भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा, व्रत और कथा सुनने से पूरी होती हैं सभी मनोकामनाएँ

shri satyanarayan vrat
शुभा दुबे । Sep 7 2020 9:29PM

सृष्टि के पालनहार विष्णु भगवान ने कहा कि हे नारद! अब मैं ऐसे व्रत का वर्णन करने जा रहा हूं जिसे करने से विश्व के सभी स्त्री−पुरुषों को पापों से मुक्ति मिलेगी, निर्धनता नष्ट होने से मनुष्य सुख−संपत्ति के समुद्र में तैरता हुआ आनंदपूर्वक जीवन−यापन करेगा।

भगवान श्री सत्यनारायण सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले, सभी कष्टों को हरने वाले हैं। सच्चे मन से भगवान श्रीसत्यनारायण का व्रत करने, पूजा करने और कथा श्रवण से निश्चित ही लाभ मिलता है। यदि आप भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत और पूजन करना चाहते हैं तो इसे कभी भी कर सकते हैं लेकिन यदि पूर्णिमा, संक्रांति या गुरुवार के दिन का चयन करते हैं तो यह सर्वश्रेष्ठ है। व्रत के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर पूजागृह में आसन पर बैठकर श्रीगणेश, गौरी, वरुण, विष्णु आदि समस्त देवताओं का स्मरण कर पूजन करें और यह संकल्प करें कि मैं सदैव श्री सत्यनारायण की आराधना तथा कथा−श्रवण करूंगा। हाथों में पुष्प लेकर सत्यनारायण का ध्यान करें तथा पुष्प, धूप, नैवेद्य तथा यज्ञोपवीत अर्पित कर प्रार्थना करें हे भगवन्! मैंने जल, पुष्प आदि समस्त सामग्री श्रद्धा व विश्वासपूर्वक आपके चरणों में अर्पित की है। इसे स्वीकार करें। आपको बारम्बार प्रणाम है। इसके बाद श्री सत्यनारायण देव की कथा पढ़ें या सुनें।

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पूजा सामग्री

केले का तना, आम के पत्ते, कलश, धूप, रोली, कपूर, दीपक, श्रीफल, पुष्पहार, गुलाब के फूल, पंचरत्न, पंचपल्लव, चावल, तुलसी के पत्ते, मौसम के फल, पंचामृत यानि दूध, घी, शहद, शक्कर और दही, नैवेद्य, कलावा, जनेऊ, अंगवस्त्र, वस्त्र और चौकी।

पावन तीर्थस्थल नैमिषारण्य में एक बार एकत्र हुए आर्यावर्त के अट्ठासी हजार महर्षियों ने मुनिश्रेष्ठ श्री सूतजी से कहा कि हे मुनिश्रेष्ठ! कलियुग में मनुष्य वेद−विधान और धर्म−विरुद्ध आचरण करते हुए पापों की गठरी के बोझ तले दबता जा रहा है। इसलिए हे मुनिश्रेष्ठ मनुष्य के कल्याण के लिए ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे मनुष्य को पुण्य लाभ हो तथा उसके जीवन की मंगलकामनाएं पूरी हो सकें। तब श्री सूतजी ने कहा कि हे ऋषियों आपने विश्व कल्याण के लिए बहुत अच्छा प्रश्न किया है। अब मैं उस मंगलकारी व्रत का वर्णन करूंगा जिसके संबंध में एक बार नारदजी ने भी भगवान लक्ष्मीनारायण से पूछा था और उन्होंने नारदजी से जो कथा कही थी, उसे आप भी चिंतामुक्त होकर सुनें।

