- |
- |
शिव भक्त हैं तो जरूर दर्शन करें लखनऊ शहर के प्रसिद्ध शिवालयों के
- विंध्यवासिनी सिंह
- अक्टूबर 30, 2020 15:52
- Like

लखनऊ के गोमती नदी के तट पर 'कौण्डिन्य घाट' है, जिसे कुड़िया घाट भी कहा जाता है। यह स्थान प्राचीन समय में कौण्डिन्य ऋषि का आश्रम था, इसलिए इसे कौण्डिन्य घाट के नाम से जाना जाता है। ऋषि के आश्रम के पास ही 'कोनेश्वर महादेव' का मंदिर स्थित है।
भगवान शिव के विषय में यह बात प्रचलित है कि वो बहुत जल्दी अपने भक्तों से प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें प्रसन्न करने के लिए किसी विशेष आयोजन की जरुरत भी नहीं पड़ती है। कोई सच्चा भक्त अगर सोमवार के दिन सच्चे मन से भगवान शिव की आराधना ही कर ले तो उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है। यही कारण है कि हर शहर में, गाँव में छोटा-बड़ा शिवालय आपको मिल ही जायेगा।
इसे भी पढ़ें: 'जोता वाली मंदिर' जहाँ होती है हर मुराद पूरी, जानें इस मंदिर की महत्ता
ऐसे में आज हम आपको नवाबों के शहर लखनऊ स्थित शिवालयों के बारे में बताएंगे, जिनकी महिमा अपरम्पार है।
श्री 'कोनेश्वर महादेव'
लखनऊ के गोमती नदी के तट पर 'कौण्डिन्य घाट' है, जिसे कुड़िया घाट भी कहा जाता है। यह स्थान प्राचीन समय में कौण्डिन्य ऋषि का आश्रम था, इसलिए इसे कौण्डिन्य घाट के नाम से जाना जाता है। ऋषि के आश्रम के पास ही 'कोनेश्वर महादेव' का मंदिर स्थित है। इस मंदिर को स्थानीय लोग को 'कोनेश्वर शिवाला' के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि यह शिवाला स्वयंभू शिवलिंग वाले शिव का स्थान है और इस मंदिर में स्थित शिवलिंग सदियों पुराना है। इस मंदिर का शिवलिंग जमीन के नीचे भी उतना ही धंसा हुआ है, जितना ऊपर दिखता है। इसके साथ ही यह खंडित शिवलिंग अपनी प्राचीनता और भव्यता की गाथा स्वयं बताता है।
बड़ा शिवाला
लखनऊ के रानी कटरा स्थित बड़ा शिवाला शिव भक्तों को अपनी ओर बखूबी आकर्षित करता है। बता दें कि रानी कटरा हिंदुओं की घनी आबादी वाला क्षेत्र है और यहीं कश्मीरियों द्वारा निर्मित यह मंदिर भी है जिसे 'बड़ा शिवाला' के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में स्थित सहस्त्र लिंग प्रतिमा सारे भारत में कहीं और आपको देखने को नहीं मिलेगी। वहीं कश्मीरी लोगों द्वारा निर्मित किए जाने की वजह से इस मंदिर के प्रांगण में आपको 'संकटा देवी', जो कि कश्मीरियों की आराध्य देवी हैं, उनकी भी एक प्रतिमा दिखेगी और ठाकुर द्वारे में शिव-पार्वती की प्रतिमा स्थापित की गई है। इस मंदिर को लेकर कहा जाता है कि यह 9वीं सदी से पहले का निर्मित है।
मनकामेश्वर मंदिर
गोमती नदी के ही तट पर बायीं तरफ मनकामेश्वर महादेव के मंदिर की स्थापना की गई है। यह मंदिर बेहद प्राचीन है और इसकी महत्ता भी इसीलिए बहुत है। इस मंदिर के शिखर पर 33 स्वर्ण कलश स्थापित किए गए हैं, तो वहीं इस मंदिर की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि प्राचीन समय में राजा हिरण्यधनु ने जब अपने शत्रु पर विजय प्राप्त की तो उसी की खुशी में उन्होंने 'मनकामेश्वर मंदिर' की स्थापना की।
देवरानी-जेठानी शिवाला
लखनऊ में स्थित इन दोनों शिवालयों को लेकर लोगों में बहुत क्रेज है और कहा जाता है कि इन दोनों मंदिरों का निर्माण किसी राजघराने की दो बहुएं जो आपस में देवरानी-जेठानी लगती थीं, ने करवाया। इसी कारण इस मंदिर का नाम 'देवरानी-जेठानी' शिवाला पड़ गया। बता दें कि यह मंदिर मोहान रोड के बाएं और सरोसा-भरोसा नाम के मशहूर गांव में है। इसके पास ही नकटी बावली है और उसी के पीछे इस सुंदर शिव-मंदिर का निर्माण कराया गया है।
