वादा ईमानदार शासन का था पर आप भ्रष्टाचारियों को बचाना चाहते हैं

The promise was of honest rule but you want to save the corrupt
ललित गर्ग । Oct 25 2017 12:47PM

यह अध्यादेश अनेक ज्वलंत सवालों से घिरा है। इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की हाल के वर्षों में सबसे निर्लज्ज कोशिश है।

भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगाने के राजस्थान सरकार के नये कानून ने न केवल लोकतंत्र की बुनियाद को ही हिला दिया है बल्कि चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के इस वादे की भी धज्जियां उड़ा दी हैं जिसमें सुशासन एवं लोकतंत्र की रक्षा के लिये हरसंभव प्रयत्न का संकल्प व्यक्त किया था। इस अध्यादेश के माध्यम से प्रान्तीय सरकार ने जजों, पूर्व जजों और मजिस्ट्रेटों समेत अपने सभी अधिकारियों-कर्मचारियों को ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों पर सुरक्षा प्रदान करने का जो कानून बनाया है, वह वाकई आश्चर्यजनक है। इस तरह के कानून से न केवल भ्रष्टाचार को बल मिलेगा, बल्कि राजनीति एवं प्रशासन के क्षेत्र में तानाशाही को बल मिलेगा। ऐसा बेतुका ‘नादिरशाही’ फरमान जारी करके राज्य सरकार भारत के संविधान में प्रदत्त न्यायपालिका एवं मीडिया की स्वतन्त्रता पर अंकुश लगाना चाहती है और पुलिस को अकर्मण्य बना देना चाहती है। इस पूरे अध्यादेश पर न केवल राजस्थान में बल्कि समूचे राष्ट्र में राजस्थान सरकार का जमकर विरोध हो रहा है। विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों, भ्रष्टाचार विरोधी लोगों समेत सोशल मीडिया पर आम जनता राजस्थान सरकार पर इस अध्यादेश को लेकर जमकर बरस रही है।

आपराधिक कानून (राजस्थान अमेंडमेंट) अध्यादेश 2017 के मुताबिक कोई भी मजिस्ट्रेट किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ जांच के आदेश तब तक नहीं जारी कर सकता, जब तक संबंधित विभाग से इसकी इजाजत न ली गई हो। इजाजत की अवधि 180 दिन तय की गई है, जिसके बाद मान लिया जाएगा कि यह स्वीकृति मिल चुकी है। अध्यादेश में इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जांच की इजाजत मिलने से पहले शिकायत में दर्ज गड़बड़ियों को लेकर मीडिया में किसी तरह की खबर नहीं छापी जा सकती। छह माह की अवधि इतनी बड़ी अवधि है कि उसमें अपराध करने वाला या दोषी व्यक्ति सारे साक्ष्य मिटा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदेश सरकार अपने कर्मचारियों एवं अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट दे रही है। सवाल यह है कि सरकार को किस बात का डर है कि वह इस तरह का कानून लाना चाहती है? जाहिर है कि राज्य सरकार ऊपर से लेकर नीचे तक ऐसे तत्वों के साये में काम कर रही है जो जनता की गाढ़ी कमाई पर मौज मारने के लिए आपस में ही गठजोड़ करके बैठ गये हैं। अब इन्होंने यह कानूनी रास्ता खोज निकाला है कि उनके भ्रष्ट आचरणों का भंडाफोड़ न होने पाये। राजस्थान सरकार ने सारी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का बांध तोड़ कर भ्रष्टाचार की गंगा अविरल बहाने का इंतजाम कर डाला है, जबकि हकीकत यह है कि मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलकर लगा चुके हैं। इन सभी आरोपों की सार्वजनिक रूप से जांच की जानी चाहिए थी मगर हो उलटा रहा है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित एवं पल्लवित किया जा रहा है।

यह अध्यादेश अनेक ज्वलंत सवालों से घिरा है। इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की हाल के वर्षों में सबसे निर्लज्ज कोशिश है। लोकतंत्र में ऐसे किसी प्रावधान के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, जो सरकारी अधिकारियों के ड्यूटी के दौरान लिए गए फैसलों और उनकी व्यावहारिक परिणति को लेकर खबरें देने पर रोक लगा दे। बारिश से ठीक पहले बनने वाली फर्जी सड़क या कोई पुल अगर पहली ही बारिश में बह जाए या ढह जाए तो इस बारे में कोई खबर आपको पढ़ने को नहीं मिलेगी। ऐसी किसी खबर की गुंजाइश अगर बनी तो वह अगले जाड़ों में ही बन पाएगी, जब संबंधित अधिकारी शायद कहीं और जा चुके होंगे!

लगता है प्रदेश की मुख्यमंत्री का अहंकार सातवें आसमान पर सवार है। वे जन-कल्याण या विकास के कार्यों से चर्चित होने के बजाय इन विवादास्पद स्थितियों से लोकप्रिय होना चाहती हैं। स्वतन्त्र भारत में राजनीति एवं सत्ता का इतिहास रहा है कि जब भी किसी शासनाध्यक्ष ने सत्ता के अहंकार में ऐसे अतिश्योक्तिपूर्ण एवं अलोकतांत्रिक निर्णय लिये, जनता ने उसे सत्ताच्युत कर दिया। विशेषतः लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को जब भी कमजोर या नियंत्रित करने की कोशिश की गयी, उस सरकार के दिन पूरे होने में ज्यादा समय नहीं लगा है। किसी भी पार्टी की केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों, जनता ने अपने निर्णय से उसे हार का मुखड़ा दिखाया है। गुलामी के दिनों से लेकर आजादी तक भारत की जनता भले ही अशिक्षित एवं भोली-भाली रही हो, लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के लिये समय-समय पर ‘इन्कलाब’ करती रही और सत्ता को चुनौती देती रही है।

