शरिया अदालतों के लिए लोकतांत्रिक सिस्टम में कोई जगह नहीं

There is no place for Sharia courts in the democratic system
अजय कुमार । Jul 16 2018 7:23PM

हिन्दुस्तान में न्यायिक व्यवस्था पर अकसर सवाल खड़े होते रहते हैं। यहां न्यायिक प्रणाली लचर ही नहीं महंगी भी है। अदालत की चौखट पर न्याय की उम्मीद लगाये लोगों को यहां एड़ियां रगड़ते और दम तोड़ते देखा जा सकता है।

हिन्दुस्तान में न्यायिक व्यवस्था पर अकसर सवाल खड़े होते रहते हैं। यहां न्यायिक प्रणाली लचर ही नहीं महंगी भी है। अदालत की चौखट पर न्याय की उम्मीद लगाये लोगों को यहां एड़ियां रगड़ते और दम तोड़ते देखा जा सकता है। लचर न्याय व्यवस्था ही लोगों को पंचायत, खाप पंचायत और शरिया अदालतों में जाने को मजबूर कर देती है। अब वह समय नहीं रहा, जब पंचों को परमेश्वर माना जाता था। मुंशी प्रेमचन्द की कहानी जैसे पंच परमेश्वर अब कहीं नहीं दिखते हैं, आज पंचायतों में सबूतों की बुनियाद की जगह भावनाओं पर फैसला लिया जाता है। जब भी गाँव, जाति, गोत्र, परिवार की 'इज्जत' के नाम पर होने वाली हत्याओं की बात होती है तो जाति पंचायत या खाप पंचायत का जिक्र बार−बार होता है। शादी के मामले में यदि खाप पंचायत को कोई आपत्ति हो तो वे युवक और युवती को अलग करने, शादी को रद्द करने, किसी परिवार का समाजाकि बहिष्कार करने या गाँव से निकाल देने और कुछ मामलों में तो युवक या युवती की हत्या तक का फैसला करती हैं।

पंचायतों जैसा हाल शरिया अदालतों (दारूल कजा) का भी है, जो मुस्लिमों से जुड़ी समस्याओं को कुरान की रोशनी में सुलझाने का दम भरती हैं, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रत्येक जिले में शरिया अदालत बनाये जाने की घोषणा के बाद इन दिनों शरिया अदालतों पर खूब चर्चा हो रही है, इनकी खूबियां भी खूब गिनाई जा रही हैं, लेकिन शरिया अदालतों की नियत पर उंगली उठाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। इन कथित अदालतों पर एक बार में तीन तलाक और हलाला के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के शोषण का आरोप बार−बार लगता रहा है। एक बार में तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है और हलाला मुद्दे पर सुप्रीम अदालत में सुनवाई चल रही है।

बहरहाल, चाहे अत्याचार हिन्दू महिला पर हो या फिर मुस्लिम महिलाओं पर इसे धर्म से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है। पंचायत हो या फिर शरिया अदालतें इनकी कोई संवैधानिक स्थिति नहीं है, लेकिन तमाम लोग अक्सर यहां इंसाफ की उम्मीद में आते रहते हैं, यह वह लोग होते हैं जो कोर्ट−कचहरी का चक्कर लगाने की हैसियत नहीं रखते हैं या फिर इस अंधविश्वास में जी रहे होते हैं कि धर्म की रोशनी में उन्हें इंसाफ मिल जायेगा, इसी के चलते अक्सर ऐसी पंचायतें और शरिया अदालतें न्यायिक व्यवस्था के समानांतर भी खड़ी दिखाई देती हैं।

उधर, यह खबर आने पर कि 'मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' देश के हर जिले में शरिया कोर्ट खोलना चाहता है। इस पर राजनैतिक बहस छिड़ गई है, तो बोर्ड ने सफाई देते हुए कहा कि बोर्ड के एजेंडे में ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है। दूसरा बोर्ड कोई शरई अदालत नहीं चलाता, दारुल कजा चलाता है जिसमें घरेलू मामलों में सुलह सफाई से मसला हल किया जाता है, दारुल कजा को अदालत की तरह कोई ज्यूडिशल पावर नहीं है। मगर यह सफाई भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को रास नहीं आई। बीजेपी वाले कह रहे हैं कि देश के संविधान के अलावा कोई भी समानांतर अदालत नहीं होनी चाहिए, वहीं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इसको सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप बताते हुए कह रहा है दारुल कजा इस्लामिक शरिया (इस्लाम धर्म के कानून) के अनुसार अदालत होती है। यहां पर मुसलमानों के मामले जैसे शादी, तलाक, जायदाद का बंटवारा, लड़कियों को जायदाद में हिस्सा देना आमतौर पर शामिल होता है, लेकिन इसकी कोई संवैधानिक स्थिति नहीं है। बताते चलें कि वैसे, वर्तमान में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधीन देश भर में 50 ऐसे दारुल कजा संचालित हैं। आमतौर पर सुन्नी मुसलमान दारुल कजा को मान्यता देते हैं। बोर्ड 1993 से देश में दारुल कजा संचालित कर रहा है।