इसे भी पढ़ें: मां बम्लेश्वरी देवी शक्तिपीठ, मां बगुला मुखी अपने जागृत रुप में पहाड़ी पर विराजमान
सिद्धनाथ जी का शिवाला
सिद्धनाथ मंदिर को लेकर कहा जाता है कि यह मंदिर मनोकामना को पूर्ण करने वाला मंदिर है। इस मंदिर में जो भी सच्चे मन से अपनी मनोकामना मांगता है और महामृत्युंजय का जाप करता है तो उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है। यह मंदिर रकाबगंज से नक्खास जाने वाली नादान महल रोड पर स्थित है। इस मंदिर में लगे शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि यह शिवलिंग लंबे समय से भूमिगत था जिस पर लोगों की नजर पड़ी और स्वयंभू शिवलिंग को स्वयंभू विग्रह की तरह स्थापित कर दिया गया। तभी से यह मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है।
इन मंदिरों के अलावा भी लखनऊ में आपको कई शिव मंदिर मिलेंगे, जिनमें लोगों की आस्था अपरम्पार है। इनमें प्रमुख नाम हैं श्री बुद्धेश्वर महादेव, श्रीकल्याणगिरि मंदिर, महाराजा बालकृष्ण का शिवाला, सोनी शाह का शिवाला आदि।
तो अगर आप लखनऊ जाएँ तो इन शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन करना न भूलें।
विंध्यवासिनी सिंह
संत रविदास ने लोगों को कर्म की प्रमुखता और आंतरिक पवित्रता का संदेश दिया
- सुखी भारती
- फरवरी 27, 2021 11:17
- Like

निःसंदेह संत रविदास जी दैवीय अवतार तो थे ही। लेकिन तब भी वे गुरू धारण करने की सनातन परंपरा व सिद्धांत की अवहेलना नहीं करते। और स्वामी रामानंद जी की शरणागत हो गुरू शिष्य−परंपरा के महान आदर्श का निर्वहन करते हुए इसे संसार में स्थापित करते हैं।
समाज को जब चारों ओर से अज्ञान की अंधकारमय चादर ने अपनी मजबूत जकड़न में जकड़ा हो। यूं लगता हो कि धरती रसातल में धंस गई है और दैहिक, दैविक व भौतिक तीनों तापों के तांडव से समस्त मानव जाति त्रस्त हो चुकी है। तो यह कैसे हो सकता है कि ईश्वर यह सब कुछ एक मूक दर्शक बनकर देखता रह जाए। कष्टों की अमावस्या को मिटाने हेतु प्रभु अवश्य ही पूर्णिमा के चाँद को आसमां के मस्तक पर सुशोभित करते हैं। ऐसे ही दैवीय पूर्णिमा के चाँद का इस धरा धाम पर उदय हुआ था। जिन्हें संसार संत रविदास जी के नाम से जानता है। काशी का वह गाँव संवत 1433 को ऐसा धन्य महसूस कर रहा था मानो उस जैसा कोई और हो ही न। माघ मास की पूर्णिमा भी खूब अंगड़ाइयां लेकर अपना आशीर्वाद लुटा रही थी। पवन तो मानों हज़ारों−हज़ारों इत्र के पात्रों में नहा कर सुगंधित होकर बह रही थी। कारण कि श्री रविदास जी ही वह महान दैवीय शक्ति थे जो मानव रूप में इस धरा को पुनीत करने हेतु अवतरित हुए थे। उनके जन्म के साक्ष्य निम्नलिखित वाणियों में भी मिलते हैं−
इसे भी पढ़ें: भारतीय संत परम्परा और संत-साहित्य के महान हस्ताक्षर हैं संत रैदास
चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।।
