हिंदी पत्रकारिता दिवसः अपने अस्तित्व के लिए आज भी लड़ाई लड़ रहे हैं

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वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया हैं। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चारों और लहरा रहा हैं।

पत्रकारिता के उद्भव एवं विकास में हिंदी पत्रकारिता के 30 मई 2020 को 194 साल बीत गए जब आज के ही दिन 1826 में पहला हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र "उदन्तमर्तण्ड" का प्रकाशन किया गया था। इस समाचार पत्र का प्रकाशन जुगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता के बड़े बाजार इलाके में अमरतल्ला लेने, कोलूटोला से प्रारम्भ किया था। इस दिन को पत्रकारिता के क्षेत्र में पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके सम्पादक भी वह स्वयं थे। हिंदी पत्रकारिता को शुरू करने की दृष्टि से हिंदी पत्रकारित जगत में उनका विशेष सम्मान है। कानपुर के रहने वाले वकील जुगल किशोर ने कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्होंने ऐसे समय में हिंदी भाषा में पत्र निकालने का साहस दिखया जब ब्रिटिश शासन में भारतीयों के हित में कुछ भी लिखना बड़ी चुनोती थी। उस समय बंगला,अंग्रेजी,फ़ारसी में निकलने वाले पत्रों के बीच उदन्तमर्तण्ड अकेला हिंदी भाषा का पत्र था जो हर मंगलवार को प्रकाशित हो कर पाठकों तक पहुँचता था।

आजादी से पूर्व की पत्रकारिता समाजिक सरोकारों से जुड़ी थी। भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज मे व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किए और पत्रों के माध्यम से जागरूकता पैदा की।

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी हैं। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत्ति दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित इसलिए विदेशी सरकार की दमन -नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृंशस व्यवहार की यातना झेलनी पडी़ थी। उन्नीसवी शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए कितना तेज और पृष्ठ था इसका साक्ष्य भारतमित्र (सन 1878 ई में) सार सुधानिधि (सन 1879 ई में) और उचित वक्ता (सन 1880 ई में) जीर्ण पृष्ठों पर मुखर हैं।

  

वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता ने अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया हैं। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चारों और लहरा रहा हैं। भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। सन 1780 ई में प्रकाशित हिके (भ्पबामल) का ‘‘कलकत्ता गजट‘‘ कदाचित इस ओर पहला प्रयत्न था। हिन्दी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी। इन अंतिम वर्षो में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिन्दुस्थान इंटेलिजेंस ओरऐंटल ऐथोलॉजी नाम को जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही अखबारों के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र ''हिन्दुस्तानी'' प्रकाशित करना आंरभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने ''बंगाल गजट'' का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र ''समाचार दर्पण'' को (27 मई 1818) जन्म दिया। 

इन प्रारम्भिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बॅंगला भाषा के ''समाचारचंद्रिका और संवाद कौमुदी'' फारसी उर्दू के जामे जहॉंनुमा और शमसुल अखबार तथा गुजराती के मुंबई समाचार दर्शन होते हैं। यह स्पष्ट हैं कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का ''उर्दू अखबार'' (1833) और मराठी का ''दिग्दर्शन'' (1837) हिन्दी के पहले पत्र ''उदंत मार्तड़'' (1826) के बाद ही आए। ''उदंत मार्तड़'' के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछांही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने ''मध्यदेशीय भाषा'' कहा हैं। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलन असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परन्तु चेष्ठा करने पर भी ''उदंत मार्तड़'' को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी। हिन्दी पत्रकारिता का पहला चरण 1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिन्दी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में. भारतेन्दु ने ''हरिश्चंद मैगजीन'' की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र ''हरिश्चंद चंद्रिका'' नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेन्दु का ''कविवचन सुधा'' पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था।                  

नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र का प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं हैं। ''उदंत मार्तड़'' के बाद प्रमुख पत्र हैं: ब्ंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तड़ पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगदीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तड़ (1850), मजहरूलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852),ग्वालियर गजेट (1850), (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगंलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861),लोकमित्र (1835),भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृतांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृतांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रहाज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिन्दू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा अखबार (1872)। ठन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र एक था ''समाचार सुधावर्षण'' जो द्विभाषीय (बंगला हिन्दी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बडा शिक्षाकेन्द्र था और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रहासमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से सबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिन्दू, उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती हैं। हिन्दी प्रदेश के प्रारंम्भिक पत्रों में ''बनारस अखबार'' (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक ''सुधाकर'' और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से ''प्रजाहितैषी'' का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का ‘‘बनारस अखबार‘‘  उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो दोनो पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के सबंध में हिन्दी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष ''कवि वचनसुधा'' का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहले महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इ पत्र के माध्यम से हुआ परन्तु सच तो यह है कि ''हरिश्चंद्र मैगजीन'' के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का दूसरा युग: भारतेन्दु युग हिन्दी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता हैं। इस युग के एक छोर पर भारतेन्दु का ''हरिश्चंद्र मैगजीन'' था और नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त ''सरस्वती''। इन 27 वर्षो मे प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर हैं और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवलकथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपति रहती थी, परन्तु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठो से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में ''विचारपत्र'' ही कह सकते थे। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र ही अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग लिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के दन 25 वर्षो का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। ''कविवचनसुधा'' (1867), ''हरिशचंद्र मैगजीन'' (1874), ''हरिशचंद्रचंद्रिका'' (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिक तक घबराते थे और ''कविवचनसुधा'' के ''पंच'' रूष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होने नये पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। ''हिन्दी प्रदीप'', ''भारतजीवन'' आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे। 

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भारतेन्दु के बाद भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रूद्रदत शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिन्दी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचितवक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्ति सुधाकर 1878), बद्रीनारायण चौधरी ''प्रेमधन'' (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार 1882), राधाचरण गौस्वामी (भारतेन्दु 1882), पंडित गौरीदत (देवनागरी प्रचारक, 1882), राजरामपाल सिंह (हिन्दुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत व्यास (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकरण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पंडित रामगुलाम अवस्थी (शुभचितंक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिन्दी बगवासी 1890), पंडित कुंदनलाल (कवि व चित्रकार 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास(साहित्य सुधानिधि, 1894) । वर्ष1895 ई में नागरीप्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन आंरभ होता हैं। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आंरभ हुआ और इसलिए हम हमें एक निश्चित प्रकाशस्तम्भ मान सकते हैं। 1900 ई में ''सरस्वती और सुदर्शन'' के अवतरण के साथ हिन्दी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता हैं। इन 25 वर्षो में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई हैं। प्रांरम्भिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे।

अपने क्रमिक विकास के क्रम में हिंदी पत्रकारित के उत्कर्ष का समय देश की आज़ादी के बाद आया। समाचार पत्रों का व्यापक विकास हुआ। भारत के समाचार पत्र पंजीयक की रिपोर्ट के मुताबिक। भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक पत्रों की संख्या हिंदी भाषा की हैं,दूसरे स्थान पर अंग्रेजी भाषा के पत्र हैं। वर्ष 2016-17 की आरएनआई रिपोर्ट से मुताबिक पंजीकृत प्रकाशनों की संख्या 1,14,820 हैं जिनमें सर्वाधिक 46,827 हिंदी भाषा के पत्र हैं एवं दूसरे रहन पर अंग्रेजी भाषा के 14,365 पत्र है। इस अवधि तक कुल पंजिकृत प्रकाशनों में 3.58 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।सर्वाधिक हिन्दी पत्र उत्तर प्रदेश से प्रकाशित होते है एवं इसके बाद महाराष्ट्र राज्य से निकलते हैं।

आजादी के बाद समाचार पत्रों की नीति-रीति में एवं प्रकाशन विधि में बदलाव होते रहे। आज समाचार पत्र ऑफसेट पर रंगीन छपने लगे हैं। समाचार संकलन इंटरनेट से सुविधाजनक हो गया। राष्ट्रवाद के मुद्दे सिमट कर रह गए और आज पत्रकारिता पूंजीपतियों का आधिपत्य बढ़ता गया और सम्पादक की शक्तियां क्षीण हो गई। पत्रकारिता ने उद्योग का रूप ले लिया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति होने पर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिंदी पत्रकारिता विकृतियों से घिर कर स्वार्थ सिद्धि और प्रचार का माध्यम बन गई है। कहने को पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है पर उसके समुचित विकास में आज भी अनेक बाधाएं हैं। मध्य्म एवं लघु समाचार पत्रों को आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा हैं। न तो इन्हें पर्याप्त सरकार और सरकारी संस्थाओं के विज्ञापन मिलते हैं और निजी क्षेत्र भी बमुश्किल विज्ञापन देते हैं। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी ये किसी प्रकार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। आवश्यकता हैं कि हिंदी पत्रकारिता के समुचित विकास के लिए बड़े समाचार पत्रों के साथ-साथ समस्त समाचार पत्रों का विकास हो और पर्याप्त आर्थिक सहायता उपलब्ध हो। समाज को भी इस ओर पहल करने की दरकार हैं।

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

पूर्व जॉइंट डायरेक्टर,सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, राजस्थान

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