नारदजी मानव के कल्याण की इच्छा से विभिन्न लोकों का भ्रमण करते हुए पृथ्वीलोक में पहुंचे। पृथ्वीलोक में अपने−अपने कर्मों के अनुसार लोगों को दुखों से पीडि़त देखकर नारदजी व्यथित हुए और मन में विचार करने लगे कि इन प्राणियों के दुख का निवारण कैसे होगा। जब वह कोई उपाय न सोच सके तो तीनों लोकों के स्वामी श्रीविष्णु भगवान के सामने उपस्थित हुए। वहां नारदजी ने श्वेतपूर्ण और चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुसज्जित देवों के ईश भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए कहा कि हे नारायण! आप सर्वशक्तिमान व सृष्टि के पालनकर्ता हैं। मनुष्य का मन और वाणी भी आपके गुणों का वर्णन नहीं कर सकती। आप सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि हैं। आपका कोई आदि, मध्य और अंत नहीं है। आप सृष्टि के कण−कण में विद्यमान अपने भक्तों की मंगलकामनाएं पूरी करने वाले हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूं।

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नारदजी की इस प्रकार की स्तुति सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराए और बोले कि हे मुनिवर कृपया निरूसंकोच होकर अपने आने का कारण बताइए। तब नारदजी ने कहा कि पृथ्वीलोक पर जन्म लेने वाले मानव अपने−अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में रहते हुए अनेक दुखों से पीडि़त हो रहे हैं। हे त्रिलोकीनाथ मुझ पर कृपा करके कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे उनका दुख नष्ट हो सके ओर वे सुख−संपत्ति का भोग करते हुए मोक्ष को प्राप्त करें।

सृष्टि के पालनहार विष्णु भगवान ने कहा कि हे नारद! अब मैं ऐसे व्रत का वर्णन करने जा रहा हूं जिसे करने से विश्व के सभी स्त्री−पुरुषों को पापों से मुक्ति मिलेगी, निर्धनता नष्ट होने से मनुष्य सुख−संपत्ति के समुद्र में तैरता हुआ आनंदपूर्वक जीवन−यापन करेगा। श्री सत्यनारायण भगवान के इस व्रत को करने से उनकी सभी मंगलकामनाएं पूरी होंगी। कलियुग में मोक्ष प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है। नारदजी ने जब व्रत के लिए विधि−विधान की जानकारी चाही तो श्री नारायण बोले कि मनसा, वाचा, कर्मणा शुद्ध होकर मनुष्य भक्ति एवं श्रद्धा भाव से किसी भी दिन यह व्रत कर सकता है। नैवेद्य आदि भक्तिभाव से अर्पित कर ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें। इस प्रकार सत्यनारायण की आराधना करने से व्यक्ति सभी कष्टों से मुक्ति पाकर व धन संपन्न व सुखी होकर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।

श्री सूतजी बोले कि हे ऋषियों−मुनियों अब मैं आपको उस निर्धन ब्राह्मण की कथा सुना रहा हूं जिसने श्री सत्यनारायण भगवान का सबसे पहले व्रत किया। श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने से उस ब्राह्मण की निर्धनता दूर होने के साथ−साथ उसके सभी कष्टों का निवारण हुआ था। प्राचीन समय में वह निर्धन ब्राह्मण देवों की प्रिय नगरी काशी में रहता था। भिक्षा मांगकर वह किसी तरह अपना जीवनयापन कर रहा था। ब्राह्मण की दुर्दशा देखकर ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान ने एक दिन बूढ़े व्यक्ति के रूप में उसके पास जाकर आदर से पूछा कि हे ब्राह्मण देवता, तुम इस तरह घर−घर भिक्षा मांगकर अनेक कष्टों को सहन करते हुए कैसे जीवनयापन कर रहे हो? दरिद्र ब्राह्मण ने कहा कि हे मित्र, आय का कोई साधन न होने के कारण मैं भिक्षा मांगकर जीवनयापन कर रहा हूं। यदि आप मेरी निर्धनता दूर करने का कोई उपाय जानते हों तो मुझे अवश्य बताएं। निर्धन ब्राह्मण की बात सुनकर बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि हे मित्र श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा−आराधना करने से तुम्हारी सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी और तुम्हारे घर में धन−संपत्ति की वर्षा होगी। ब्राह्मण को व्रत करने की विधि बताकर सत्यनारायण भगवान वहां से आगे की ओर चल दिए और कुछ दूर चलकर अंर्तध्यान हो गए।

