सावन में प्रिय से दूर रहना किसी को गवारा नहीं

रिमझिम में नवयौवना का प्रेमी उससे दूर रहे, यह उसे किसी कीमत पर सहन नहीं हो सकता। तभी तो बरसात में जैसे झींगुर या मेढ़क बढ़ जाते हैं, उसी तरह अनायास प्रेमियों की संख्या में भी बाढ़ सी आ जाया करती है।

सभी जानते हैं कि सावन के महीने और प्रेम की मदहोशी के बीच सचमुच बड़ी गहरी साठगांठ लगती है। आकाश में जब बादल उमड़ते हैं तो प्रेमी का मन मयूर नाचने लगता है। रिमझिम में नवयौवना का प्रेमी उससे दूर रहे, यह उसे किसी कीमत पर सहन नहीं हो सकता। तभी तो बरसात में जैसे झींगुर या मेढ़क बढ़ जाते हैं, उसी तरह अनायास प्रेमियों की संख्या में भी बाढ़ सी आ जाया करती है। वजह, हर युवा मन प्रेम की तरंगों में हिचकोले खाने लगता है। कह सकते हैं कि नदी में जिस तरह बाढ़ आती है, ठीक वैसे ही इस मौसम में इश्क परवान चढ़ता है।

जी हां, इश्क कहें या मोहब्बत, इसकी दीवानगी का कोई जवाब नहीं है। नशा इतना, जिसकी नाप-तौल तो संभव ही नहीं। तभी तो उर्दू साहित्य इश्क और मोहब्बत के रंग से भरा पड़ा है। इसका दार्शनिक पहलू भी गजब का है। प्रेम पवित्र है या अपवित्र, शील है या अश्लील, इसमें पड़ने की जरूरत नहीं। बस प्रेम एक कठिन बीमारी है, जिसे लगती है उसे निकम्मा, निठल्ला और आवारा बना देती है। मिर्जा गालिब जैसे शायर को यूं ही नहीं कहना पड़ता-

इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी आदनी थे काम के।

 
जिस किसी को इश्क की बीमारी लगती है, उसका हुलिया बदल जाता है। खाने को मिले या न मिले, रहने का ठिकाना हो तो ठीक या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि नींद आती नहीं, भूख लगती नहीं, सुध-बुध रहती नहीं। रहती है तो बस प्रिय या प्रियतमा के मिलन की चाह, उत्कृष्ट अभिलाषा और उसमें खो जाने या समा जाने की अदम्य कामना। जब ऐसे भयावह प्रेमरोग से ग्रस्त सावन की झड़ी से सामना होता है तो भरी बरसात में भी उन्हें सब कुछ जलता हुआ दिखाई देता है।

अश्क आंखों से रवां, और जिगर जलता है,
क्या कयामत है कि, बरसात में घर जलता है।

 
हवा की सनसनाहट हो या बादलों की गड़गड़ाहट। बिजली कड़कते ही प्यार सुरक्षा चाहने लगता है। बहुत बार देखा गया है कि नायक अपनी नायिका को मना-मनाकर थक जाता है और उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मगर ज्यों ही बिजली तड़पती है, नायिका दौड़कर नायक के सीने से ऐसे चिपक जाती है। ऐसी रोमांटिक कहानियों से हमारे साहित्य भरे पड़े हैं।

हिंदी साहित्य भी इस मामले में कुछ कम नहीं है। जरा सोचें, सावन का महीना न होता तो प्रेम की उमंगों का क्या होता। बताते हैं, बरसात में कृष्ण का ह्दय प्रेम-रस से लबालब भर जाता था। छलक कर कहीं बाहर न निकल जाए, इस कारण झरझराती वर्षा की झड़ी में काली कमरों की घोघी बना राधा को बगल में दबाए आनंदपूर्वक लीला हुआ करती थी। आज युग में सावन का ऐसा अपूर्व आनंद उठाने वाला शायद ही कोई हो। ऐसे में प्रेमी-प्रेमिका एक साथ रहना चाहते हैं। ऐसे खुशगवार मौसम में एक निर्दयी प्रेमी परदेश जाना चाहता है तो उसकी प्रिया उसे धिक्कारती है-