माता करमा और पिता राहु को तो भान भी नहीं था कि उनकी कुटिया में साक्षात भानू का प्रकटीकरण हुआ है। भानू तो छोडि़ए उन्हें तो वे एक अदना सा जुगनूं भी प्रतीत नहीं हो रहे थे। पिता चाहते तो थे कि बेटा संसार के समस्त दाँव−पेंच सीखे। घर परिवार चलाने में हमारा हाथ बंटाए। लेकिन वे क्या जाने कि रविदास जी तो प्रभु के पावन, पुनीत व दिव्य कार्य को प्रपन्न करने हेतु अपना हाथ बंटाने आए हैं। संसार के दाँव−पेंच सीखने नहीं अपितु स्वयं को ही प्रभु के दाँव पर लगाने आए हैं। क्योंकि मानव जीवन का यही तो एकमात्र लक्ष्य है कि श्रीराम से मिलन किया जाए। वरना संसार के रिश्ते−नाते, धन संपदा तो सब व्यर्थ ही हैं, जिन्हें एक दिन छोड़कर हमें अनंत की यात्रा पर निकल जाना है। पत्नी जो जीवित पति को तो खूब प्यार करती है लेकिन प्रभु शरीर से क्या निकले कि वही पत्नी पति की लाश को देख कर भूत−भूत कहकर भाग खड़ी होती है−
ऊचे मंदर सुंदर नारी।। एक घरी पुफनि रहनु न होई।।
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी।। जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी।।
भाई बंध् कुटुम्ब सहेरा।। ओइ भी लागे काढु सवेरा।।
घर की नारि उरहि तन लागी।। उह तउ भूतु−भूतु कर भागी।।
कहै रविदास सभै जगु लूटिआ।। हम तउ एक रामु कहि छूटिआ।।
निःसंदेह संत रविदास जी दैवीय अवतार तो थे ही। लेकिन तब भी वे गुरू धारण करने की सनातन परंपरा व सिद्धांत की अवहेलना नहीं करते। और स्वामी रामानंद जी की शरणागत हो गुरू शिष्य−परंपरा के महान आदर्श का निर्वहन करते हुए इसे संसार में स्थापित करते हैं।
यह वह समय था जब समाज में जाति पाति प्रथा का विष जन मानस की रग−रग में फैला हुआ था। जिसे निकालना अति अनिवार्य था। काशी नरेश ने जब एक बार सामूहिक भंडारे का आयोजन करवाया तो उसमें असंख्य साधु−संत, गरीब−अमीर व उच्च कोटि के ब्राह्मण सम्मिलति हुए। परंतु काशी नरेश उच्च जाति के प्रभाव में थे तो सर्वप्रथम जाति विशेष को भोजन करवाना था। श्री रविदास जी भी उनकी पंक्ति में बैठ गए। उच्च जाति वर्ग ने इसका विरोध किया। श्री रविदास जी तो मान−सम्मान से सर्वदा विलग थे। इसलिए वे सहज ही उक्त पंक्ति से उठ गए। विशेष वर्ग भले ही संतुष्ट हुआ और पुनः भोजन करने बैठ गया। लेकिन तभी एक महान आश्चर्य घटित हुआ। पंक्ति में बैठे प्रत्येक विप्र के बीच श्री रविदास जी बिराजे दर्शन दे रहे थे। और भोजन ग्रहण कर रहे थे। सभी यह कौतुक देख कर हैरान थे। और रविदास जी मुस्कुराते हुए मानो कह रहे थे कि हे प्रतिष्ठित वर्ग के लोगों, माना कि मेरी जाति−पाति सब नीच है। मैं कोई विद्वान भी नहीं लेकिन तब भी उसने आप सब के मध्य लाकर मुझे सुशोभित कर दिया क्योंकि मैं अहंकार की नहीं निरंकार की शरणागत हूँ−
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जन्मु हमारा।।
तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा।।
श्री रविदास जी की यह लीला देख समाज का एक बड़ा वर्ग उनका अनुसरण करने लगा। चितौड़ की महारानी मीरा बाई भी उन्हीं में से एक थी। जिन्होंने गुरू रविदास जी से योग−विद्या हासिल कर श्री कृष्ण के वास्तविक स्वरूप को समझा। वे कहती भी हैं−
गुरू रैदास मिले मोहि पूरन, धूरि से कलम भिड़ी।
सतगुरू सैन दई जब आके, जोति से जोति मिली।।
श्री रविदास जी की ख्याति दिन−प्रतिदिन भास्कर की किरणों की भांति निरंतर सब और फैलती जा रही थी। एक दिवस जब श्री रविदास जी बैठे जूते गांठ रहे थे। तो वहाँ से गुजर रहे एक पुजारी जी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने वैसे ही श्री रविदास जी को बोल दिया कि रविदास तुम क्या यहाँ जूते गांठने में लगे हो। जीवन में कभी गंगा स्नान नहीं करोगे क्या? हालांकि श्री रविदास जी का जूते गांठना तो सिर्फ एक बहाना था। असल में गांठा तो आत्मा को प्रमात्मा से जा रहा था। ऐसा भी नहीं कि श्री रविदास जी गंगा स्नान के विरोधी थे। अपितु यह कहो कि वे इसके पक्षधर थे। क्योंकि यूं धर्मिक स्थलों पर किया जाने वाला सामूहिक स्नान समाज को एक साथ जोड़े रखता है। गंगा मईया जिन पर्वत शिखरों से निकलती हैं, वहाँ की असंख्य दुर्लभ व गुणकारी जड़ी−बूटियों के रस भी गंगा के पावन जल में घुले हुए होते हैं। जिस कारण गंगा स्नान अनेकों शरीरिक बीमारियों का इलाज का साधन हैं।