निर्धन ब्राह्मण ने बूढ़े व्यक्ति द्वारा बताए गए व्रत को करने का निश्चय किया। उस रात उसे नींद नहीं आई। वह व्रत करने के बारे में ही सोचता रहा और रात भर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता रहा। प्रातरू उठकर सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय करता हुआ निर्धन ब्राह्मण भिक्षा मांगने के लिए निकल पड़ा। उस दिन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। घर लौटकर उसने अपने आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने व उन्हें व्रतकथा सुनाने के बाद सभी को प्रसाद देकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। कुछ ही दिनों में ब्राह्मण की निर्धनता दूर हो गई। उसके घर में धन−धान्य की वर्षा होने लगी। अब ब्राह्मण ने हर महीने श्री सत्यनारायण का व्रत करने का निश्चय कर लिया।

'हे श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं आपको उन लोगों की भी कथा सुनाता हूं जिन्होंने उस ब्राह्मण से श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा सुनकर यह व्रत किया और उनके कष्ट दूर हुए। धन−संपत्ति से संपन्न उस ब्राह्मण ने हर माह नियमित रूप से व्रत करते हुए जब अगले माह श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया तो उस व्रत में बहुत से बंधु−बांधव और मित्र सम्मिलति हुए। उसी समय जंगल से लकडि़यां काटकर लाने वाला एक बूढ़ा लकड़हारा वहां से गुजरा। उसे बड़ी तेज प्यास लग रही थी। इसलिए जल पीने की इच्छा से बूढ़े लकड़हारे ने लकडि़यों के गट्ठर को जमीन पर रखा और घर के आंगन में पहुंचकर उस ब्राह्मण से पूछा कि हे ब्राह्मण देवता आप किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत को करने से क्या लाभ होता है? कृपा करके मुझे सब बातें बताएं। बूढ़े लकड़हारे की बातें सुनकर उस ब्राह्मण ने उसे सब बातें बताईं तो लकड़हारा प्रसन्न हुआ और उसने मन ही मन भगवान सत्यनारायण का व्रत करने का निश्चय किया। चलते हुए लकड़हारे ने सोचा कि आज लकडि़यां बेचने से जो धन मिलेगा उस धन से मैं श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करूंगा। ऐसा विचार करने से उस दिन लकड़हारे को लकड़ियों के अधिक रुपए मिले। लकड़हारे ने उन रुपयों से केले, घी, दूध, दही, गेहूं का आटा और शक्कर खरीदा। घर लौटकर लकड़हारे ने देवों की प्रिय काशीनगरी में श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। उस पूजा में उसके परिवार के तथा आसपास के लोग भी सम्मिलित हुए। श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा और व्रत कथा सुनने के बाद लकड़हारे ने प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। सत्यनारायण भगवान की अनुकंपा से लकड़हारे के घर में धन−धान्य की वर्षा होने लगी। उसकी निर्धनता दूर हो गई। सत्यनारायण भगवान की पूजा करते हुए लकड़हारा आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को चला गया।

श्री सूतजी बोले कि हे ऋषि−मुनियों! अब मैं आपको आगे की कथा सुनाता हूं। प्राचीन समय में कनकपुर में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान तथा सत्यवादी राजा राज करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करता था और निर्धनों को खूब अन्न, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते थे। श्री सत्यनारायण की अनुकंपा से उनके महल में धन−संपत्ति के भंडार भरे रहते थे। उनकी सारी प्रजा बहुत आनंद से जीवनयापन कर रही थी। एक बार राजा और रानी बहुत से लोगों के साथ जब भद्रशीला नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे तो नदी के किनारे एक बड़ी नौका आकर ठहरी। उस नाव में एक धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत−सा धन कमाकर अपने नगर लौट रहा था। उसका सारा धन नाव में रखा हुआ था। नाव से उतरकर व्यापारी राजा के पास पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने पूछा कि हे राजन! आप इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं? और इस पूजा को करने से क्या लाभ होता है? तो राजा ने उसे भगवान सत्यनारायण की महिमा एवं उनके व्रत का लाभ बताया और व्यापारी द्वारा इस व्रत को करने की विधि पूछे जाने पर उसे व्रत और पूजा करने की विधि भी बताई। राजा ने व्रत कथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया।

