लोकसभा चुनाव 2019: तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा

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किसी भी देश के नागरिकों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सुरक्षा, बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना उस देश की सरकार का प्रमुख दायित्व है। जो भी देश अपने प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के उपरोक्त सेवायेँ मुहैया कराने में सफल हो जाय।

इस बार का आम चुनाव तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूंगा की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ दिखायी दे रहा है। राजग सरकार ने अपने अन्तरिम बजट में देश के करीब 12.56 करोड़ किसानो को प्रति वर्ष छह हजार रुपये तथा असंगठित क्षेत्र के 42 करोड़ मजदूरों को प्रति माह तीन हजार रुपये तक पेंशन देने की घोषणा करके सत्ता में वापसी का गणित लगाया था। परन्तु राहुल गाँधी ने देश के 5 करोड़ सर्वाधिक ग़रीब परिवारों को 72 हजार रुपये प्रति वर्ष देने की घोषणा करके सबको चौका दिया है। आगे यदि कोई अन्य दल इससे भी बड़ी घोषणा कर दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। इस तरह की घोषणाएँ सुनने में भले ही अच्छी लगती हों। परन्तु इनका दूरगामी परिणाम मीठे जहर की तरह ही सिद्ध होता है।

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किसी भी देश के नागरिकों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सुरक्षा, बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना उस देश की सरकार का प्रमुख दायित्व है। जो भी देश अपने प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के उपरोक्त सेवायेँ मुहैया कराने में सफल हो जाय। उसे ही सही अर्थों में विकसित देश की संज्ञा दी जानी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से आज केवल आर्थिक विकास को ही सम्पूर्ण विकास का पैमाना माना जाने लगा है। उसमें भी सत्ता प्राप्ति के लिए मुफ्तखोरी की कुप्रथा डालना देश के भविष्य को पंगु तथा अंधकारमय बनाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है| यदि कोई व्यक्ति अपने परिश्रम के बल पर स्वयं के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने में सक्षम बन जाता है। तो यह न केवल उसके स्वयं के लिए संतुष्टिदायक होता है बल्कि देश की विकास दर को निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर करने में भी वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन जब उसी व्यक्ति को मुफ्तखोर बना दिया जायेगा तब वह स्वयं के परिश्रम से विकास करने की शक्ति को धीरे-धीरे खो देगा और एक दिन देश पर बोझ बनकर रह जाएगा। ऐसे व्यक्तियों का बोझ देश के चन्द पूँजीपतियों पर डाल देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। जैसा कि कांग्रेस के अर्थशास्त्री गणित बता रहे हैं कि 5 करोड़ सर्वाधिक गरीब परिवारों को प्रतिवर्ष 72 हजार रुपये देने से देश पर 3.5 लाख करोड़ रुपये का जो आर्थिक बोझ बढ़ेगा उसकी भरपाई पूँजीपतियों के आयकर में मामूली सी बढ़ोत्तरी करके पूरी कर ली जाएगी। ऐसा ही कुछ गणित भाजपा ने भी किसानों को छह हजार रुपये देने की घोषणा करते समय बताया था। क्या किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी ऐसी किसी भी घोषणा से पूर्व देश के पूँजीपतियों से इस बात पर कभी विचार-विमर्श किया है कि आयकर में ऐसी किसी भी बढ़ोत्तरी को देने की स्थिति में वे हैं भी या नहीं? देश के पूंजीपति इस बढ़े हुए कर की भरपाई आखिर करेंगे कैसे? इस तरह की कर बढ़ोत्तरी आखिर किस हद तक की जा सकती है? क्योंकि एक बार जो सिलसिला शुरू हो जाता है बाद में उसे रोक पाना असम्भव होता है। कांग्रेस के अनुसार आज देश में सर्वाधिक गरीब परिवारों का प्रतिशत 20 है। तो कल यह प्रतिशत बढ़कर 40 भी होगा| परन्तु पूँजीपतियों की संख्या भी क्या इसी दर से बढ़ेगी? क्योंकि ये 20 प्रतिशत परिवार तो न्यूनतम आमदनी अर्थात 12 हज़ार रूपये मासिक से ऊपर सोचना ही बन्द कर देंगे। यदि सोचेंगे भी तो परिश्रम करने की उनकी प्रवृत्ति तब तक समाप्त हो जाएगी। इस तरह से देश को आयकर देने वालों का अनुपात धीरे-धीरे कम होता चला जाएगा। जिससे देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का भार देश के चन्द पूँजीपतियों के ऊपर पड़ना स्वाभाविक है। तब ये पूंजीपति या तो गरीब जनता का शोषण करेंगे या फिर देश से पलायन करने लगेंगे। ये दोनों ही स्थितियाँ देश को गर्त में ले जाने वाली होंगी। अतः आवश्यक है कि सत्ता की चाहत में देश की अर्थव्यवस्था को पंगु बनाने वाली मुफ्तखोरी या ऐसी किसी भी कुवृत्ति वाली घोषणा को सिरे से खारिज किया जाये।

