कठिन दौर से गुजर रहे हैं अखिलेश, चाचा और सीबीआई ने भी परेशानी बढ़ाई

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आशीष वशिष्ठ । Jan 30 2019 1:17PM

अखिलेश को एक साथ कई मोर्चों और मंचों पर खुद को साबित करना है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन का कड़वा अनुभव उनके पास है। बसपा से गठबंधन करके भले ही अखिलेश खुद का चतुर राजनीतिज्ञ मान रहे हों, लेकिन इस दोस्ती के नतीजे आने में अभी देर है।

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को फिलवक्त दो दर्द हैं। और दोनों दर्दों का फिलहाल अखिलेश के पास कोई इलाज नहीं है। देखा जाए तो दोनों दर्दों को पैदा भी खुद अखिलेश ने ही किया है। समाजवादी पार्टी पर कब्जा जमाने के लिये अखिलेश ने ऐसा माहौल बनाया कि चाचा शिवपाल पार्टी से बाहर अपना राजनीतिक भविष्य तलाशने को मजबूर हो गये। दूसरा दर्द सीबीआई का है। केंद्रीय जांच एजेंसी यूपी में अवैध रेत खनन मामले की पड़ताल में जुटी है। मुख्यमंत्री रहते हुए कुछ समय तक खनन विभाग उन्हीं के पास था। ऐसे में खनन मामले की जांच के लपेट में अखिलेश भी आ सकते हैं। खनन मामले में सीबीआई की आईएएस अफसर समेत कई लोगों के यहां छापेमारी के बाद अखिलेश ने सोशल मीडिया पर एक पारिवारिक फोटो शेयर करते हुये एक शेर लिखा था, ‘दुनिया जानती है इस खबर में हुआ है मेरा जिक्र क्यों, बदनीयत है जिसकी बुनियाद उस खबर से फिक्र क्यों।’ ऊपरी तौर पर अखिलेश सहज और बेफिक्र दिखने और दिखाने की लाख कोशिशें कर रहे हों, लेकिन उनका चेहरा अंदर की कशमकश और परेशानियों को छुपा और ढक नहीं पाता है।


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राजधानी लखनऊ में बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ साझा प्रेसवार्ता के रोज अखिलेश तो मायावती की तारीफों के पुल बांधते ही दिखे। लेकिन सोची समझी रणनीति के तहत अखिलेश के मन की बात को मायावती ने बयां किया। मायावती ने शिवपाल पर जोरदार हमला बोला। मायावती ने शिवपाल की नयी पार्टी को बीजेपी की बी टीम बताने में गुरेज नहीं किया। मायावती ने यह भी कहा कि सपा-बसपा गठबंधन के बाद बीजेपी ने शिवपाल पर जो इन्वेस्टमेंट किया है वो बेकार जाएगा। प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने चाचा शिवपाल पर हमले के साथ-साथ सीबीआई पर अपनी भड़ास निकाली। गठबंधन की घोषणा के वक्त चाचा और सीबीआई का जिक्र यह साफ कर देता है कि अखिलेश की दुखती रग क्या है ? अखिलेश बखूबी जानते हैं कि सीबीआई जांच की आंच आज नहीं तो कल उन तक पहुंचेगी जरूर। सूत्रों के मुताबिक खनन मामले में सीबीआई की एफआईआर के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अखिलेश समेत कई आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। वहीं अखिलेश को भली-भांति मालूम है कि चाचा शिवपाल लोकसभा चुनाव में भले ही अपना कोई काम बना न पाये लेकिन सपा-बसपा का काम बिगाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। 

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साल 2012 में यूपी विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने प्रदेश भर में सपा की साइकिल को चलाया। अखिलेश को प्रदेश के युवा वोटरों का जबरदस्त साथ मिला। और पहली बार सपा को सरकार बनाने का पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। सपा नेता और कार्यकर्ता इस छप्पर फाड़ जीत का सेहरा टीपू भैया के माथे बांधते हैं। लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि सपा की ऐतिहासिक जीत के पीछे अखिलेश के करिशमाई लीडरशिप से कहीं अधिक मायावती के कुशासन की भूमिका थी। जिस बुआ को वर्ष 2012 में अखिलेश ने सत्ता से बेदखल किया था, आज उसी बुआ की छांव में वो अपनी राजनीतिक साइकिल को आगे बढ़ा रहे हैं। वास्तव में जिस तरह 2012 में सपा को पूर्ण बहुत मिलना अप्रत्याशित घटना थी, उसी प्रकार नौसिखिए अखिलेश को देश के सबसे बड़े सूबे का मुख्यमंत्री बनाना भी अप्रत्याशित घटना के सिवाय कुछ और नहीं था। 

अखिलेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते वक्त ही समाजवादी पार्टी में बड़ी दरार पड़ गयी थी। जिसे शायद उस वक्त कोई देख नहीं पाया, या जानबूझकर उसे नजर अंदाज कर दिया गया। दरार के एक तरफ टीपू के पिता, चाचा और अंकल थे तो दूसरी ओर अखिलेश के जोश से लबरेज अनुभवहीन युवा साथी व दोस्त थे। सपा सरकार के आखिरी साल तक पहुंचते-पहुंचते हालात इस कदर बिगड़ गये कि घर और पार्टी का झगड़ा सड़कों पर उतर आया। एक ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ता आपस में उलझ बैठे। पार्टी पर काबिज होने के लिये अखिलेश ने पिता और चचा जो भी सामने आया उसको साइड लगाने में संकोच नहीं किया। अपमानित चाचा शिवपाल पार्टी का साथ छोड़कर नया दल बना चुके हैं और शायद नेताजी ने बेमियादी मौनव्रत धारण कर लिया है।  

