एलओसी जमीन पर खींची गयी कोई लकीर नहीं है

814 किमी लम्बी एलओसी आखिर है क्या (?) जो पिछले 68 सालों से न सिर्फ खबरों में है बल्कि जीवित जंग के मैदान के रूप में भी जानी जाती है। सचमुच यह कोई सीमा है या फिर जमीन पर खींची गई लकीर है, जो दो देशों को बांटती है। जी नहीं, नदी, नालों, गहरी खाईयों, हिमच्छादित पहाड़ों और घने जंगलों को जमीन पर खींची गई कोई इंसानी लकीर बांट नहीं सकती। यही कारण है कि पाकिस्तान और भारत के बीच तीन युद्धों के परिणाम के रूप में जो सीमा रेखा सामने आई वह मात्र एक अदृश्य रेखा है जो न सिर्फ जमीन को बांटती है बल्कि इंसानी रिश्तों, इंसान के दिलों को भी बांटने का प्रयास करती है।
जम्मू प्रांत के अखनूर सेक्टर में मनावर तवी के भूरेचक गांव से आरंभ हो कर करगिल में सियाचिन हिमखंड से जा मिलने वाली एलओसी आज विश्व में सबसे अधिक खतरनाक मानी जाती रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि 26 नवम्बर 2003 के पहले तक शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता था कि जिस दिन दोनों पक्षों में गोलाबारी की घटना नहीं होती थी। हालांकि सीजफायर के बाद भी ऐसा अक्सर होता रहता है। यही कारण है कि इसे विश्व में जीवित जंग के मैदान के रूप में भी जाना जाता है।
रोचक बात यह है कि कहीं भी सीमा का कोई पक्का निशान नहीं है कि जिसे देख कर कोई अंदाज लगा सके कि आखिर सीमा रेखा है कहां। कई जगह घने चीड़ व देवदार के वृक्षों ने सीमा को इस तरह से घेर कर रखा है कि सूर्य की किरणें भी सीमा पर नजर नहीं आतीं। इसी तरह करगिल से सियाचिन तक बर्फ से ढंके पहाड़ साल के बारह महीनों मानव की पहुंच को कठिन बनाते हैं। सीमा की अगर किसी को पहचान है तो उन सैनिकों को जो विषम परिस्थितियों में भी सीमा पर नजरें जमाए हुए हैं। उनकी अंगुलियां ही यह बता सकने में सक्षम हैं कि आखिर एलओसी है कहां जो अदृश्य रूप में कायम है और पूरे विश्व में चर्चा का एक विषय है।
अधिकतर लोग यह समझ नहीं पाते कि भारत पाक एलओसी और भारत पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा में अंतर क्या है। दरअसल भारत पाक एलओसी वह सीमा है जिसे सही मायनों में युद्धविराम रेखा कहा जाना चाहिए। दोनों देशों की सेनाएं इस रेखा पर एक दूसरे के आमने सामने हैं और युद्ध की स्थिति हर पल बनी रहती है।
और यही अदृश्य रेखा, जिसे एलओसी का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि एक ओर पाकिस्तानी सेना का नियंत्रण है तो दूसरी ओर भारतीय सेना का। दूसरी ओर भारत पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा जो जम्मू संभाग के कठुआ व जम्मू जिले के साथ छूकर गुजरती है। यह मात्र 264 किमी है और इस पर सीमा सुरक्षा बल व पाकिस्तान की ओर से पाक रेंजर्स चौकसी पर रहते हैं।
इस अदृश्य रेखा रूपी एलओसी का दुखद पहलू यह है कि यह हमेशा ही आग उगलती रहती है जिसमें कमी तो नहीं आई है पिछले 68 सालों के भीतर मगर तेजी हमेशा ही आती रही है। इसी तेजी का अंग कभी छोटे हथियारों से की जाने वाली गोलीबारी है तो कभी बड़े तोपखानों से की जाने वाली गोलाबारी। इसी दुखद पहलू का परिणाम किसी और को नहीं बल्कि एलओसी की परिस्थितियों से जूझ रहे आम नागरिकों को भुगतना पड़ता है जिनकी नागरिकता अभी भी विवादित इसलिए है क्योंकि वे दोनों देशों का प्रयोग जीवन यापन के लिए करते तो हैं ही बार-बार उगली जाने वाली आग से बचाव के लिए पलायन का रास्ता भी अपनाते हैं।
विश्व में यही एक ऐसी सीमा रेखा है दो देशों के बीच जहां स्थिति पर नियंत्रण करना किसी भी देश की सेना के बस की बात नहीं है क्योंकि उबड़-खाबड़ पहाड़, गहरी खाइयां, घने जंगल आदि सब मिल कर जिन भौगोलिक परिस्थितियों की भूल भुलैइया का निर्माण करते हैं उन पर सिर्फ हिन्दुस्तानी सेना ही काबू पाने में कामयाब हुई है। हालांकि पाक सेना भी एलओसी पर नियंत्रण रखती है लेकिन उसे इतनी कठिनाइयों का सामना इसलिए नहीं करना पड़ता है क्योंकि उसके अग्रिम ठिकानों से सड़क मार्ग और मैदानी क्षेत्र अधिक दूर नहीं हैं तो साथ ही में वह किसी प्रकार की तस्करी तथा घुसपैठ की समस्या से दो-चार इसलिए नहीं हो रही क्योंकि वह खुद ही इन्हें बढ़ावा देती रही है।