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कांग्रेस मानरेगा का उदाहरण देकर अपनी पीठ थपथपा रही है। लेकिन मनरेगा की जमीनी सच्चाई का या तो कांग्रेसियों को ज्ञान नहीं है या फिर वे जान बूझकर इससे मुंह मोड़े हुए हैं। मनरेगा योजना के बाद देश के ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्तखोरी और भ्रष्टाचार को जिस तरह से बढ़ावा मिला है वह सबके सामने है। इस योजना के लागू होने के बाद से ही कृषि कार्य के लिए मजदूरों का टोंटा हो गया है। जो मिलते भी हैं वे मंहगे तथा अपनी शर्तों पर काम करने वाले होते हैं। इस तरह से देश की कृषि व्यवस्था को चौपट करने में मनरेगा ने भी अहम भूमिका निभायी है। अब कांग्रेस ने न्यूनतम आय का नारा दिया है। इससे देश के उद्योग जगत के सामने भी मेहनतकश मजदूरों तथा कार्मिकों का संकट खड़ा होने की पूरी सम्भावना है।

कर्जमाफ़ी जैसी घोषणाओं की पूर्ति के चक्कर में देश के बैंक पहले ही दिवालिया होने की कगार पर पहुँच चुके हैं। रही सही कसर भाजपा सरकार की मुद्रा योजना पूरी करने वाली है। बैंक खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये आने की आशा अभी भी लोगों को है। भाजपाई सबको आश्वस्त भी कर रहे हैं कि विदेशों में जमा काला धन जैसे ही वापस आएगा वैसे ही सबको पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपया मिलेगा। इसके लिए एक मौका और चाहिए। उसके बाद देश का बच्चा-बच्चा लखपती बन जाएगा। 2014 के बाद बन्द की गयीं देश की तीन लाख कम्पनियों के बेरोजगार हुए लोग भी इसी आशा में एक-एक दिन गिन रहे हैं। भले ही आज उनके बच्चे शिक्षा सहित अन्य सभी बुनियादी सुविधाओं से धीरे-धीरे बंचित हो रहे हों।

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जिस देश की संस्कृति आदिकाल से कठिन परिश्रम और ईमानदारी का पाठ पढ़ाती चली आ रही हो उस देश में मुफ्तखोरी की कुप्रथा शर्मसार करने वाली ही कही जा सकती है। मुफ्त साड़ी, मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त टैबलेट, मुफ्त रसोई गैस, मुफ्त शौचालय और भी बहुत कुछ मुफ्त में। यह सब स्वस्थ्य लोकतन्त्र को पंगु बनाने के अतिरिक्त भला और क्या हो सकता है। स्वतन्त्रता के बाद देश में लोकतन्त्र की स्थापना के मूल में यही विचार था कि देश के समग्र विकास में प्रत्येक नागरिक की ईमानदार भागीदारी सुनिश्चित हो सके। हर कोई अपने परिश्रम से न केवल स्वयं का विकास करे बल्कि देश के विकास में भी महती भूमिका निभाए। लेकिन देश का आमजन आज तक उस भूमिका को निभाने में सक्षम सिद्ध नहीं हो पाया है। लोक लुभावन घोषणाओं के बदले मतदान करने की कुवृत्ति निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। देश सेवा का दम्भ भरने वाले नेता जनता की इसी कुवृत्ति का फायदा उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं। न तो उनके पास बेरोजगारी दूर करने की कोई योजना है और न ही बदहाल शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने की कोई रूपरेखा है। स्वास्थ्य सेवाओं की तो चुनाव में शायद ही कभी चर्चा होती हो| आमजन की सुरक्षा पहले ही भगवान भरोसे है। आतंकवाद और अराजकता चरम पर पहुँच चुके हैं। सड़कें बन रही हैं परन्तु भ्रष्टाचार के दलदल से पटी हुईं हैं। किसी भी सड़क के ठेके का तीस से पैंतीस प्रतिशत हिस्सा अधिकारियों और नेताओं की जेब में पहुँचता है। यही धन चुनाव प्रचार में खर्च होता है। इसी कारण कोई भी गरीब आदमी चुनाव लड़ने का साहस नहीं जुटा पाता है। जो जितने अधिक नोट खर्च करता है और जितनी अधिक लोकलुभावन घोषणाएँ करता है उसे उतने ही अधिक वोट मिलते हैं। रुपये की चकाचौंध में सिद्धान्तों और आदर्शों की बातें अब बेमानी लगने लगी हैं। आज देश में एक कलुषित परम्परा विकसित हो रही है कि तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा।

डॉ. दीप कुमार शुक्ल 

(स्वतन्त्र टिप्पणीकार)

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