इसे भी पढ़ें: सामाजिक एकता का संदेश देते थे संत रविदास
गंगा स्नान और गंगा पूजन एक सुंदर संस्कार जनक है कि हमें अपनी नदियों व अन्य जल−ड्डोतों का संरक्षण एवं संर्वधन करना चाहिए। लेकिन इसी गंगा स्नान से जब मिथ्या धारणाएं जुड़ जाती हैं और गंगा स्नान अहंकार की उत्पत्ति का साधन हो जाए तो हम वास्तविक लाभ से वंचित हो जाते हैं। और वे पुजारी अहंकार रूपी इसी वृत्ति के धारक थे। उन्हें दिशा दिखाने हेतु श्री रविदास जी एक लीला करते हैं। पुजारी जी को एक दमड़ी देकर कहते हैं कि मैं तो नहीं जा पाऊँगा। लेकिन कृपया मेरा यह सिक्का गंगा मईया को अर्पित कर दीजिएगा। हाँ यह बात याद रखना कि मेरी दमड़ी गंगा मईया को तभी अर्पित करना जब वे स्वयं अपना पावन कर कमल बाहर निकाल कर इसे स्वीकार करें। और उन्हें कहना कि वे मेरे लिए अपना कंगन भी दें। उनकी यह बात सुनकर भले ही पुजारी ने श्री रविदास जी को बावले की श्रेणी में रखा हो। लेकिन उसके आश्चर्य की तब कोई सीमा न रही जब सचमुच गंगा मईया स्वयं श्री रविदास जी की दमड़ी को अपने पावन हस्त कमल से स्वीकार किया। और बदले में एक कंगन भी दिया।
अच्छा होता अगर पुजारी यह सब देख श्री रविदास जी की दिव्यता व श्रेष्ठता को समझ पाता। लेकिन वह तो कंगन देखकर बेईमान ही हो गया। और श्री रविदास जी को देने की बजाय अपनी पत्नि को वह कंगन दे देता है। उसकी पत्नि रानी की दासी थी। और नित्य प्रति रानी की सेवा हेतु महल में जाया करती थी। जब वो उस कंगन पहन कर रानी के समक्ष गई तो वह कंगन पर इतनी मोहित हुई कि पुजारी की पत्नि से मुँह मांगी कीमत पर उससे कंगन ले लिया। और उसे कहा कि हमें शाम तक इस कंगन के साथ वाला दूसरा जोड़ा भी चाहिए। ताकि मैं अपनी दोनों कलाइयों में कंगन पहन सकूं। अगर तूने मुझे दूसरा कंगन लाकर नहीं दिया तो तुम्हारे लिए मृत्यु दंड निश्चित है। पुजारी की पत्नि ने जब यह वृतांत घर आकर अपने पति को बताया तो उसके तो हाथ पैर ही फूल गए। क्योंकि ऐसा सुंदर दिव्य कंगन तो केवल गंगा मईया के ही पास था। और मईया भला मुझे अपना कंगन क्यों देंगी? यह तो सिर्फ रविदास जी के ही बस की बात है। बहुत सोचने के बाद पुजारी ने रविदास जी के समक्ष पूरा घटनाक्रम रखने में ही समझदारी समझी। और कहा कि कृपया मुझे एक दमड़ी और देने का कष्ट करें। ताकि मैं गंगा मईया से दूसरा कंगन लाकर मृत्यु दंड से मुक्ति पा सकूं।
श्री रविदास जी पुजारी की बात सुनकर मुस्कुरा पड़े। और बोले विप्रवर कहाँ आप इतनी मशक्कत करते फिरेंगे। देखिए मेरे इस कठौते में भी तो जल है। और गंगा जी में जल है। अगर गंगा जल से मईया प्रकट हो सकती है तो मेरे इस कठौते के जल में क्या कमी है? आप डालिए कठौते में हाथ, विश्वास कीजिए गंगा मईया भीतर ही आपके लिए कंगन लिए बैठी होंगी। हाथ डालकर स्वयं ही निकाल लीजिए। पुजारी को यह सुनकर रविदास जी पर क्रोध तो बहुत आया लेकिन उनकी बात मानने के अलावा उसके पास कोई चारा भी तो नहीं था। पुजारी ने कठौते