नई चुनौती बनकर उभर रही हैं समुद्री ग्रीष्म लहरें

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महासागरीय जीवन पर इन ग्रीष्म लहरों का अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। समुद्री ग्रीष्म लहरों के कारण प्रवाल भित्तियों के साथ-साथ पूरा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हो सकता है। हाल के वर्षों में हिंद महासागर की परिधि में शामिल देशों में जलीय कृषि उद्योग समुद्री ग्रीष्म लहरों से प्रभावित हुआ है और मछलियों के मरने की दर बढ़ गई है।

पुणे। (इंडिया साइंस वायर): बढ़ते वैश्विक ताप के कारण समुद्री ग्रीष्म लहरों, एल नीनो प्रभाव और प्रचंड चक्रवातों जैसी चरम मौसमी घटनाएं बढ़ रही हैं, जिसके खतरनाक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की बुधवार को जारी की गई एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है।

इस रिपोर्ट में महासागरों और हिममंडल (ग्लेशियर, बर्फ से ढंके समुद्री क्षेत्र, स्थायी बर्फ से ढंकी जमीन) पर वैश्विक ताप के कारण पड़ रहे दुष्प्रभावों को लेकर आगाह किया गया है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि भारत समेत हिंद महासागर से सटे अन्य देश इन चरम घटनाओं से सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं।

इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2015-16 में आधुनिक युग का सबसे प्रचंड एल नीनो प्रभाव दर्ज किया गया। एल नीनो आमतौर पर करीब दो से सात साल के अंतराल पर होते हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर के गर्म तापमान से होने वाले एल नीनो का असर पूरी दुनिया के मौसम पर पड़ता है। 

मध्यम एल नीनो के कारण भी भारत में मानसून की बरसात कम या अनियमित हो सकती है। वर्ष 2015-16 में चरम एल नीनो प्रभाव के दौरान भारत को सूखे का सामना करना पड़ा था। इस तरह की चरम एल नीनो घटनाएं भविष्य में बढ़ सकती हैं। वर्ष 1891 से 1990 तक सौ वर्षों की अवधि में एल नीनो प्रभाव प्रायः 20 सालों के अंतराल पर देखा गया। पर, इस सदी के अंत तक एल नीनो की आवृत्ति हर दस साल के अंतराल पर देखने को मिल सकती है। इसका सीधा असर मानसून आधारित कृषि अर्थव्यवस्था पर बड़े पैमाने पर पड़ सकता है।

एल नीनो के अलावा, समुद्री ग्रीष्म लहरें एक नई चुनौती बनकर उभर रही हैं। महासागरों के ऊपर चलने वाली ये ग्रीष्म लहरें काफी हद तक जमीन पर चलने वाली ग्रीष्म लहरों की तरह होती हैं। गर्म पानी के कारण महासागरों की ऐसी अनियमित प्रतिक्रिया उभर रही है। एल नीनो के साथ इन ग्रीष्म लहरों का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। 

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महासागरीय जीवन पर इन ग्रीष्म लहरों का अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है। समुद्री ग्रीष्म लहरों के कारण प्रवाल भित्तियों के साथ-साथ पूरा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित हो सकता है। हाल के वर्षों में हिंद महासागर की परिधि में शामिल देशों में जलीय कृषि उद्योग समुद्री ग्रीष्म लहरों से प्रभावित हुआ है और मछलियों के मरने की दर बढ़ गई है।  

उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि वर्ष 1982 से 2016 के बीच समुद्री ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति दोगुनी होने के साथ-साथ अधिक लंबी और तीव्र हुई है। औद्योगिक युग से पहले समुद्री ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति करीब सौ दिन में एक बार थी। यदि कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई तो वर्ष 2050 तक यह आवृत्ति चार दिन में एक बार हो सकती है और इस सदी के अंत तक प्रत्येक दो दिन के अंतराल पर समुद्री ग्रीष्म लहरें देखने को मिल सकती हैं।

हिंद महासागर में ग्रीष्म लहरों के बढ़ने के साथ-साथ तापमान, समुद्री जलस्तर तथा अम्लता भी बढ़ी है, जबकि ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट हो रही है। इन बदलावों ने तटीय आर्द्र भूमियों को प्रभावित किया है, जिसके कारण वनस्पतियों के मृत होने की दर बढ़ रही और पारिस्थितिक तंत्र का क्षरण हो रहा है। इससे महासागरों के तटीय पारिस्थितिक तंत्र में शामिल समुद्री घास, मैंग्रोव और दलदली भूमि प्रभावित हो सकती है, जिनकी भूमिका कार्बन को सोखने में अहम होती है। इसके साथ ही, समुद्र में मछलियों की मात्रा कम होने से मछुआरों की आजीविका भी प्रभावित हो रही है। 

गर्म होते महासागरों के कारण अत्यधिक तीव्र चक्रवात जन्म लेते हैं। अरब सागर के ऊपर मानसून के बाद उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की आशंका बढ़ गई है। वर्ष 2014 में मानसून के बाद दर्ज किया नीलोफर इस क्षेत्र में अपनी तरह का पहला चक्रवात था। इस चक्रवात से भूस्खलन तो नहीं हुआ, लेकिन इसके कारण पश्चिमी तट पर भारी वर्षा हुई। तेजी से गर्म होने वाले हिंद महासागर के साथ, इस तरह के गंभीर चक्रवातों की संख्या में वृद्धि का अनुमान है, ऐसे में भारत के पश्चिमी तट पर भूस्खलन की आशंका बढ़ सकती है।

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अपने दरवाजे पर वैश्विक ताप की दस्तक को देखते हुए इसके शमन, अनुकूलन रणनीतियों के विकास और उनको कार्यान्वित करने में भारत अन्य देशों से काफी आगे है। भारत ने राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना का गठन किया है और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भारी निवेश किया जा रहा है। हालांकि, अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। भारत वैश्विक ताप को एक अवसर के रूप में ले सकता है और महासागर आधारित नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को बढ़ावा दे सकता है। 

[रॉक्सी मैथ्यू कोल्ल पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान में जलवायु वैज्ञानिक और महासागरों और हिममंडल पर आईपीसीसी रिपोर्ट के लेखक हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड से जुड़े रघु मुर्तुगुड्डे आईआईटी बॉम्बे के विजिटिंग प्रोफेसर हैं।]

भाषांतरण: उमाशंकर मिश्र

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