भाजपा में वंशवाद निचले स्तर पर भले हो, पर शीर्ष नेतृत्व इससे दूर है

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विजय कुमार । Mar 25 2019 1:12PM

वंशवादी कांग्रेस में तो अधिकांश टिकट घूम फिर कर कुछ परिवारों में ही बंट जाते हैं। भाजपा में यद्यपि निचले स्तर पर तो वंशवाद है; पर शीर्ष नेतृत्व इससे मुक्त है। काफी समय से यह तो साफ था कि आडवाणी जी इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे।

पूरे देश में लोकसभा चुनाव की गरमी पूरे यौवन पर है। प्रत्याशियों की घोषणाएं हो रही हैं। हर दिन दलबदल के समाचार सुर्खियां बन रहे हैं। इस दल से उसमें तथा उससे इसमें आने को स्वार्थी नेतागण दलबदल की बजाय दिलबदल कह रहे हैं; पर सच्चाई सबको पता है। इस दौर में वंशवाद भी अपने पूरे वीभत्स रूप में प्रकट होता है। वंशवादी राजनीति की नींव भारत में कांग्रेस ने डाली। मोतीलाल नेहरू ने गांधी जी से यह वचन ले लिया था कि भविष्य में वे सदा जवाहरलाल को महत्व देंगे। गांधी जी ने इस वचन को आजीवन निभाया। इससे देश को कितनी हानि हुई, इसका संपूर्ण विश्लेषण अभी बाकी है; पर कांग्रेस में यह बीमारी इंदिरा गांधी, संजय, राजीव, सोनिया, राहुल और अब प्रियंका तक निर्बाध रूप से चल रही है।

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इसकी देखादेखी देश के अधिकांश राजनीतिक दल आज निजी जागीर बन कर रह गये हैं। अखिलेश यादव, मायावती, अजीत सिंह, प्रकाश सिंह बादल, लालू यादव, ओमप्रकाश चौटाला, रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, के. चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शरद पवार, उद्धव ठाकरे.. आदि केवल नाम नहीं, एक पार्टी भी हैं। यद्यपि पीढ़ी बदलते ही पार्टी को टूटते देर नहीं लगती। उ.प्र. में मुलायम परिवार, हरियाणा में चौटाला परिवार, महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार आदि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। आंध्र में चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर की विरासत कब्जा ली, जबकि एन.टी. रामाराव के बेटे पीछे रह गये।

कुछ दलों में परिवार की विरासत के साथ ही जातीय या मजहबी किलेबंदी भी पूरी है। मायावती, पासवान, अखिलेश, नीतीश, लालू आदि का अपनी जाति पर कब्जा है। ये जहां रहेंगे, उनके सजातीय वोट भी वहां चले जाते हैं। इसलिए चुनाव के समय बने गठबंधन केवल जातीय वोटों का जोड़तोड़ ही होते हैं। अजीत सिंह, महबूबा, उमर अब्दुल्ला, औवेसी, राजभर जैसे कई छुटभैये नेता किसी एक राज्य के कुछ जिलों में प्रभाव रखते हैं। चुनाव में इनकी पूछ भी बढ़ जाती है। राजनेताओं के लिए उम्र कुछ अर्थ नहीं रखती। यदि उनके मजहबी, जातीय या क्षेत्रीय वोटर गोलबंद हैं, तो वे मरते दम तक चुनाव लड़ सकते हैं। देवेगोड़ा, मुलायम सिंह, मनमोहन सिंह, नरसिंह राव, अजीत सिंह, प्रकाश सिंह बादल आदि उदाहरण सामने हैं।

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ऐसे माहौल में भा.ज.पा. ने कुछ शुभ संकेत दिये हैं। उन्होंने वंशवाद और आजीवन वाली राजनीति पर गहरी चोट की है। मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही अपने मंत्रिमंडल में उन लोगों को रखा, जिनकी आयु 75 वर्ष से कम थी। अब उन्होंने ऐसे सांसदों को फिर से टिकट नहीं दिया, जो इस आयुसीमा से अधिक हैं। लालकृष्ण आडवाणी, भुवन चंद्र खंडूरी, भगतसिंह कोश्यारी की सीटों पर नये प्रत्याशी घोषित हो चुके हैं। कलराज मिश्र ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। मुरली मनोहर जोशी चुप हैं; पर यह स्पष्ट है कि उन्हें भी टिकट नहीं मिलेगा। उत्तराखंड में खंडूरी जी का संबंध कांग्रेस नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के परिवार से है। यद्यपि वे भी चरण सिंह की तरह दलबदल के उस्ताद थे। इस परिवार में विजय बहुगुणा, साकेत बहुगुणा, रीता बहुगुणा जोशी और खंडूरी जी की बेटी आजकल भा.ज.पा. की ओर से राजनीति में सक्रिय है। खंडूरी जी चाहते थे कि भा.ज.पा. उनके बेटे मनीष को उनकी जगह सांसद का चुनाव लड़ाये; पर पार्टी ने मना कर दिया। अतः उसने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसमें परिवार की कितनी शह है, यह तो समय ही बताएगा।

वंशवादी कांग्रेस में तो अधिकांश टिकट घूम फिर कर कुछ परिवारों में ही बंट जाते हैं। भा.ज.पा. में यद्यपि निचले स्तर पर तो वंशवाद है; पर शीर्ष नेतृत्व इससे मुक्त है। काफी समय से यह तो साफ था कि आडवाणी जी इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे; पर उनका उत्तराधिकारी कौन होगा, इस बारे में कई चर्चाएं थीं। उनका बेटा अपने कारोबार में व्यस्त रहता है; पर उनकी बेटी प्रतिभा दिल्ली और गांधीनगर में प्रायः पिता के साथ दिखायी देती है। लोग सोचते थे कि वह उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी होगी; पर इससे भा.ज.पा. में भी शीर्ष नेतृत्व पर वंशवाद का आरोप लग जाता। अतः आडवाणी जी ने इसके लिए साफ मना कर दिया। आडवाणी जी पर आज भले ही कोई जिम्मेदारी न हो; पर भा.ज.पा. को दो से 200 तक पहुंचाने में उनकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। इसलिए यह निर्णय बहुत ही अच्छा है। इससे देश भर के पार्टीजनों को स्पष्ट संदेश गया है।

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भा.ज.पा. को कुछ नियम और भी बनाने चाहिए। जैसे एक परिवार से एक ही व्यक्ति चुनावी राजनीति में रहे। इससे मेनका गांधी, राजनाथ सिंह और डॉ. रमन सिंह जैसों को तय करना होगा कि राजनीति में उन्हें रहना है या उनके बेटों को। इसी तरह चुनावी राजनीति में आने और जाने की आयुसीमा का निर्धारण भी जरूरी है। कई समाजशास्त्रियों का मत है कि यह 50 और 75 होनी चाहिए। महिलाओं का एक तिहाई प्रतिनिधित्व भी होना ही चाहिए। यद्यपि इसके लिए सर्वसहमति जरूरी है; पर किसी चीज की शुरुआत कहीं से तो होती ही है। भा.ज.पा. ने वंशवाद और चुनावी राजनीति में आयुसीमा पर एक बड़ी लाइन खींची है। यह जितनी दूर तक जाएगी, देश का उतना ही भला होगा।

   

-विजय कुमार

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