में हाथ डाला तो एक बार फिर महान आश्चर्य घटित हुआ। पुजारी की उंगली में सचमुच कंगन अटका। जब उसने अपना हाथ बाहर खींचा तो उसकी हैरानी की कोई हद न रही। क्योंकि उसके हाथ में एक कंगन नहीं अपितु कंगन में अटके अनेकों कंगनों की एक लंबी श्रृंखला थी। श्री रविदास जी बोले कि अरे विप्रवर आपको तो सिर्फ एक की कंगन चाहिए था न। बाकी मईया के पास ही रहने दें। श्री रविदास जी के भक्ति भाव के आगे पुजारी का मिथ्या अहंकार टूटकर चूर−चूर हो गया। वह श्री रविदास जी के चरणों में गिर कर सदा के लिए उनकी शरणागत हो गया। और तभी से यह कहावत जगत विख्यात हो गई−'मन होवे चंगा तो कठौती में गंगा।'
- सुखी भारती
Related Topics
guru ravidas jayanti 2021 date guru ravidas jayanti 2021 know all about guru ravidas who is guru ravidas संत रविदास जयंती 2021 संत रविदास जयंती तिथि संत रविदास जयंती कब है कौन थे संत रविदास ravidas jayanti sant ravidas jayanti sant ravidas ravidas jayanti 2021 guru ravidas jayanti kab hai Religion संत रविदास रैदास संत रविदास जयंती गुरु रविदास जी की जयंती श्री रविदाससामाजिक एकता का संदेश देते थे संत रविदास
- प्रज्ञा पाण्डेय
- फरवरी 27, 2021 11:01
- Like

संत रविदास एक महान संत थे। उनके बारे में एक रोचक कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक बार एक पंडित जी गंगा स्नान के लिए उनके पास जूते खरीदने आए। पंडित जी ने गंगा पूजन की बात रविदास को बतायी।
आज रविदास जयंती है। सतगुरु रविदास भारत के उन महान संतों में से एक हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सारे संसार को एकता, भाईचारा का संदेश दिया। उन्होंने जीवन भर समाज में फैली कुरीतियों को समाप्त करने का प्रयास किया, तो आइए हम आपको संत रविदास को कुछ बातें बताते हैं।
इसे भी पढ़ें: संत रविदास ने समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई थी
जानें गुरु रविदास जयंती के बारे में
रविदास जयंती प्रमुख त्यौहार है। इस साल गुरु रविदास जयंती 27 फरवरी को है। माघ पूर्णिमा के दिन हर साल गुरु रविदास जी की जयंती मनायी जाती है। संत शिरोमणि रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत प्रसंगों से भरा है, जो दया, प्रेम, क्षमा, धैर्य, सौहार्द, समानता, सत्यशीलता और विश्व-बंधुत्व जैसे गुणों की प्रेरणा देते हैं। 14वीं सदी के भक्ति युग में माघी पूर्णिमा के दिन रविवार को काशी के मंडुआडीह गांव में रघु व करमाबाई के पुत्र रूप में इन्होंने जन्म लिया। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास किया। रविदास जी के सेवक इनको " सतगुरु", "जगतगुरू" आदि नामों से भी पुकारते हैं।
जन्म तथा जाति आधारित वर्ण व्यवस्था के विरूद्ध थे संत रविदास
संत रविदास अपने समकालीन चिंतकों से पृथक थे उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। वह जन्म तथा जाति आधारित वर्ण व्यवस्था के भी विरूद्ध थे।
संत रविदास के बारे में जानें रोचक कहानी
