शिव पूजा में केतकी पुष्प का निषेध होता है

शुभा दुबे । Feb 23 2017 5:16PM

केतकी पुष्प ने भी ब्रह्मा के पक्ष में विष्णु को असत्य साक्ष्य दिया। इस पर भगवान शिव प्रकट हो गये और उन्होंने असत्यभाषिणी केतकी पर क्रुद्ध होकर उसे सदा के लिए त्याग दिया।

एक बार ब्रह्मा−विष्णु में परस्पर विवाद हुआ कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? उसी समय एक अखण्ड ज्योति लिंग के रूप में प्रकट हुई तथा आकाशवाणी हुई कि आप दोनों इस लिंग के ओर−छोर का पता लगायें। जो पहले पता लगायेगा, वही श्रेष्ठ होगा। विष्णु पाताल की ओर गये और ब्रह्मा ऊपर की ओर। विष्णु थककर वापस आ गये। ब्रह्माजी शिव के मस्तक से गिरे हुये केतकी पुष्प को लेकर ऊपर से लौट आये और विष्णु से कहा कि यह केतकी पुष्प मैंने लिंग के मस्तक से प्राप्त किया है। केतकी पुष्प ने भी ब्रह्मा के पक्ष में विष्णु को असत्य साक्ष्य दिया। इस पर भगवान शिव प्रकट हो गये और उन्होंने असत्यभाषिणी केतकी पर क्रुद्ध होकर उसे सदा के लिए त्याग दिया। तब ब्रह्माजी ने भी लज्जित होकर भगवान विष्णु को नमस्कार किया। उसी दिन से भगवान शंकर की पूजा में केतकी पुष्प के चढ़ाने का निषेध हो गया।

यह माया इतनी प्रबल है कि यह ज्ञानियों को भी मोह में डाल देती है। स्वयं देवाधिदेव लक्ष्मीपति भगवान विष्णु भी इस महामाया से अछूते नहीं हैं। जब देवता या मनुष्य इनकी स्तुति करते हैं, तब प्राणियों के दुख का नाश करने के लिये वे भगवती जगदम्बा प्रकट होती हैं। वे भगवती दैव के अथवा काल के अधीन नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो निमित्त मात्र हैं। उन्होंने सरस्वती, लक्ष्मी तथा पार्वती के रूप में उन्हें अपनी शक्तियां प्रदान की हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, भगवान विष्णु गरुड पर नारदजी को बैठाकर एक दिव्य रमणीय सरोवर के तट पर ले गये और उनसे उनमें स्नान करने को कहा। उस सरोवर में जैसे ही नारदजी ने डुबकी लगायी, वे एक सुंदर युवती के रूप में परिणत हो गये। सरोवर से निकलने पर उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान विस्मृत हो चुका था। भगवान विष्णु वहां से अन्तर्धयान हो चुके थे। इतने में ही तालध्वज नामक एक राजा उधर आ निकला और सुंदर स्त्री के रूप में नारदजी को देखकर उसने उनसे प्रणय याचना की। नारदजी को अपना ज्ञान तो विस्मृत हो ही चुका था, स्त्री के रूप में उन्हें आश्रण की आवश्यकता भी थी, अतः वे राजा तालध्वज की महारानी बन गये। कालान्तर में वे अनेक पुत्रों की माता भी बने। उनके अनेक पौत्र भी हुये। इस प्रकार वे मायाविमोहित हो अपने परिवार में अत्यन्त आसक्त हो गये, उनका दिव्य ज्ञान विस्मृत हो चुका था।

एक बार किसी दूसरे देश के राजा ने तालध्वज के राज्य पर आक्रमण कर दिया। भयानक संग्राम में राजा तालध्वज के सभी पुत्र और पौत्र मारे गये। स्त्री रूप धारी नारदजी ने रणभूमि में जाकर अपने पुत्र−पौत्रों को मृत देखा तो विलाप करने लगे। इतने में वृद्ध ब्राह्मण रूपधारी भगवान विष्णु ने वहां आकर उनको जगत की नश्वर गति समझाते हुए सरोवर में स्नान कर मृत पुत्र−पौत्रों को तिलांजलि देने को कहा। तब जैसे ही स्त्रीरूपधारी नारदजी ने उस सरोवर में डुबकी लगायी तो वे अपने वास्तविक नारद रूप में आ गये। भगवान विष्णु तट पर उनकी वीणा और मृगचर्म लिये खड़े थे। नारदजी को पुनः अपने स्वरूप की स्मृति हो आयी तो वे विस्मय में पड़ गये, उन्हें विस्मयान्वित देखकर भगवान विष्णु ने कहा− हे नारद! यहां आओ, वहां क्या कर रहे हो?

इधर राजा तालध्वज अपनी स्त्री को सरोवर से वापस न आया देखकर विलाप करने लगे। तब भगवान विष्णु तथा नारद ने उन्हें प्रबोधित किया। उनकी ज्ञान चर्चा से राजा तालध्वज के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया। इसके बाद भगवान विष्णु ने नारदजी से कहा− हे महामते! देखो, यह सारा खेल महामायाजनित है।

- शुभा दुबे

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