भामा बामा कामिनी कहि बोलो प्राणेश,
प्यारी कहत लजात नहिं पावस चलत विदेश।

अर्थात, तुम्हें प्यारी कहने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि पावस में विदेश जा रहे हो और प्यारी-प्यारी चिल्ला रहे हो, तुम्हें शर्म तक नहीं आती है।
 
सावन महीने में विरहन की हालत सचमुच बड़ी चिंताजनक हो जाती है। रीतिकाल के कवियों ने बरसात में विरहा की दशा का ऐसा मार्मिक चित्र खींचा है कि अच्छे भले आदमी का दिल भी दर्द से कराह उठे। नायिका गर्मी के दोपहरी की धूप तो सह सकती है, पर बरसात में पिया से दूर रहने की पीड़ा कदापि सहन नहीं कर सकती। सावन की फुहार के बीच आंखों को अपने प्रियतम के दर्शन का सुख मिलता है, वह वाकई लाजवाब होता है। एक नायिका का दर्दनाक बयान है-

आई वर्षा बहार, घर पिया न हमार,
लागे दिल पे कटार, पर जाऊं सजनी।

 
अब नायक की लाचारी है कि वह सावन के महीने अगर अपनी प्रियतमा को ही छाती से लगाकर बैठा रहे तो रोटी कहां से आएगी। उसे काम धंधे के लिए बाहर जाना ही पड़ता है, अब ऐसे में प्रेम के मारे ये बेचारे जिएं या मरें। समझ नहीं पाते।

भारतीय सिनेमा जगत में भी नायिकाओं के रूप यौवन को सावन की फुहार में भीगकर ही शीतलता मिलती रही है। पचास के दशक से लेकर अब तक यही हाल रहा है। मसलन- बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम, भीगा भीगा प्यार का समां, बता दे तुझे जाना है कहां, ना झटको जुल्फ से पानी, ये मोती टूट जाएंगे, हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और दूरी, तेरी दो टकिया की नौकरी मेरे लाखों का सावन जाए, भीगी भीगी रातों में, मीठी मीठी बातों में, ऐसी बरसातों में कैसा लगता है, भीगा बदन जलने लगा, मौसम बदलने लगा, रिमझिम तन पे पानी गिरे, अब के सावन जी डरे, आज रपट जाएं तो हमें ना उठइयो, टिप-टिप बरसा पानी, बरसात के दिन आए, मुलाकात के दिन आए, आएगा मजा अब बरसात का, तेरी-मेरी मुलाकात का और मुझको बरसात बना दो जैसे गानों के बोल अनायास ही युवा दिलों की धड़कन को तेज कर देता है।

साहित्य हो या कला अथवा फिल्म जगत सावन महीने की मार से कोई बच नहीं सका। ऐसा ही एक नव विवाहित युवक का प्रकरण प्रकाश में आता है। वह अपने सुंदर भविष्य का सपना पाले दूसरे शहर में परीक्षा देने शहर गया हुआ था कि अचानक उसकी प्रियतमा का पत्र आता है, हे प्रिय, यहां सावन की रिमझिम फुहार पड़ने लगी है। बादल के साथ-साथ मेरी आंखें भी बरसती हैं, जिससे काजल बहकर गालों पर फैल गया है। जिस सुंदर चेहरे को तुम चांद का टुकड़ा कहा करते थे, उस पर बादलों की काली परत छा गई है। तुम जब तक आओगे, मैं जीवित नहीं रह सकूंगी और समाधि ले लूंगी। नायिका आगे लिखती है, परीक्षा बार-बार आएगी, पर ऐसी सुहानी बरसात फिर नहीं आएगी। पत्र पढ़ते ही नायक वापस आ जाता है।

नायिका की आंखों से अपने प्रियतम को देखकर आंखों से झर-झर पानी झर रहा था। असहज अवस्था में खड़ा प्रेमी अपनी प्रेमिका को ठोडी उठाए कह रहा था- तुम किसी बरसात से कम नहीं हो। तुम्हारी जुल्फें काली-काली घटाएं हैं, तुम्हारी मुस्कुराहट भला किस वज्रपात से कम है। तुम्हारा सारा कमनीय शरीर सुंदर घाटी लग रहा है। सच तो यह है कि हर युवा दिल सावन के महीने में अपनी सुधबुध खो बैठता है। उसे साहित्य या फिल्मों का हर वह चेहरा अपना नजर आने लगता है, जिसका दिल बरसात के पानी से दहकती आग जैसी वेदना अनुभव करता हो।

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