पिछले दिनों मुसलमानों के कई मामले जैसे तीन तलाक, निकाह और हलाला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गए। केंद्र सरकार भी तीन तलाक के विरोध में आ गई। बोर्ड को ऐसे में अपनी स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ी। बोर्ड का मंतव्य है कि मुसलमानों के पारिवारिक मामले दारुल कजा से निपटाए जाएं। बोर्ड की दलील थी कि ऐसा करने से कम खर्च में जल्द विवाद का फैसला वह भी इस्लाम के अनुसार निपटारा संभव है, लेकिन बात इस पर चली गई कि क्या मुसलमान भारत में अपने लिए अलग अदालत लगा लेंगे।

इस मामले में ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के सेक्रेटरी जफरयाब जीलानी ने सारी आशंकाओं को सिरे से खारिज करते हुए इस विवाद के लिये मीडिया को कसूरवार बता कर बच निकलने की कोशिश की। जीलानी के अनुसार इस मामले में मीडिया के माध्यम से बहुत भ्रांतियां फैल गईं, दारुल कजा पैरेलल कोर्ट नहीं हैं, जिस पर 7 जुलाई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था। हम दारुल कजा में काजी के जरिए सिर्फ इस्लामिक शरिया के तहत किसी मामले में इस्लामिक कानून बता देते हैं। काजी कोई एनफोर्सिंग एजेंसी नहीं है। तीन तलाक के मुद्दे से दारुल कजा को जोड़ कर देखना बिल्कुल गलत है। बताते चलें कि जीलानी उत्तर प्रदेश में लखनऊ की हाई कोर्ट बेंच में अधिवक्ता हैं और पिछली समाजवादी सरकार में एडिशनल एडवोकेट जनरल रह चुके हैं। जिलानी की सफाई के बाद भी बहस उस समय आगे बढ़ गई, जब बीजेपी सांसद मीनाक्षी लेखी ने शरिया कोर्ट को नकारते हुए एक न्यूज एजेंसी को बयान दिया कि यहां कोई इस्लामिक गणराज्य नहीं है। ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि दारुल कजा कोई पैरेलल कोर्ट नहीं है और 1993 से काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस मामले में बीजेपी के नेता और मंत्रियों को सुप्रीम कोर्ट का फैसला पहले पढ़ लेना चाहिए।

शिया समुदाय हालांकि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इस कदम से दूरी बनाए है। शिया वक्फ बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष शमील शम्सी बताते हैं कि बोर्ड का यह कदम आ बैल मुझे मार वाली स्थिति ला देगा। शम्सी के अनुसार पहले शिया समुदाय की भी शरिया अदालत थी लेकिन 1857 में अंग्रेजों ने जब कब्जा किया, तो इस पर पाबंदी लगा दी थी। शम्सी बताते हैं कि तब शिया शरिया अदालत ने बेगम हजरत महल के नाबालिग बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित किया था, जिसको अंग्रेजों ने मान्यता नहीं दी और खत्म कर दिया। उसके बाद एक बार और कोशिश हुई लेकिन सफल नहीं हो सकी। शम्सी के अनुसार अब तो गली गली में मौलाना फैसला सुनाने लगे हैं, अब इंटरनेट का जमाना है, इसीलिए ईरान और इराक से शरीअत के मुताबिक फतवा मंगवा सकते हैं, ये अब बहुत आसान हो गया है, इसीलिए अब यहां शरिया अदालत की कोई जरूरत नहीं है।

दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन यूपी शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष सय्यद वसीम रिजवी के अनुसार शरिया अदालत चलाना देशद्रोह के अंतर्गत आता है। उनके अनुसार हिंदुस्तान में शरिया हुकूमत नहीं है। ऐसे में बोर्ड द्वारा काजी (जज) नियुक्त करना गलत है। भारत सरकार को तत्काल ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पर पाबंदी लगा देनी चाहिए।

लब्बोलुआब यह है कि जिस तरह से शरिया अदालतों, हलाला और एक बार में तीन तलाक के खिलाफ सरकार और कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने मोर्चा खोल रखा है, उससे मुल्ला−मौलवियों का भले ही भला न हो लेकिन मुस्लिम समाज का इससे भला होना निश्चित है। खासकर उन मुस्लिम महिलाओं के लिये यह बदलाव किसी तोहफे से कम नहीं होगा जिनके सिर पर हमेशा तीन तलाक और हलाला की तलवार घूमती रहती है। 21वीं सदी में और एक लोकतांत्रिक देश में पंचायतों या फिर शरिया अदालतों की सोच गुजरे जमाने की तरह है।

-अजय कुमार

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