चुनावी वर्ष में भी आर्थिक सुधारों को लागू करना बड़ी हिम्मत का काम

very courageous to implement economic reforms in the election year

केन्द्र सरकार ने जल्दी ही करीब सवा दो लाख कंपनियों को बंद करने के संकेत दे दिए हैं। इससे पहले गए साल में सरकार 2 लाख 26 हजार 166 फर्जी कंपनियां चिन्हित कर डीरजिस्टर्ड करने का कठोर कदम उठा चुकी है।

केन्द्र सरकार ने जल्दी ही करीब सवा दो लाख कंपनियों को बंद करने के संकेत दे दिए हैं। इससे पहले गए साल में सरकार 2 लाख 26 हजार 166 फर्जी कंपनियां चिन्हित कर डीरजिस्टर्ड करने का कठोर कदम उठा चुकी है। 3 लाख से अधिक निदेशकों को अयोग्य घोषित किया जा चुका है। विचारणीय यह है कि गए साल 2 लाख 26 हजार कंपनियों के डीरजिस्टर्ड होने और इस साल भी कंपनियों के डीरजिस्टर्ड करने के संकेत देने के बावजूद अभी तक हंगामा नहीं बरपा है। इसका कारण भी साफ हो गया है कि देश में फर्जी कंपनियों की संख्या हजारों में ना होकर लाखों में हैं और इन कंपनियों के माध्यम से कंपनी धारकों द्वारा अपने अनियमित हित साधे जाते हैं। इन कंपनियों द्वारा गत दो सालों से रिटर्न दाखिल नहीं किए गए हैं। इससे साफ हो जाता है कि इन कंपनियों ने आय के खाते में कुछ दिखाया ही नहीं है। सरकार ने फर्जी या यों कहें कि कागजी कंपनियों के खिलाफ कार्यवाही का पिछले दो साल से अभियान-सा चला रखा है। यह सबसे बड़ी कार्यवाही है। हालांकि विपक्षी व प्रतिक्रियावादियों की यह प्रतिक्रिया हो सकती है कि सरकारी नीतियों के चलते केवल एक माह में ही एक लाख से अधिक कंपनियां बंद हो गईं और औद्योगिक विकास प्रभावित हो गया। बेरोजगारी बढ़ गई। पर समझना यह होगा कि यह सभी कंपनियां केवल कागजी कंपनियां थीं और इन कंपनियों के माध्यम से केवल और केवल सरकार को चूना लगाना उद्देश्य था।

एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में इस समय यही कोई 15−16 लाख कंपनियां पंजीकृत हैं। इनमें से एक तिहाई कंपनियों द्वारा रिटर्न या लेखे ही प्रस्तुत नहीं करना अपने आप में गंभीर प्रश्न है। प्रश्न यह उठता है कि जब सालाना आय जीरो है तो यह कंपनियां कुछ भी नहीं कर रही हैं। इसके अलावा बहुत-सी कंपनियां ऐसी भी हैं जो थोड़ा बहुत कारोबार दिखाते हुए टैक्स बचाने का काम कर रही हैं। देखा जाए तो आर्थिक सुधारों और कर दायरे में कर चोरों को लाने के लिए सरकार ने योजनाबद्ध तरीके से प्रयास किए हैं। सरकार की मंशा को असल में आम आदमी ही क्या बहुत से आर्थिक विश्लेषक और राजनीतिक दल भी समझ नहीं पाए। केवल और केवल सरकार के निर्णयों की आलोचना करने में ही उलझ कर रह गए। विदेशों से काला धन वापिस नहीं लाने के लिए सरकार की विफलता बताते हुए आलोचना में उलझे रह गए जबकि सरकार देश के अंदर और बाहर कालाधन पर कारगर रोक लगाने की दिशा में आगे बढ़ती रही।