2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। लेकिन ‘यूपी के लड़के’ असरकारी साबित नहीं हुये। अखिलेश सत्ता गंवा बैठे। घर और पार्टी के कलह ने रही-सही कसर पूरी कर डाली। नेताजी के साइड लाइन होने और चाचा के साथ छोड़ने के बाद अखिलेश राजनीतिक मैदान में अकेले खड़े हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि शिवपाल के अलग होने के बाद समाजवादी पार्टी की ताकत भी आधी रह गयी है। अखिलेश की राजनीति और पार्टी आज नाजुक हालत में है। अखिलेश राजनीतिक वजूद बचाने के लिये बसपा से हाथ मिलाने जैसा असंभव काम को अंजाम दे चुके हैं। अखिलेश के इस कदम से सपा नेताओं और कार्यकर्ताओं में जोश से ज्यादा हैरानी का भाव है।  

चाचा शिवपाल ने अपने बड़े भाई नेताजी मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाजवादी पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाया। पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर शिवपाल की मजबूत पकड़ और संबंध किसी से छिपे नहीं हैं। अखिलेश इस बात को बखूबी जानते हैं। अखिलेश जानते हैं कि चाचा शिवपाल सपा के प्रभाव वाली सीटों पर सपा-बसपा गठबंधन को हर हद तक डैमेज करेंगे। शिवपाल ने फिरोजाबाद सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर अखिलेश की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। फिरोजबाद सपा की मजबूत सीट मानी जाती है। वर्तमान में सपा महासचिव प्रोफेसर राम गोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव वहां से सांसद हैं। फिरोजाबाद से चुनाव लड़कर शिवपाल एक साथ अखिलेश और चचेरे भाई प्रोफेसर रामगोपाल दोनों से अपना हिसाब बराबर करना चाहेंगे। शिवपाल को पार्टी से बाहर करवाने में रामगोपाल का बड़ा हाथ माना जाता है। करीबी रिश्तों की चोट से घायल हुये शिवपाल सपा को नुकसान पहुंचाने का कोई अवसर चूकने वाले नहीं हैं। इसका संकेत उन्होंने फिरोजबाद से चुनाव लड़ने की घोषणा करके दे दिया है। 

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अब अखिलेश के दूसरे दर्द यानी सीबीआई की बात की जाए। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और परिवार के कई अन्य सदस्य आय से अधिक सम्पत्ति मामले में फंसे हैं। आय से अधिक सम्पत्ति मामलों और सीबीआई का डर दिखाकर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार दस साल तक सपा से जमकर ब्लैक मेलिंग करती रही। अपने पांच साल के कार्यकाल के शुरूआती लगभग डेढ साल में खनन विभाग अखिलेश यादव के पास ही था। सीबीआई ने अवैध रेत खनन मामले में पिछले दिनों ही आईएएस अधिकारी बी. चन्द्रकला सहित इस मामले में कई अन्य लोगों के ठिकानों पर छापे मारी की है। सीबीआई की रपट के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय ने आईएएस अधिकारी सहित कई लोगों को पूछताछ के लिये तलब भी किया है। सपा के शासन काल में खनन का काला कारोबार किसी से छिपा हुआ नहीं हुआ था। अखिलेश के बाद खनन विभाग के मंत्री रहे गायत्री प्रसाद प्रजापति अपने कुकर्मों के कारण इस समय सलाखों के पीछे हैं। ऐसे में देर-सबेर अवैध खनन मामले की आंच अखिलेश को भी अपने लपेटे में ले सकती है। अखिलेश स्थिति की गंभीरता को बखूबी समझते हैं। खनन मामले में नाम उछलने से उनकी बेदाग छवि तो दागदार होगी जिससे राजनीतिक नुकसान होना लाजिमी है। सपा-बसपा की दोस्ती की प्रेसवार्ता के समय और उसके बाद कई मौकों पर बसपा सुप्रीमो मायावती अखिलेश का बचाव करते हुये मोदी सरकार पर बरस चुकी हैं। बुआ की सांत्वना और सहारे के बावजूद अखिलेश को रह-रहकर सीबीआई का डर दिल से निकल नहीं रहा है। इसलिये मौका-बेमौका वह सीबीआई के दुरूपयोग का मुद्दा उठाते रहते हैं। 

आज अखिलेश अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। उन्हें एक साथ कई मोर्चों और मंचों पर खुद को साबित करना है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन का कड़वा अनुभव उनके पास है। बसपा से गठबंधन करके भले ही अखिलेश खुद का चतुर राजनीतिज्ञ मान रहे हों, लेकिन इस दोस्ती के नतीजे आने में अभी देर है। इन सबके बची प्रियंका गांधी की इंट्री ने बुआ-भतीजे की जोड़ी की चिंता बढ़ाने का काम किया है। सपा-बसपा के गठबंधन से कांग्रेस के बाहर के होने के बाद यह तय हो चुका है कि यूपी में मुकाबला त्रिकोणीय होगा। अखिलेश यादव भले ही अपनी जीत और राजनीति को लेकर पूरी तरह आश्वस्त दिखने की कोशिश करें लेकिन कहीं न कहीं चचा और सीबीआई का अनजाना डर वो अपनी हंसी और मुस्कान से छुपा नहीं पाते हैं। आज अखिलेश जिस राह पर चल रहे हैं वहां न तो पिता की सलाह है और न ही चाचा का साथ। अखिलेश की राजनीतिक फैसले उन्हें कहां ले जाएंगे ये तो आने वाला वक्त बताएगा, फिलवक्त उनकी राजनीतिक पारी कठिन दौर से गुजर रही है।

-आशीष वशिष्ठ

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