चिकनगुनिया वायरस की पहचान के लिए नई तकनीक विकसित

New technology developed for identification of Chikungunya virus

भारतीय वैज्ञानिकों को बायोसेंसर आधारित ऐसी तकनीक विकसित करने में सफलता मिली है, जो चिकनगुनिया वायरस की पहचान में मददगार हो सकती है। इसका उपयोग चिकनगुनिया की त्वरित पहचान के लिए प्वाइंट ऑफ केयर उपकरण बनाने में किया जा सकता है।

नई दिल्ली, (इंडिया साइंस वायर): भारतीय वैज्ञानिकों को बायोसेंसर आधारित ऐसी तकनीक विकसित करने में सफलता मिली है, जो चिकनगुनिया वायरस की पहचान में मददगार हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इस तकनीक का उपयोग चिकनगुनिया की त्वरित पहचान के लिए प्वाइंट ऑफ केयर उपकरण बनाने में किया जा सकता है।

इस तकनीक में मोलिब्डेनम डाईसल्फाइड नामक रासायनिक तत्व से बनी नैनोशीट्स का उपयोग किया गया है और स्क्रीन प्रिंटेड गोल्ड इलेक्ट्रॉड पर इन नैनोशीट्स को लगाया गया है। शोधकर्ताओं ने नैनोशीट्स का संश्लेषण रासायनिक विधि से किया है और स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, अल्ट्रावॉयलेट-विजिबल स्पेक्ट्रोस्कोपी, रामन स्पेक्ट्रोस्कोपी और एक्स-रे डिफ्रैक्शन पद्धतियों से इसके गुणों का परीक्षण किया गया है। जैव-रासायनिक वोल्टामीट्रिक तकनीक से चिकनगुनिया वायरस के डीएनए की पहचान की गई है।

एमिटी विश्वविद्यालय, नोएडा, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली और महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के शोधकर्ताओं द्वारा यह अध्ययन किया गया है। अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक, “इस शोध में स्क्रीन प्रिंटेड गोल्ड इलेक्ट्रॉड लेपित मोलिब्डेनम डाईसल्फाइड नैनोशीट्स को डीएनए बाइंडिंग के लिए प्रभावी पाया गया है।” 

वायरल बुखार से पीड़ित मरीज में चिकनगुनिया के संक्रमण का पता लगाने के लिए आमतौर पर आरटी-पीसीआर (रियल टाइम-पालिमर चेन रिएक्शन) जांच से रक्त के नमूनों में चिकनगुनिया आरएनए की मौजूदगी का परीक्षण किया जाता है। इस विधि से जांच के लिए विशेषज्ञ और आधुनिक उपकरण की जरूरत होती है। मरीज को बुखार आने के दूसरे या तीसरे दिन आरटी-पीसीआर जांच कर चिकनगुनिया का पता लग पाता है। 

शोधकर्ताओं के अनुसार, “डीएनए संकरण (हाइब्रिडाइजेशन) आधारित विस्तृत पैमाने पर उत्पादन और त्वरित प्रतिक्रिया जैसी विशेषताओं के कारण वैज्ञानिक जैव-रासायनिक बायोसेंसर्स का विकास करने में जुटे हैं। इसी तथ्य पर केंद्रित इस शोध में जैव-रासायनिक डीएनए बायोसेंसर का विकास किया गया है।” 

कुछ अन्य विशेषज्ञों का मानना है कि यह तकनीक बायोसेंसर विकसित करने की एक सामान्य प्रक्रिया है और इसमें नए आइडिया का उपयोग नहीं किया गया है। नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स ऐंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी से जुड़े प्रोफेसर अशोक कुमार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “अध्ययन में पूरक डीएनए (सीडीएनए) के खास संश्लेषित हिस्सों की पहचान की गई है और चिकनगुनिया की पहचान के लिए जरूरी राइबोज न्यूक्लिक अम्ल (आरएनए) नमूनों का उपयोग नहीं किया गया है। रक्त सीरम से प्राप्त स्पाइक्ड डीएनए नमूने के उपयोग से की गई वैधता जांच भी वास्तविक नमूनों के अनुरूप नहीं है।”

अध्ययनकर्ताओं में चैताली सिंघल, मनिका खनूजा, नाहिद चौधरी, सी.एस. पुंडीर और जागृति नारंग शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है।

(इंडिया साइंस वायर) 

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