कट्टरवाद से ऊपर उठ कर इतिहास जानने को लालायित दिख रही है पाक की युवा पीढ़ी

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राकेश सैन । Jul 17 2019 11:29AM

अभी-अभी लाहौर में महान शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा लगाने और उन्हें ''शेर-ए-पंजाब'' की उपाधि देने के बाद सिंध प्रांत में राजा दाहिर को भी सरकारी तौर पर नायक घोषित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है।

लहू को लहू पुकार रहा है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने गौरी, गजनी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब जैसे बर्बर नायक अपनी नस्लों को खूब घोंट-घोंट कर पिलाए परंतु वहां की युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़ने को बेताब दिख रही है। अभी-अभी लाहौर में महान शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा लगाने और उन्हें 'शेर-ए-पंजाब' की उपाधि देने के बाद सिंध प्रांत में राजा दाहिर को भी सरकारी तौर पर नायक घोषित करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है। आधुनिक शिक्षा और सूचना तकनोलोजी से लैस युवा पाकिस्तान पूछ रहा है हमारे नायक कौन हैं? उक्त बर्बर आक्रांताओं से पहले हमारे इस इलाके का क्या इतिहास था? अपनी जड़ों को तलाशती युवा पीढ़ी कट्टरवाद से ऊपर उठ अपना इतिहास जानने को न केवल लालायित बल्कि उससे जुड़ने को भी बेताब दिखाई दे रही है। तभी तो लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा की स्थापना के बाद सोशल मीडिया पर परस्पर बधाई दी जा रही है।

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बीबीसी लंदन की एक रिपोर्ट के अनुसार, क्वेटा शहर के पत्रकार जावेद लंगाह ने फेसबुक पर लिखा है कि आखिरकार राजा रणजीत सिंह बादशाही मस्जिद के दक्षिण पूर्व स्थित अपनी समाधि से निकल कर शाही किले के सामने घोड़े पर सवार होकर अपनी पिछली सल्तनत और राजधानी में फिर से हाजिर हो गए हैं। उन्होंने आगे लिखा है कि पंजाब दशकों तक अपने असल इतिहास को झुठलाता रहा है और एक ऐसा काल्पनिक इतिहास गढ़ने की कोशिश में जुटा रहा जिसमें वो राजा पोरस और रणजीत सिंह समेत असली राष्ट्रीय नायकों और सैंकड़ों किरदारों की जगह गौरी, गजनवी, सूरी और अब्दाली जैसे नए नायक बनाकर पेश करता रहा जो पंजाब समेत पूरे उपमहाद्वीप का सीना चाक करके यहां के संसाधन लूटते रहे।

दरम खान नाम के एक युवा ने फेसबुक पर लिखा कि अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान में बसने वाली तमाम कौमों के बच्चों को स्कूलों में सच बताया जाए और उन्हें अरब और मुगल इतिहास की बजाय अपना खुद का इतिहास पढ़ाया जाए। केवल यही दो युवा नहीं बल्कि इस तरह की प्रतिक्रिया देने वालों का तांता-सा लगा हुआ है। एक पाकिस्तानी पत्रकार निसार खोखर पंजाब की जनता को संबोधित करते हुए लिखते हैं कि अगर सिंध सरकार एक ऐसी ही प्रतिमा सिंधी शासक राजा दाहिर की लगा दे तो आपको ग़ुस्सा तो नहीं आएगा, कुफ्र और गद्दारी के फतवे तो जारी नहीं होंगे? उक्त रिपोर्ट के अनुसार, सिंध की कला और संस्कृति को सुरक्षित रखने वाले संस्थान सिंध्यालॉजी के निदेशक डॉक्टर इसहाक समीजू भी राजा दाहिर को सिंध का राष्ट्रीय नायक करार दिए जाने की हिमायत करते हैं। उनका कहना है कि हर कौम को ये हक हासिल है कि जिन भी किरदारों ने अपने देश की रक्षा के लिए जान की बाजी लगाई, उनको श्रद्धांजलि दी जाए। सोशल मीडिया पर राजा दाहिर के पक्ष में अनेक पाकिस्तानी बुद्धिजीवी, पत्रकार व युवा उठ खड़े हुए हैं।

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वैसे सिंधियों का कश्मीरी पंडित राजा दाहिर के प्यार कोई नया नहीं है। आम सिंधी दाहिर को अपना नायक मानता है न कि सिंध पर हमला करने वाले मोहम्मद बिन कासिम को। हालांकि पाकिस्तान के इतिहास व पाठ्यपुस्तकों में कासिम को नायक बनाने के प्रयास हुए परंतु सिंधियों के राष्ट्रप्रेम के चलते यह अभी तक असफल ही रहे हैं। कराची सहित सिंध के अनेक शहरों में राजा दाहिर को लेकर अनेक सांस्कृतिक संगठन सक्रिय हैं और इस्लामिक कट्टरवाद की आंधी में भी सच्चाई की शमां रोशन किए हुए हैं। वरुण देवता के अवतार झूलेलाल आज भी सिंधी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं और सूफी परंपरा में उन्हें विशेष सम्मान हासिल है। राजा दाहिर आठवीं सदी ईस्वी में सिंध के शासक थे। वो राजा चच के सबसे छोटे बेटे और कश्मीरी ब्राह्मण वंश के आखिरी शासक थे।