श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और वापस लौटकर अपनी पत्नी लीलावती से कहा कि हमारी कोई संतान नहीं है। कनकपुर के राजा उल्कामुख ने मुझे बताया है कि सत्यनारायण भगवान का व्रत करने और उनकी कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यदि सत्यनारायण भगवान की अनुकंपा से हमारी कोई संतान हुई तो मैं श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत अवश्य रखूंगा। व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई। दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री के जन्म पर बहुत खुशियां मनाईं लेकिन सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने को कहा तो वह बोला कि अभी जल्दी क्या है? मैं इधर व्यापार में बहुत व्यस्त हूं जब बेटी बड़ी हो जाएगी और इसका विवाह करूंगा तो मैं अवश्य ही भगवान सत्यनारायण का व्रत करूंगा। पति के वचन सुनकर लीलावती चुप हो गई। इधर व्यापारी की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चंद्रमा की तरह तेजी से बड़ी होने लगी। पलक झपकते ही 16 वर्ष बीत गए। एक दिन व्यापार में बहुत−सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों के साथ घूमते देखा तो उसे उसके विवाह की चिंता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए सुयोग्य वर ढूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर−दूर के नगरों में भेजा। व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक पुत्र को देखा। वणिक का बेटा सुंदर और गुणवान था। सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक के बेटे के बारे में बताया। व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कलावती का विवाह धूमधाम से उसके साथ कर दिया। दहेज में उसने वणिक पुत्र को बहुत धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया। लीलावती ने अपने पति से कहा कि हे नाथ! आपने कलावती के विवाह पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर लेना चाहिए। पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा कि अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए जा रहा हूं। व्यापार से लौटने पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत−पूजन अवश्य करूंगा। यह कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए निकल पड़ा। व्यापारी द्वारा बार−बार व्रत का निश्चय करने और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया।

व्यापारी अपने दामाद के साथ रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे। सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का सारा धन व्यापारी की नावों में छिपा दिया। खाली हाथ चोर आराम से भाग गए। चोरों का पीछा करते हुए सैनिक व्यापारी के पास पहुंचे। उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया गया धन मिल गया। तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा ने उन दोनों को बंदीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया। श्री सत्यनारायण के प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और घर में खाने के लिए अन्न भी नहीं बचा। भूख−प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर कथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने सारी बात अपनी मां लीलावती को बताई तो लीलावती ने सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया था। लीलावती के विधिपूर्वक व्रत करने और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूरी की। उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि हे राजन! व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को रिहा कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा सारा वैभव नष्ट कर दूंगा। इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान अंर्तध्यान हो गए। प्रातः उठते ही राजा चंद्रकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई और सबने व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ देने के लिए कहा। राजा चंद्रकेतु ने तुरंत उसे व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ दिया और उनका सारा धन भी वापस कर दिया। इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकंपा से व्यापारी और उसका दामाद दोनों खुशी−खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।

श्री सूतजी बोले कि उस व्यापारी ने अपने दामाद के साथ शुभमुहूर्त में नावों द्वारा रत्नसारपुर से प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करने के बाद व्यापारी ने एक नगर के किनारे नावों को रोककर भोजन किया और फिर दोनों विश्राम करने लगे। तभी श्री सत्यनारायण भगवान व्यापारी की परीक्षा लेने के इरादे से साधु के रूप में उसके पास पहुंचे और पूछा कि हे वणिक तेरी नावों में क्या सामान रखा हुआ है? व्यापारी ने मन ही मन सोचा कि साधु अवश्य ही कुछ मांगने की इच्छा से सामान के बारे में पूछ रहा है। यह सोचकर व्यापारी ने झूठ बोला कि हे साधु महाराज मेरी नावों में तो बेल और पत्ते भरे हुए हैं। व्यापारी के झूठे वचन सुनकर सत्यनारायण भगवान ने क्रोधित होते हुए कहा कि हे वैश्य, जो तुमने कहा है वही सत्य होगा। इतना कहकर साधु रूपधारी सत्यनारायण भगवान कुछ दूर जाकर अंतर्ध्यान हो गए।