जम्मू कश्मीर में दो देशों- पाकिस्तान तथा चीन की कुल 2062 किमी लम्बी सीमा लगती है। हालांकि इसमें से 1202 किमी लम्बी सीमा तो सबसे खतरनाक है जो पाकिस्तान के साथ सटी हुई है क्योंकि यह दिन रात आग उगलती रहती है। देश की जनता के लिए सीमा, सीमा ही होती है लेकिन वह यह नहीं समझ पाती है कि आखिर पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा पर तोपें आग क्यों उगलती रहती हैं। पाकिस्तान के साथ लगने वाली सीमा तीन किस्म की हैं।
एलओसी बनाम युद्ध विराम रेखा: वर्ष 1949 में पाकिस्तान तथा भारत के बीच हुए कराची समझौते के अंतर्गत युद्ध को रोकने के बाद जो सीमा का निर्धारण किया गया था युद्धक्षेत्रों में उसे युद्धविराम रेखा अर्थात् एलओसी के नाम से जाना जाता है। इसके मायने यही होते हैं कि युद्ध विराम के समय जिसका जिस स्थान पर कब्जा था वह वहीं तक रहेगा और इस प्रकार दोनों देशों के बीच इस युद्ध विराम रेखा अर्थात् एलओसी अर्थात् मानसिक व अदृश्य रूप से दोनों देशों को बांटने वाली रेखा की लम्बाई 814 किमी है जो अखनूर सैक्टर के मनावर तवी के क्षेत्र के भूरेचक गांव से आरंभ होकर करगिल सैक्टर के उस स्थान पर जाकर समाप्त होती है जहां से सियाचिन हिमखंड की सीमा आरंभ होती है। जिस स्थान पर यह एलओसी समाप्त होती है उस स्थान को एनजे-9842 का नाम दिया गया है जिसका मतलब है- पूर्वी अक्षांश पर 98 डिग्री और उत्तरी अक्षांश पर 42 डिग्री। जबकि इस एलओसी का रोचक पहलू यह है कि इस एलओसी पर पिछले 68 सालों में गोलीबारी कभी भी रूकी नहीं है जो अब जंग में तब्दील हो चुकी है।
वास्तविक जमीनी कब्जे वाली रेखा (एजीपीएल): एजीपीएल अर्थात् सियाचिन हिमखंड की सीमा रेखा। जो 124 किमी लम्बी है। इसकी शुरूआत एनजे-9842 से होती है और भारतीय दावे के अनुसार इसका अंतिम छोर के-2 पर्वत की चोटी के बाईं ओर इंद्र श्रृंखला के पास है तो पाकिस्तानी दावे के अनुसार यह एनजे-9842 के निशान से सीधे काराकोरम दर्रे पर जाकर खत्म होती है और यही झगड़ा 1984 से आरंभ हुआ है जिसका परिणाम यह है कि इस करीब 110 वर्ग किमी के लम्बे क्षेत्र में दोनों ही देशों के बीच विश्व के इस सबसे ऊंचे युद्धस्थल पर मूंछ की लड़ाई जारी है जिस पर प्रतिमाह एक सौ करोड़ रूपयों से अधिक का खर्चा भारतीय पक्ष को करना पड़ रहा है और इतना ही पाकिस्तानी पक्ष को भी।
अंतरराष्ट्रीय सीमा: पाकिस्तान के साथ जम्मू कश्मीर की 264 किमी लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा भी है जो पंजाब राज्य के पहाड़पुर क्षेत्र से आरंभ होकर अखनूर सैक्टर में मनावर तवी के भूरेचक गांव तक जाती है। इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि इस पर संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में सीमा बुर्जियों की स्थापना की गई है। अर्थात् इस पर निशानदेही की गई है जो यह दर्शाती है कि दोनों देशों की हद यहां तक आकर खत्म होती है। और इस सीमा पर अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करते हुए कभी भी गोलीबारी न करने के निर्देश होते हैं जिसका उल्लंघन अब पाकिस्तानी सेना की ओर से किया जा रहा है।
पाकिस्तान से सटी 264 किमी लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा का एक चौंकाने वाला पहलू यह भी है कि इसके भीतर भी कई स्थान ऐसे हैं जिन्हें वर्किंग बार्डर कहा जाता है। ऐसे स्थानों की संख्या दस के करीब है। इन्हें वर्किंग बार्डर इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह सभी विवादास्पद क्षेत्र हैं। जिनमें कहीं सीमाबुर्जी का विवाद है तो कहीं कब्रिस्तान का। तो कहीं खेतीबाड़ी करने वाली जमीन का।
- सुरेश डुग्गर
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