सिंधियाना इंसाइक्लोपीडिया के मुताबिक हजारों वर्ष पहले कई कश्मीरी ब्राह्मण वंश सिंध आकर बस गए। चच सिंध के पहले ब्राह्मण सम्राट बने। उनके बेटे राजा दाहिर का शासन पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में अरब सागर और गुजरात तक, पूर्व में मौजूदा मालवा के केंद्र और राजपूताने तक और उत्तर में मुल्तान से गुजर कर दक्षिणी पंजाब तक फैला था। पाकिस्तानी इतिहासकार मुमताज पठान अपनी पुस्तक तारीख़-ए-सिंध में लिखते हैं कि राजा दाहिर इंसाफ-पसंद थे। तीन तरह की अदालतें थीं, जिन्हें कोलास, सरपनास और गनास कहा जाता था, बड़े मु़कदमे राजा के पास जाते थे जो सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी का दर्जा रखते थे। आठवीं सदी में बगदाद के गवर्नर हुज्जाज बिन यूसुफ के आदेश पर उनके भतीजे मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके राजा दाहिर को शिकस्त दी और यहां अपनी रियासत कायम की। राजा दाहिर की हार के बाद उनकी दो बेटियों सूरज और परमाल को खलीफा के पास भेज दिया गया। एक रात दोनों को खलीफा के हरम में बुलाया गया। खलीफा उनकी ख़ूबसूरती देखकर दंग रह गया परंतु लड़कियों ने कहा, बादशाह सलामत रहें, मैं बादशाह की काबिल नहीं क्योंकि आदिल इमादुद्दीन मोहम्मद बिन कासिम उनकी पवित्रता भंग कर चुका है। इस पर खलीफा वलीद बिन अब्दुल मालिक, कासिम से बहुत नाराज हुआ और कासिम को बैल की खाल में बंद करवा कर दरबार में पेश किया गया। दम घुटने से कासिम की रास्ते में ही मौत हो गई। इस तरह सूरज-परमाल ने अपने देश के लुटेरे को सबक सिखा दिया और खुद आत्महत्या कर अपनी इज्जत बचा ली। एक पाकिस्तानी नागरिक जीएम सैय्यद ने लिखा है कि हर एक सच्चे सिंधी को राजा दाहिर पर फख्र होना चाहिए क्योंकि वो सिंध के लिए सिर का नजराना पेश करने वालों में से सबसे पहले हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक इस विचार को सही करार देते हैं जबकि कुछ मोहम्मद बिन कासिम को अपना हीरो और उद्धारक समझते हैं। इस वैचारिक बहस ने सिंध में दिन मनाने की भी बुनियाद डाली जब धार्मिक रुझान रखने वालों ने मोहम्मद बिन कासिम दिवस मनाया और राष्ट्रवादियों ने राजा दाहिर दिवस मनाने का आगाज किया।

केवल महाराजा रणजीत सिंह व राजा दाहिर ही नहीं बल्कि भगवान श्रीराम के पुत्र लव-कुश द्वारा बसाए गए लाहौर, भरत के पुत्र तक्ष द्वारा बसाई तक्षिला, स्वयंभू विश्वविजेता सिकंदर की सेना के दांत खट्टे करने वाले पोरस को लेकर भी पाकिस्तान की नई पीढ़ी में आकर्षण है। युवा जानना चाहते हैं कि 14 अगस्त, 1947 से पहले वे कौन थे, उनका देश कौन-सा था ? कासिम, बाबर, गजनी-गौरी बाहर से आए थे तो उनके अपने कौन थे? उनकी रगों में किसका खून बह रहा है। लगता है कि मुस्लिम लीग की दो राष्ट्रों पर आधारित कृत्रिम इस्लामिक राष्ट्रीयता दम तोड़ने लगी है और लहू को लहू पुकार रहा है। कहा भी गया है- 'इक सूरत के कैसे हो सकते हैं दो बेगाने, आंखें पहचान रही थीं अब तो दिल भी पहचाने।' पाकिस्तान की नई पीढ़ी की सोच में आ रहे बदलाव का स्वागत होना चाहिए। जिस दिन पाकिस्तान की जनता अपनी जड़ों से जुड़ेगी उस दिन भारत-पाक की दूरियों व कटुताओं का स्वत: अंत हो जाएगा।

-राकेश सैन

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