धान को आर्सेनिक से बचा सकती है कम पानी में सिंचाई

deficit irrigation can save paddy from arsenic contamination

धान की खेती कम पानी में करने से फसल के दानों में आर्सेनिक की मात्रा कम हो सकती है। पश्चिम बंगाल के आर्सेनिक-ग्रस्त जिले नदिया में धान की फसल, सिंचाई जल और मिट्टी के नमूनों का अध्ययन करने के बाद भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने यह बात कही है।

उमाशंकर मिश्र। (इंडिया साइंस वायर): धान की खेती कम पानी में करने से फसल के दानों में आर्सेनिक की मात्रा कम हो सकती है। पश्चिम बंगाल के आर्सेनिक-ग्रस्त जिले नदिया में धान की फसल, सिंचाई जल और मिट्टी के नमूनों का अध्ययन करने के बाद भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने यह बात कही है। कम पानी में सिंचाई करने से धान में आर्सेनिक की मात्रा 17-25 प्रतिशत तक कम पाई गई है। हालांकि इसके साथ-साथ पैदावार में भी 0.9 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है।

नदिया और आसपास के इलाकों में प्रचलित धान की शताब्दी नामक प्रजाति के खेतों की मिट्टी, सिंचाई जल, फसल की शाखाओं, पत्तियों, दानों एवं जड़ के नमूनों और धान के पौधे के विभिन्न हिस्सों में पाई जाने वाली आर्सेनिक की मात्रा का अध्ययन करने के बाद अध्ययनकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। नदिया में 22 स्थानों से ये नमूने एकित्रत किए गए थे, जहां धान की फसल पानी एवं मिट्टी में मौजूद आर्सेनिक के संपर्क में रहती है। 

अध्ययनकर्ताओं की टीम में शामिल प्रो. एस. सरकार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “कम पानी में धान की खेती की जाए तो फसल के दानों में आर्सेनिक की मात्रा कम हो सकती है। अध्ययन के दौरान चावल की शताब्दी प्रजाति में नियंत्रित ढंग से सिंचाई करने पर आर्सेनिक का स्तर 0.22 मि.ग्रा. से कम होकर 0.16 मि.ग्रा. पाया गया है।” प्रो. एस. सरकार के अनुसार “खाद्यान्न में आर्सेनिक का स्तर अधिक होने से लिवर कैंसर, फेफड़े का कैंसर और हृदय रोगों जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। वहीं, आर्सेनिक का स्तर कम होने से इन बीमारियों से बचा जा सकता है। हालांकि फसल उत्पादन कुछ कम जरूर देखा गया है।” 

अध्ययनकर्ताओं के अनुसार “खाद्यान्न में आर्सेनिक के उच्च स्तर के लिए आर्सेनिक युक्त मिट्टी के बजाय आर्सेनिक प्रदूषित जल की भूमिका अधिक पाई गई है। पौधे की वृद्धि के दौरान कम पानी में नियंत्रित ढंग से सिंचाई करने पर धान और मिट्टी दोनों में आर्सेनिक का स्तर कम हो जाता है। अनावश्यक रूप से सिंचाई करने के बजाय केवल तभी सिंचाई करनी चाहिए जब पौधे को इसकी जरूरत होती है। अध्ययन के दौरान धान की शताब्दी नामक प्रजाति में रोपाई करने के 16-40 दिन के बाद सिंचाई की गई थी, जब फसल को पानी की जरूरत होती है। विभिन्न फसल प्रजातियों में यह अवधि अलग-अलग हो सकती है।” 

चावल के दाने के बाद आर्सेनिक की सर्वाधिक मात्रा पुआल में पाई गई है। दूसरी ओर मिट्टी और सिंचाई जल में आर्सेनिक का स्तर अलग-अलग होने के बावजूद पौधे की जड़ों में आर्सेनिक की मात्रा में अंतर कम देखा गया है। जबकि, पौधे की जड़ें आर्सेनिक के सीधे संपर्क में रहती हैं और जड़ से शाखाओं में आर्सेनिक का स्थानांतरण होता रहता है। इसी आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि धान के पौधे में आर्सेनिक के प्रवेश के लिए कोई खास जीन जिम्मेदार हो सकता है। 

पश्चिम बंगाल के बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय और शांति निकेतन स्थित विश्वभारती विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन हाल में शोध पत्रिका जर्नल ऑफ एन्वायरमेंट मैनेजमेंट में प्रकाशित किया गया है। डॉ. सरकार के अलावा अध्ययनकर्ताओं की टीम में अर्काबनी मुखर्जी, एम. कुंडु, बी. बसु, बी. सिन्हा, एम. चटर्जी, एम. दास बैराग्य और यू.के. सिंह शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)

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