीं लेते। यहां कानून व्यवस्था के मुद्दे इन्हें परेशान नहीं करते। पुरस्कार वापसी से लेकर मायावती का इस्तीफा यही कवायद नए−नए रूप में दिखाई दे रही है। लेकिन आमजन इसे समझ चुके हैं पर विरोधी नेता इसे समझने को तैयार नहीं हैं।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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