साक्षी मलिक और पीवी सिंधू ने भारत की लाज बचा ली

सवा सौ करोड़ की आबादी का देश जहां तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर ऊँचाइयों को छू रहा है, वहीं खेलों में फिसड्डी साबित हो रहा है। भला हो पीवी सिंधू और साक्षी मलिक का, जिन्होंने देश की लाज बचा ली।

पीवी सिंधू और साक्षी मलिक ने ओलंपिक में भारत की लाज रख ली। कल्पना करें कि यदि भारत एक भी पदक नहीं जीत पाता तो विश्व में कैसी लज्जाजनक हालत होती। सवा सौ करोड़ की आबादी का देश जहां तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर ऊँचाइयों को छू रहा है, वहीं खेलों में फिसड्डी साबित हो रहा है। ओलंपिक हो या किसी भी खेल की विश्व चैंपियनशिप, इनमें पदक प्राप्त करना अब दूसरे क्षेत्रों की तरह प्रतिष्ठा का विषय हो गया है। विश्व बिरादरी में इस तरह की उपलब्धियों को सम्मान की निगाहों से देखा जाता है। क्या वजह है कि कैरीबियन देश जमैका 6 गोल्ड जीत गया और भारत ताकता रह गया। ऐसा भी नहीं है कि ओलंपिक हो या दूसरी अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता, भारत दूसरे देशां को कड़ी चुनौती नहीं दे सकता। इसके लिए बहुत ज्यादा धन की आवश्यकता भी नहीं है। जरूरत है सिर्फ जमैका की तरह प्लानिंग की।

जमैका में स्कूल स्तर से ही एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं से धावकों का चयन किया जाता है। ऐसी प्रतियोगिताएं राष्ट्रीय स्तर तक आयोजित होती हैं। इनके चयनित किशोर-किशोरियों को सघन प्रशिक्षण दिया जाता है। बगैर भारी−भरकम संसाधनों के भारत में भी यह संभव है। यदि चुनिंदा महंगे खेलों को छोड़ भी दिया जाए तो तैराकी, नौकायन, भारोत्तोलन और ट्रैक एण्ड फील्ड में युवाओं की बड़ी तादाद मौजूद है। देश में नदी−समुद्र, झील−तालाबों के किनारे बसे गांव−शहरों में बड़ी संख्या में तैराक उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत में नौकायन प्रतियोगिता हर साल होती है। नौकायन के प्रतियोगियों की वहां अच्छी−खासी संख्या है। देश का शायद ही ऐसा कोई बड़ा कस्बा या शहर होगा जहां भारोत्तोलक मौजूद नहीं हो। आठ घंटे तक वजन उठा कर रोजी−रोटी कमाने वाले युवा देश में हर कहीं उपलब्ध हैं। इसी तरह गांवों−कस्बों और आदिवासी क्षेत्रों में दौड़ने वालों की खासी तादाद है। तीरंदाजी इसका प्रमाण है। ज्यादातर तीरंदाज आदिवासी अंचलों से निकले हैं। खेलों के अनुकूल भौगोलिक दृष्टि से कद−काठी के लिहाज से युवाओं की बड़ी संख्या मौजूद है। इन क्षेत्रों के युवाओं को प्रारंभिक प्रशिक्षण देने की भी जरूरत भी नहीं है। जरूरत है सिर्फ उन तक पहुंचने की। हीरा भी बगैर तराशे पत्थरों में दबा रहता है। उसे हासिल करने के लिए जरूरत पहचान कर तराशने की होती है। यदि विधिवत तरीके चयन करके प्रशिक्षित किया जाए तो एक नहीं कई कोहिनूर खेल जगत की दुनिया में चमक बिखेर सकते हैं। ऐसे युवाओं का शारीरिक कौशल पहचानने के लिए पंचायत स्तर से प्रतियोगिता आयोजित होनी चाहिए। इसके चयनितों को जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में मौका मिलना चाहिए।