संत रविदास एक महान संत थे। उनके बारे में एक रोचक कथा भी प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक बार एक पंडित जी गंगा स्नान के लिए उनके पास जूते खरीदने आए। पंडित जी ने गंगा पूजन की बात रविदास को बतायी। उन्होंने पंडित महोदय को बिना पैसे लिए ही जूते दे दिए और निवेदन किया कि उनकी एक सुपारी गंगा मैया को भेंट कर दें। संत की निष्ठा इतनी गहरी थी कि पंडित जी ने सुपारी गंगा को भेंट की तो गंगा ने खुद उसे ग्रहण किया। संत रविदास के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग यह है कि एक साधु ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, चलते समय उन्हें पारस पत्थर दिया और बोले कि इसका प्रयोग कर अपनी दरिद्रता मिटा लेना। कुछ महीनों बाद वह वापस आए, तो संत रविदास को उसी अवस्था में पाकर हैरान हुए। साधु ने पारस पत्थर के बारे में पूछा, तो संत ने कहा कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रखकर गए थे।
सामाजिक एकता पर बल देते थे संत रविदास
संत रविदास बहुत प्रतिभाशाली थे तथा उन्होंने विभिन्न प्रकार के दोहों तथा पदों की रचना की। उनकी रचनाओं की विशेषता यह थी कि उनकी रचनाओं में समाज हेतु संदेश होता था। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा जातिगत भेदभाव को मिटा कर सामाजिक एकता को बढ़ाने पर बल दिया। उन्होंने मानवतावादी मूल्यों की स्थापना कर ऐसे समाज की स्थापना पर बल दिया जिसमें किसी प्रकार का भेदभाव, लोभ-लालच तथा दरिद्रता न हो।
इसे भी पढ़ें: संत रविदास ने लोगों को कर्म की प्रमुखता और आंतरिक पवित्रता का संदेश दिया
कई नामों से जाने जाते थे संत रविदास
संत रविदास पूरे भारत में बहुत लोकप्रिय थे। उन्हें पंजाब में रविदास कहा जाता था। उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में उन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता था। बंगाल में उन्हे रूईदास के नाम से जाना जाता है। साथ ही गुजरात तथा महाराष्ट्र के लोग उन्हें रोहिदास के नाम से भी जानते थे।
बहुत दयालु प्रवृत्ति के थे संत रविदास
संत रविदास बहुत दयालु प्रवृत्ति के थे । वह बहुत से लोगों को बिना पैसे लिए जूते दे दिया करते थे। वह दूसरों की सहायता करने में कभी पीछे नहीं हटते थे। साथ ही उन्हें संतों की सेवा करने में भी बहुत आनंद आता था।
वाराणसी में है संत रविदास का मंदिर
उत्तर प्रदेश के बनासर शहर में संत रविदास का भव्य मंदिर है तथा वहां सभी धर्मों के लोग दर्शन करने आते हैं।
प्रज्ञा पाण्डेय
Related Topics
guru ravidas jayanti 2021 date guru ravidas jayanti 2021 know all about guru ravidas who is guru ravidas संत रविदास जयंती 2021 संत रविदास जयंती तिथि संत रविदास जयंती कब है कौन थे संत रविदास ravidas jayanti sant ravidas jayanti sant ravidas ravidas jayanti 2021 guru ravidas jayanti kab hai Religion संत रविदास रैदास संत रविदास जयंती गुरु रविदास जी की जयंती रविदास जयंती गुरु रविदास जयंतीGyan Ganga: गीता में भगवान ने अर्जुन को बताया था- संपूर्ण जगत मुझमें ही ओतप्रोत है
- आरएन तिवारी
- फरवरी 26, 2021 17:44
- Like

परंतु जब सब सहारा छोड़कर अनन्य भाव से प्रभु को पुकारा तब प्रभु ने उसकी लाज बचाई। ऐसे ही गजेंद्र ने जब तक दूसरे हाथियों और हथिनियों का सहारा लिया, अपने बल का सहारा लिया, तब तक वह कई वर्षों तक ग्राह (crocodile) से लड़ता रहा और दुख पाता रहा।
गीता प्रेमियो! किसी का भी उदय, अचानक नहीं होता, सूरज भी धीरे-धीरे निकलता है और ऊपर उठता है। जिसमें धैर्य और तपस्या होती है, वही संसार को प्रकाशित करता है।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं---
