सत्ता के ठेकेदारों ने सत्ता की लालसा में देश को आपातकाल में ढकेल दिया

politicians pushing the country into Emergency
अजेंद्र अजय । Jun 26 2018 2:52PM

वर्ष 1975 में आज के ही दिन सत्ता के कुत्सित कदमों ने देश में लोकतंत्र को कुचल दिया था और लोकतंत्र के इतिहास में यह एक काले दिन के रूप में दर्ज हो गया।

वर्ष 1975 में आज के ही दिन सत्ता के कुत्सित कदमों ने देश में लोकतंत्र को कुचल दिया था और लोकतंत्र के इतिहास में यह एक काले दिन के रूप में दर्ज हो गया। लोकतंत्र के चारों स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व प्रेस पर घोषित व अघोषित पहरा बैठा दिया गया। लोकतंत्र को ठेगें पर रख कर देश को आपातकाल की गहरी खाई में धकेलने के पीछे महज किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने की घृणित लालसा व तानाशाही मनोवृति थी।

आपातकाल के घटनाक्रम की नींव पड़ी 12 जून 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय के एक निर्णय से। वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मुख्य प्रतिद्वंदी राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर श्रीमती गांधी पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए धनबल का प्रयोग आदि कई आरोप लगाए थे। हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राजनारायण मामले में ऐतिहासिक फैसला देते हुए इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली का दोषी करार दिया और 6 वर्ष तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया। 

श्रीमती गांधी ने हाईकोर्ट के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। 24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा। मगर श्रीमती गांधी को पद पर बने रहने का फैसला दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के बाद से श्रीमती गांधी से प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की मांग उठने लगी थी। लेकिन श्रीमती गांधी किसी भी कीमत पर त्यागपत्र देने को राजी नहीं हुईं। परिणामस्वरुप, 25 जून, 1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के त्यागपत्र न देने तक देशभर में धरना-प्रदर्शन करने की घोषणा कर दी।

अपने विरुद्ध आक्रोश को देखते हुए कुर्सी के मोह में अंधी हो चुकी गांधी ने ऐसा कदम उठाया, जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो। 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात को इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के मुंह में धकेल दिया। प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के इशारों पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली ने संविधान की धारा-352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।

देश में आपातकाल लागू होते ही सरकार विरोधी भाषण और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। समाचार पत्रों को एक विशेष आचार संहिता का पालन करने के निर्देश जारी किए गए। इसके तहत समाचार, आलेख आदि प्रकाशन से पहले सरकारी सेंसर से गुजरते थे। राजनीतिक विरोधियों से निबटने के लिए सरकार ने मेंटिनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) के तहत कार्रवाई की। यह ऐसा कानून था जिसके तहत गिरफ्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने और जमानत मांगने का अधिकार नहीं था। 

देशभर में लाखों लोगों को बिना वजह जेल में डाल दिया गया। क्रूर यातनाएं दी गईं। नाखून, दाढ़ी के बाल उखाड़ने जैसे अमानवीय कृत्य किए गए।

एक तरफ सरकार का दमनचक्र लगातार बढ़ता जा रहा था, तो दूसरी तरफ आम जनमानस मजबूती से सरकार के प्रतिकार के लिए उठ खड़ा हुआ। क्रूरता की सीमाओं को लांघने के बावजूद विरोध की लहर तेज होते देख करीब 2 वर्ष बाद इंदिरा गांधी ने नया पैंतरा चला. उन्होंने लोकसभा भंग करा दी और वर्ष 1977 में लोकसभा चुनाव कराए। इन चुनावों में श्रीमती गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। लोकसभा में कांग्रेस 350 से 153 सीटें तक सिमट कर रह गई। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई।  मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार गठित हुई। हालांकि, अंदरूनी अंतर्विरोधों के चलते जनता पार्टी सरकार ज्यादा समय तक नहीं चल सकी।

बहरहाल, देश में आपातकाल थोपना स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे विवादास्पद व अलोकतांत्रिक निर्णय था। जिस कांग्रेस पार्टी ने आपातकाल लगा कर देश के संविधान, न्यायपालिका, मीडिया की धज्जियां उड़ा दी थीं, जिसने नागरिक अधिकार छीन लिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया था, आज उसके नेताओं द्वारा संविधान, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर लंबी बहस करते हुए देखना हास्यास्पद ही नहीं, अपितु शर्मनाक भी है।

अजेंद्र अजय 

(लेखक उत्तराखंड भाजपा के मीडिया संपर्क विभाग के प्रमुख हैं)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़