उधर व्यापारी साधु को खाली हाथ लौटाकर प्रसन्न हुआ लेकिन जब व्यापारी ने अपनी नावों में धन की जगह बेल और पत्ते भरे हुए देखे तो वह जोर−जोर से विलाप करने लगा और मन ही मन अपने झूठ बोलने पर पश्चाताप करने लगा। रोते−रोते व्यापारी बेहोश हो गया। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो वह फिर विलाप करने लगा तो उसके दामाद ने कहा कि यह सब साधु के शाप के कारण हुआ है इसलिए वही साधु इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकते हैं। दामाद की बात सुनकर व्यापारी साधु की तलाश में चल दिया। कुछ देर ढूंढ़ने पर सत्यनारायण भगवान मिल गए। व्यापारी ने साधु के चरणों में गिरकर झूठ बोलने के लिए माफी मांगी तो सत्यनारायण भगवान बोले कि हे वणिक पुत्र! तूने बार−बार सत्यनारायण भगवान अर्थात मेरी पूजा करने के लिए कहा लेकिन पूजा कभी नहीं की। व्यापारी ने तब हाथ जोड़कर कहा कि हे भगवन् आप तो दीन−दुखियों के कष्ट दूर करने वाले हैं। सबकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। मेरी इस गलती को क्षमा करें। मैं सदैव आपका व्रत और पूजन करूंगा आप मुझ पर अनुकंपा करें। व्यापारी की क्षमा याचना सुनकर साधु महाराज ने उसे क्षमा कर दिया। उसी समय व्यापारी की नावों में भरे हुए बेल और पत्ते धन−धान्य में परिवर्तित हो गए। व्यापारी ने अपने सेवकों के साथ अगले दिन श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करके उनकी पूजा की। सबको प्रसाद वितरित कर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। उसके बाद व्यापारी ने अपने नगर की ओर प्रस्थान किया।

अपने नगर में पहुंचकर व्यापारी ने एक सेवक को अपने घर भेजा। सेवक ने उसके घर पहुंचकर उसकी पत्नी लीलावती को सूचित किया। उस समय लीलावती और कलावती दोनों श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रही थीं। पति और दामाद के लौट आने का समाचार सुनकर लीलावती ने पूजा करके प्रसाद ग्रहण किया और कलावती से कहा कि बेटी मैं नदी किनारे जा रही हूं। तू घर का काम पूरा करके आ जाना। यह कहकर लीलावती नदी की ओर चल पड़ी। परंतु कलावती पति से मिलने की खुशी में प्रसाद ग्रहण किए बिना ही घर से निकल कर नदी किनारे जा पहुंची। उसके प्रसाद ग्रहण न करने के कारण सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो उठे। उन्होंने व्यापारी की नावों को नदी में डुबो दिया। अपने पति को वहां न देख कलावती ने जोर−जोर से रोना शुरू कर दिया। तब व्यापारी ने कहा कि पुत्री अवश्य ही तुझसे कोई भूल हुई है। उस भूल के कारण श्री सत्यनारायण भगवान ने तुझे यह दंड दिया है। तब व्यापारी ने सत्यनारायण भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान मेरे परिवार के किसी स्त्री−पुरुष से कोई भूल हुई हो तो उसे अवश्य क्षमा कर देना। तभी आकाशवाणी हुई 'हे वणिक−पुत्र! तेरी कन्या मेरा प्रसाद ग्रहण किए बिना ही चली आई। यदि अब घर पहुंचकर तेरी कन्या प्रसाद ग्रहण करके वापस आए तो उसे पति के दर्शन होंगे और डूबी हुई नावें भी ऊपर आ जाएंगी। कलावती ने वैसा ही किया। उसके प्रसाद ग्रहण करके वापस लौटने पर नावें जल के ऊपर आ गईं। दामाद भी सुरक्षित नदी से निकल गया। घर लौटकर व्यापारी ने अपने परिवार और बंधु−बांधवों के साथ मिलकर विधि के अनुसार श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हुईं और वह आनंदपूर्वक जीवनयापन करता हुआ अंत में विष्णुलोक को चला गया।