पिछले अंक में हमने पढ़ा-- यदि कोई साधक किसी कारणवश अपनी साधना में सफल नहीं हो पाता, तो भगवान उसकी अधूरी साधना पूरी करने के लिए फिर से शुद्ध श्रीमंतों के घर में जन्म देते हैं। अब आगे के श्लोक में भगवान खुद को इस सम्पूर्ण जगत का मूल कारण बताते हुए कहते हैं----
इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: अर्जुन ने चंचल मन को स्थिर करने का उपाय पूछा तो भगवान ने क्या कहा ?
श्री भगवान उवाच
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव॥
हे धनंजय! मेरे सिवाय इस जगत का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता। मैं ही इस सम्पूर्ण संसार का महकारण हूँ। जैसे मोती सूत के धागे की माला में पिरोए हुए होते हैं, वैसे ही यह सम्पूर्ण जगत मुझमें ही ओत-प्रोत है। यह संसार मुझसे ही उत्पन्न होता है, मुझमें ही स्थित रहता है और मुझमें ही लीन हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि– भगवान के सिवाय संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं है।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥
अब, भगवान प्रकृति के कण-कण में अपनी सत्ता बताते हुए कहते हैं—
हे कुन्तीपुत्र! मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, समस्त वैदिक मन्त्रो में ओंकार हूँ, (इसीलिए प्रत्येक मंत्र का आरंभ ॐ से किया जाता है) आकाश में ध्वनि हूँ और मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ भी मैं ही हूँ।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥
मैं पृथ्वी में पवित्र गंध हूँ, (पृथ्वी गंध तन्मात्रा से उत्पन्न होती है) अग्नि में उष्मा हूँ, समस्त प्राणियों में वायु रूप में प्राण हूँ और तपस्वियों में तपस्या भी मैं ही हूँ।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-- हे पृथापुत्र पार्थ! तुम मुझको ही सभी प्राणियों का सनातन कारण और अनादि-अनन्त बीज समझो। मैं ही बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वी मनुष्यों का तेज हूँ। देवकीनन्दन वासुदेव ही सम्पूर्ण विश्व के कारण हैं।
इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था ज्ञानयोग और कर्मयोग में से क्या सर्वश्रेष्ठ है
संसार के रहते हुए भी वे सब में हैं, संसार के मिटने पर भी वे नहीं मिटते बल्कि सदा विद्यमान रहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि सब कुछ भगवान ही हैं बाकी सब प्रपंच है। इसको समझने के लिए शास्त्र और उपनिषदों में सोना, मिट्टी और लोहे का बहुत ही सुंदर उदाहरण दिया गया है। जैसे- सोने से बने हुए सब गहने, आभूषण सोना ही है, मिट्टी से बने हुए सब बर्तन मिट्टी ही हैं और लोहे से बने हुए सब अस्त्र-शस्त्र लोहा ही हैं, ठीक वैसे ही भगवान से उत्पन्न (बना) हुआ सब संसार भगवान ही हैं।
अब आगे के श्लोक में भगवान अपने को न जान सकने में कारण बताते हुए कहते हैं--
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
सत, रज, और तम इन तीनों गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना असंभव है। मनुष्य मेरी इस माया में चिपके रहते हैं और भोग, संग्रह की इच्छा छोड़ नहीं पाते। मनुष्य अपने को कभी सुखी और कभी दुखी, कभी समझदार और कभी बेसमझ, कभी निर्बल और कभी बलवान आदि मानकर मेरी इस माया में तल्लीन रहते हैं। (विष्णुर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत) परन्तु जो मनुष्य मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे मेरी इस माया को आसानी से पार कर जाते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि केवल मेरी तरफ रहती है वे मेरी माया में नहीं फँसते।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करने वाले मेरे चार प्रकार के भक्त मेरा स्मरण करते हैं। (१) आर्त- दुख से निवृत्ति चाहने वाले, (२) अर्थार्थी- धन-सम्पदा चाहने वाले (३) जिज्ञासु- केवल मुझे जानने की इच्छा वाले और (४) ज्ञानी- मुझे ज्ञान सहित जानने वाले। आइए, इसको थोड़ा समझ लें।
