दिन पर दिन पत्रकारिता की गरिमा और विश्वसनीयता गिराते चले जा रहे हैं News Channel
फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत का सच हर कोई जानना चाहता है लेकिन ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर समाचार चैनलों पर जिस तरह से चौबीसों घंटे सुशांत और रिया के बारे में दिखाया जा रहा है वह गलत है। किसी का भी मीडिया ट्रायल नहीं होना चाहिए।
भारत जैसे विशाल देश में क्या सिर्फ एक मामला या एक व्यक्ति से जुड़ी खबर ही सबसे बड़ी खबर हो सकती है? सुबह की सुर्खियों से सुशांत सिंह राजपूत केस की शुरुआत होती है और टीवी चैनलों पर प्राइम टाइम में भी इसी मामले की गूँज रहती है। यही नहीं टीवी चैनलों पर रात में प्रसारित होने वाले क्राइम शोज में भी यही मामला गूँजता है। ऐसा तब है जब देश में कोरोना, बाढ़, बेरोजगारी, सीमा पर तनाव, महँगाई आदि अनेकों समस्याएं मुँह बाए खड़ी हैं। लेकिन मीडिया को सिर्फ सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती से मतलब है क्योंकि सुशांत की मौत से उसे अपनी टीआरपी बढ़ाने में मदद मिल रही है।
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मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है लेकिन मीडिया ने अपनी कारगुजारियों से जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता तेजी से खोई है। आज समाचार पत्र ही जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता बचा पाने में सफल हो रहे हैं। डिजिटल मीडिया को अपने आरम्भ से ही फेक न्यूज जैसी बीमारी ने घेर लिया है इसलिए जनता इनकी खबरों को बेहद बारीकी से परखती है। टीवी समाचार चैनलों ने जिस तेजी और जिस नये अंदाज के साथ भारत में समाचार प्रस्तुत करने का तरीका बदला था उसी तेजी से यह माध्यम अब अपनी विश्वसनीयता भी खोता जा रहा है। जरा कभी टीवी चैनलों खासकर हिंदी समाचार चैनलों पर होने वाली बहसों का स्तर देखिये। आपको कभी समझ ही नहीं आयेगा कि यह किसी मुद्दे पर बहस हो रही थी या आपस में तू-तू-मैं-मैं हो रही थी। बहसों में तर्कों और तथ्यों को प्रस्तुत करने की बजाय एक दूसरे पर कीचड़ उछाला जाता है।
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संवाददाता का अर्थ ही बदल कर रह गया है। संवाददाता अब खबर उसी एंगल से बताते हैं जिस एंगल को चैनल ने प्रदर्शित करने का मन बनाया है। सुशांत वाले मामले को ही देख लीजिये एक चैनल सुशांत की आत्महत्या की बात सिद्ध करने पर तुला हुआ है तो दूसरा सुशांत की हत्या की बात सिद्ध करने पर तुला हुआ है। सूत्रों के हवाले से खबर चलाई जा रही है कि सीबीआई ने आज यह पूछा, आज वह पूछा जबकि सीबीआई साफ कह चुकी है कि हमने जाँच की बात किसी के साथ साझा नहीं की। ऐसे में मीडिया के लिए यह आत्ममंथन का समय है क्योंकि जो संवाददाता, एंकर और चैनलों के मालिक कर रहे हैं उससे आगे बढ़क आने वाले समय में लोग करेंगे। क्या यही है मिशन आधारित पत्रकारिता? क्या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ से यही अपेक्षा की गयी थी?
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