राज्य और केंद्र सरकार के पास यदि संसाधनों की कमी है तो राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचे खिलाड़ियों के विशेष प्रशिक्षण का इंतजाम कराया जा सकता है। पंचायत से राष्ट्रीय स्तर होने वाली खुली प्रतियोगिताओं में विजेताओं के लिए पर्याप्त नकद पुरस्कार का प्रावधान होना चाहिए। इसके लिए राज्य और केंद्रीय खेल बजट में विशेष प्रावधान किया जाए। इस प्रावधान से खिलाड़ियों को अपनी जरूरतों के लिए किसी का मुंह ताकने की जरूरत नहीं रहेगी। दरअसल युवा पीढ़ी और उनके अभिभावकों के समक्ष मुख्य समस्या खेलों के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के साथ भविष्य की भी है। नकद पुरस्कार राशि से खेलों के लिए जरूरी संसाधन खिलाड़ी अपने स्तर पर ही जुटा सकते हैं। ऐसे एकल खेल जिनमें सीधे हार−जीत का फैसला बगैर अंकों के होता है, उनमें भ्रष्टाचार और भाई−भतीजावाद की गुजांइश भी न के बराबर रहती है। इनमें प्रथम, दि्वतीय और तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले खिलाड़ियों को सीधे बड़ी प्रतियोगिताओं में मौका मिल जाता है। चयनकर्ता आसानी से किसी खिलाड़ी के साथ पक्षपात नहीं कर सकते।

यही वजह भी है कि भारत ने बैडमिंटन, टेनिस, रेसलिंग, बॉक्सिंग, तीरंदाजी, शूटिंग जैसी प्रतियोगिताओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीते हैं। इसी तरह एथलेटिक्स में जीत−हार का सीधा निर्णय धावक के टाइमिंग और ऊँचाई−लम्बाई से होता है। जिन खेलों में टीम वर्क होता है, वहीं चयन में गड़बड़ी की गुंजाइश ज्यादा रहती है। इसमें किसी एक खिलाड़ी की उपलब्धि के आधार पर टीम आगे नहीं बढ़ सकती। यही वजह भी है कि बास्केटबॉल, फुटबाल, हॉकी, वॉलीबाल और हैंडबॉल जैसे खेलों में भारत विश्व में आखिरी कतार में है। जब तक खिलाड़ियों का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा तब तक खेलों के स्तर में सुधार संभव नहीं है। नकद पुरस्कार के बाद खिलाड़ियों और अभिभावकों के सामने दूसरी बड़ी चुनौती खेलों के जरिए भविष्य संवारने की है। मौजूदा दौर में राज्यों और केंद्र सरकार सरकारी नौकरियों में खिलाड़ियों को आरक्षण देती हैं। इसके बावजूद बड़ी संख्या में राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी नौकरियों से वंचित रह जाते हैं। सभी को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं हो तो राज्यों और केन्द्र सरकार स्टार्ट अप के जरिए सौ प्रतिशत पूंजी सहित स्वरोजगार की गारंटी दे सकती हैं। खिलाड़ियों के मामलों में नियमों के सरलीकरण और प्रचार−प्रसार की जरूरत है। इसी से युवाओं का विश्वास बढ़ेगा।

निजी कम्पनियों में खिलाड़ियों को रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाने के लिए सरकार को रियायतों का पैकेज देना चाहिए। इस तरह के प्रोत्साहन से ही देश में खेलों की तस्वीर बदल सकती है। बेहतर होगा कि टोक्यो में 2020 में होने वाले अगले ओलंपिक के लिए सरकारें जरूरी कदम उठाएं। चार साल का वक्त तैयारियों के लिए कम नहीं है। फेडरेशनों के भरोसे खेलों के नतीजे सबके सामने है। खेल संघों में भ्रष्टाचार, पदों की छीनाझपटी और खिलाड़ियों के चयन में भेदभाव तभी खत्म हो सकता है, जब सरकारें पारदर्शी नीति बनाएं। अन्यथा रियो ओलंपिक ही नहीं इससे पहले हुए और इसके बाद होने वाले ऐसे आयोजनों में एक−दो पदकों के लिए ही तरसते रहेंगे।

- योगेन्द्र योगी

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़