आर्त भक्त:- प्राण-संकट आने पर संकट दूर करने के लिए केवल भगवान को पुकारते हैं, कष्ट का निवारण केवल भगवान से ही चाहते हैं, दूसरे किसी से नहीं, वे आर्त भक्त कहलाते हैं। आर्त भक्तों में द्रौपदी और गजेन्द्र का दृष्टांत ठीक नहीं लगता है क्योंकि इन दोनों ने अपनी रक्षा के लिए अन्य उपायों का भी सहारा लिया था। चीर-हरण के समय जब तक द्रौपदी भीष्म पितामह और पांचों पांडवों (पंच पतियों) पर भरोसा करती रही, तब तक वह रोती-बिलखती और कष्ट पाती रही। परंतु जब सब सहारा छोड़कर अनन्य भाव से प्रभु को पुकारा तब प्रभु ने उसकी लाज बचाई। ऐसे ही गजेंद्र ने जब तक दूसरे हाथियों और हथिनियों का सहारा लिया, अपने बल का सहारा लिया, तब तक वह कई वर्षों तक ग्राह (crocodile) से लड़ता रहा और दुख पाता रहा। सब सहारा छूटने के बाद जब ‘ॐ नमो भगवते’ कहकर हरि को पुकारा तब भगवान ने तुरंत आकर ग्राह का मुँह फाड़ दिया और गजेंद्र का उद्धार किया। भागवत महापुराण में शुकदेव जी कहते हैं-
इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताये थे प्रकृति के गुण और वर्णों के कर्म
“ग्राहात् विपाटित् मुखादरिणागजेन्द्रं संपश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम्”
आर्त भक्तों में अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा का दृष्टांत सही लगता है। कारण कि जब उस पर आफत आई, तब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सिवाय किसी दूसरे उपाय का सहारा नहीं लिया उसने सीधे भगवान से निवेदन किया----
पाहि पहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्यु: परस्परम्।।
हे जगतपति! यह दहकता हुआ अश्वत्थामा का बाण मेरे गर्भ को नष्ट करने के लिए दौड़ा आ रहा है, मेरी रक्षा करें। तुरंत उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट होकर भगवान ने गर्भ की रक्षा की और परीक्षित को बचाया।
अर्थार्थी:- जिनको अपनी सुख-सुविधा के लिए धन-संपत्ति प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है, परन्तु उसको वे केवल भगवान से ही चाहते हैं दूसरों से नहीं, ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं।
जिज्ञासु:- जिज्ञासु भक्त वह है जिसमें भगवान को जानने और भगवत-भक्ति की जोरदार इच्छा हो जाती है। जिज्ञासु भक्तों में उद्धवजी का नाम लिया जाता है। भगवान ने उद्धवजी को दिव्य ज्ञान का उपदेश दिया था, जो उद्धव गीता के नाम से प्रसिद्ध है।
ज्ञानी:- श्रीमद भगवतगीता में उच्च कोटि के भगवत प्रेमी को ज्ञानी माना गया है। उनके मन में किसी भी प्रकार की कोई इच्छा नहीं होती, वे केवल भगवान के प्रेम में ही मस्त रहते हैं। प्रेमी भक्तों में गोपियों का नाम प्रसिद्ध है। गोपियों ने अपने सुख का त्याग कर, प्रियतम भगवान के सुख को ही अपना सुख माना था। ज्ञानी अर्थात प्रेमी भक्त भगवान से कुछ नहीं चाहता, इसलिए वह भगवान का सर्वश्रेष्ठ भक्त है।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्री कृष्ण...
-आरएन तिवारी