पहले गरीब से गरीब देशवासी को शून्य बैलेन्स पर बैंकों में जन धन खातों को खुलवा कर सीधे बैंकों से जोड़ा गया। इसके बाद खातों से आधार नंबर को जोड़ा। डीबीटी योजनाओं को आधार से लिंक कर दिया। सीधे आपके नाम और पते के आधार पर आपके सभी खातों पर सरकार की नजर हो गई। इसके बाद सरकार ने बिना समय गंवाए जुलाई 2017 से जीएसटी लागू कर दिया। हालांकि जीएसटी में सुधार की प्रक्रिया निरंतर जारी रखते हुए सरकार ने साफ संदेश दे दिया कि सरकार किसी को परेशान नहीं करना चाहती बल्कि एक देश एक कर व्यवस्था को लेकर आगे बढ़ रही है और जीएसटी की निरंतर समीक्षा की प्रक्रिया जारी रखी जा रही है ताकि आवश्यकता व समयानुकूल व्यावहारिक सोच अपनाते हुए दरों में आसानी से बदलाव किया जा सके।

असल में सरकारी योजनाओं का बेजा फायदा उठाने, कर बचाने के नए−नए तरीके अपनाने पर सरकार की अब सीधी नजर हो गई है। जीएसटी लागू करते समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के चार्टेड एकाउंटेंटस के आयोजन में उन्हीं को संबोधित करते हुए साफ साफ कहा कि कर चोरी का रास्ता बताने में सीए अधिक सक्रिय हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि कारोबारी सीए की सलाहों के आधार पर ही काले धन को सफेद करने में जुटते हैं वहीं कर चोरी के रास्ते भी सीए के माध्यम से ही कारोबारियों को प्राप्त होते हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में इस तरह की कार्यवाही करने वाले सीए को एक तरह से चेतावनी भी दे दी थी। पर इससे देर सबेर सरकार इस तरह की गतिविधियों में लिप्त चार्टेड एकाउंटेटस पर कार्यवाही करने में भी नहीं हिचकेगी यह साफ संकेत भी दिए गए।

दरअसल सरकारी भाषा में कहें तो विमुद्रीकरण के बाद से सरकारी एंजेंसियां खासतौर से आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई समेत आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखने वाली संस्थाएं अतिसक्रिय हो चुकी हैं। यही कारण है कि फर्जी कंपनियों में काला धन खपाने वाले लगातार सरकारी एजेंसियों की स्कैनिंग में आ चुके हैं। देर सबेर इस तरह की संस्थाएं सामने आने वाली हैं। सरकार ने साफ कर दिया कि वह अब इस तरह की गतिविधियों को अधिक दिन तक चलने नहीं देगी।

मुखौटा कंपनियों को डीरजिस्टर्ड करने का निर्णय इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि साल के अंत में तीन बड़े व प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, लोकसभा का चार साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है और अब केन्द्र सरकार भी चुनाव मोड पर आ चुकी है। इलेक्शन मोड के बावजूद लाखों की संख्या में फर्जी कंपनियों पर शिकंजा कसना सरकार की मंशा को साफ कर देता है कि सरकार चुनावी वर्ष में भी कठोर आर्थिक निर्णय लेने में नहीं हिचकेगी और आर्थिक अपराधियों से सख्ती से निपटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी।

इसे यों समझा जा सकता है कि 15−16 लाख कंपनियों में से पहले 2 लाख 26 हजार को डीरजिस्टर्ड करना और अब सवा दो लाख कंपनियों को डीरजिस्टर्ड करने के संकेत से साफ हो जाता है कि एक तिहाई कंपनियां केवल और केवल कागजों में या यों कहे कि मुखौटा कंपनियों के रूप में ही रजिस्टर्ड होकर सरकारी योजनाओं व सुविधाओं का किसी ना किसी तरह से लाभ उठाने के साथ ही लेखे प्रस्तुत नहीं करना चाहते। यह कंपनियां असल में वित्तीय अनियमितताओं या कर समायोजन में लगी हुई हैं। सोचने की बात यह है कि देश में पांच लाख कंपनियां बंद हो जाएं तो हाहाकार मच जाना चाहिए था, हंगामा हो जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं होने का साफ मतलब है कि सरकार द्वारा जिन कंपनियों का पंजीयन रद्द किया गया है या किया जा रहा है वास्तव में वह मुखौटा कंपनियों के रूप में कारोबारी हित साधने वाली कंपनियां ही हैं। सरकार को आर्थिक अपराध में भागीदार कंपनियों या निदेशकों पर सख्ती तो उठानी ही होगी ताकि देश में स्वच्छ कारोबारी माहौल बन सके।

-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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