पूर्व राजे-महाराजाओं की तर्ज पर जो लोग इस मुल्क के लोगों को अपनी ‘सनक’ में हांकना चाहते हैं उन्हें आम जनता इस तरह ‘हांक’ देती है कि उनके ‘नामोनिशां’ तक मिट जाते हैं। बिहार के मुख्यमन्त्री रहे जगन्नाथ मिश्र ने भी ऐसी ही तानाशाही दिखाने की जुर्रत की थी। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा कर अपनी मनमानी करने की कुचेष्टा की थी, आज उन जगन्नाथ मिश्र का कहीं अता-पता भी नहीं है, जनता ने उनको ऐसा विलुप्त किया कि उनके नाम के निशान ढूंढे नहीं मिलते हैं। इंदिरा गांधी ने नसबंदी के फरमान से ऐसी ही तानाशाही दिखाई थी कि उन्हें भी हार का मुंह देखना पड़ा।

देश में भ्रष्टाचार के सवाल पर अनेक आंदोलन हुए हैं, अन्ना हजारे के आन्दोलन को अभी भूले भी नहीं हैं। इसी आन्दोलन ने केजरीवाल को सत्ता पर काबिज किया है और इसी आन्दोलन के समय अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिये उस समय विपक्ष में बैठी बीजेपी भी राजनीति और सरकार में पारदर्शिता की वकालत कर रही थी। भ्रष्टाचार के विरोध का स्वर ही उनकी ऐतिहासिक जीत का सबब बना है लेकिन उस भाजपा ने सत्ता हासिल करते ही किये गये वादे को किनारे कर दिया। अक्सर आजादी के बाद बनने वाली हर सरकार ने भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा तो बनाया लेकिन उस पर अमल नहीं किया। आज हालत यह है कि केंद्र में भाजपा की सरकार लोकपाल की नियुक्ति से कन्नी काट रही है, और उसी की राजस्थान में सरकार है, जो सरकारी भ्रष्टाचार की खबर छापने तक पर रोक लगा रही है और आम आदमी के शिकायत करने के लोकतांत्रिक अधिकार को भी भौंथरा कर दिया है। जबकि 2012 में भाजपा के ही डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी आम नागरिक की शिकायत दर्ज करने के संवैधानिक अधिकार को गैर-वाजिब शर्तों के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए और उसकी शिकायत का संज्ञान लिया जाना चाहिए। मगर राजस्थान सरकार ने इस आदेश के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को ही निस्तेज कर दिया हैं। भ्रष्ट आचरण और व्यवहार अब हमें पीड़ा नहीं देता। सबने अपने-अपने निजी सिद्धांत बना रखे हैं, भ्रष्टाचार की परिभाषा नई बना रखी है। इस तरह का सत्ता-शीर्ष का चरित्र देश के समक्ष गम्भीर समस्या बन चुका है। राजनीति की बन चुकी मानसिकता में आचरण की पैदा हुई बुराइयों ने पूरे तंत्र और पूरी व्यवस्था को प्रदूषित कर दिया है। स्वहित और स्वयं की प्रशंसा में ही लोकहित है, यह सोच हमारे समाज में घर कर चुकी है। यह रोग मानव की वृत्ति को इस तरह जकड़ रहा है कि हर व्यक्ति लोक के बजाए स्वयं के लिए सब कुछ कर रहा है।

राजनीति करने वाले नैतिक एवं लोकतांत्रिक उत्थान के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, ”वोटों की''। ऐसी रणनीति अपनानी है जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, यही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में लोकतांत्रिक उत्थान की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को संगठित करती है, दूसरी विघटित। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरे तो हमारे राजनीतिज्ञ हैं। जो इन बुराइयों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई राजनीति के चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। राजनीति का रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा। वैसे हर क्षेत्र में लगे लोगों ने ढलान की ओर अपना मुंह कर लिया है। राष्ट्रद्रोही स्वभाव राजनीति के लहू में रच चुका है। यही कारण है कि उन्हें कोई भी कार्य राष्ट्र के विरुद्ध नहीं लगता और न ही ऐसा कोई कार्य हमें विचलित करता है। सत्य और न्याय तो अति सरल होता है। तर्क और कारणों की आवश्यकता तो हमेशा स्वार्थी झूठ को ही पड़ती है। जहां नैतिकता और निष्पक्षता नहीं, वहां फिर भरोसा नहीं, विश्वास नहीं, न्याय नहीं।

कोई सत्ता में बना रहना चाहता है इसलिए समस्या को जीवित रखना चाहता है, कोई सत्ता में आना चाहता है इसलिए समस्या बनाता है। यह रोग भी पुनः राजरोग बन रहा है। कुल मिलाकर जो उभर कर आया है, उसमें आत्मा, नैतिकता व न्याय समाप्त हो गये हैं। नैतिकता की मांग है कि भ्रष्टाचारियों को पोषित करने के नापाक इरादों को नेस्तनाबूद किया जाये। वसुंधरा अराजकता एवं भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ईमानदार नेतृत्व दें। उनकी नीति और निर्णय में निजता से ज्यादा निष्ठा होनी चाहिए। राजनीति की गलत शुरुआत न करें। क्योंकि गणित के सवाल की गलत शुरुआत सही उत्तर नहीं दे पाती है, गलत दिशा का चयन सही मंजिल तक नहीं पहुंचाता है। सदन में बहुमत है तो क्या, उसके जनहित उपयोग के लिये भी तो दृष्टि सही चाहिए।

ललित गर्ग

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