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श्री सूतजी बोले कि हे ऋषियों−मुनियों! मैं और भी कथा सुनाता हूं। कौशलपुर में एक राजा था तुंगध्वज। उसकी प्रजा उसकी छत्रछाया में आनंदपूर्वक रह रही थी। राजा तुंगध्वज अपनी प्रजा के सुख−दुख का बहुत ध्यान रखता था। लेकिन एक बार उसने भी सत्यनारायण भगवान का प्रसाद ग्रहण नहीं किया। तब सभी को चिंताओं से मुक्त करके, धन−संपत्ति से भंडार भरकर प्राणियों को जीवन के सभी सुख देने वाले श्री सत्यनारायण भगवान ने राजा को प्रसाद ग्रहण न करने का दंड दिया। एक दिन राजा तुंगध्वज जंगल में हिंसक पशुओं का शिकार करने निकला था। तेजी से घोड़ा दौड़ाकर शिकार का पीछा करते हुए वह अपने सैनिकों से अलग हो गया और देर तक हिंसक जानवरों का शिकार किया। इसलिए कुछ देर विश्राम करने की इच्छा से वह एक बड़े वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया। पास में ही कुछ चरवाहे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे। राजा ने उनके पास से गुजरते हुए सत्यनारायण भगवान को नमस्कार नहीं किया। चरवाहों ने राजा को पूजा के बाद प्रसाद दिया तो राजा ने उन्हें छोटे लोग समझकर प्रसाद ग्रहण नहीं किया और घोड़े पर सवार होकर अपने नगर की ओर चल दिया। राजा जब नगर में पहुंचा तो देखा कि उसका सारा वैभव तथा धन−संपत्ति आदि नष्ट हो गया है। श्री सत्यनारायण भगवान के प्रकोप से राजा निर्धन हो गया। तब राज ज्योतिषी ने राजा से कहा कि महाराज आपसे अवश्य ही कोई भूल हुई है। अगर आप उस भूल का प्रायश्चित कर लें तो सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। राजा को तुरंत अपनी भूल का स्मरण हो आया। अतः मंदिर में जाकर राजा ने श्री सत्यनारायण भगवान से क्षमा मांगी और उनकी पूजा की। पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकंपा से चमत्कार हुआ। राजा का खोया वैभव पुनः लौट आया। श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकंपा से जीवन के सभी सुखों का भोग करते हुए अंत में राजा तुंगध्वज बैकुण्ठ धाम को गया और मोक्ष को प्राप्त किया। श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत−पूजन को जो भी मनुष्य करता है, उसके सभी दुख और चिंताएं नष्ट हो जाती हैं। उसके घर में धन−धान्य के भंडार भरे रहते हैं। निःसंतानों को संतान की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाओं को प्राप्त कर अंत में मोक्ष को प्राप्त कर सीधे बैकुण्ठ धाम को जाता है।

श्री सूतजी ने कुछ पल रुककर कहा कि हे श्रेष्ठ मुनियों! श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत को पूर्व जन्म में जिन लोगों ने किया है उन्हें दूसरे जन्म में सभी तरह से सुख प्राप्त हुए। वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने पूर्वजन्म में सत्यनारायण भगवान का विधिवत व्रत किया तो दूसरे जन्म में सुदामा के रूप में भगवान की पूजा करते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त किया। उल्कामुख राजा अगले जन्म में राजा दशरथ के रूप में मोक्ष को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को गए। उन्होंने बताया कि व्यापारी ने अगले जन्म में अपने पुत्र को आरे से चीरकर भगवान की अनुकंपा से बैकुण्ठ को प्राप्त किया। राजा तुंगध्वज अगले जन्म में मनु के रूप में जन्म लेकर भगवान का पूजा−पाठ करते हुए बैकुण्ठ धाम को गए। हे ऋषि−मुनियों! श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत और पूजन मनुष्य को सभी चिंताओं से मुक्त करता है, धन−संपत्ति के भंडार भरकर अंत में जन्म−जन्मांतर के चक्रव्यूह से मुक्ति दिलाकर मोक्ष प्रदान करता है।

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा सम्पूर्णम्।।

-शुभा दुबे

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