Gyan Ganga: भगवान कृष्ण में राजा भरत की अनन्य भक्ति थी

Lord Krishna
आरएन तिवारी । Feb 11 2022 6:07PM

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा- परीक्षित ! भरत चरित्र बड़ा ही पवित्र है उनके पिता ऋषभ देव ने अपने संकल्प मात्र से ही पृथ्वी का भार इन पर सौप दिया था। संसार का सम्राट बनकर सुंदर ढंग से राज्य किया। इनकी पत्नी का नाम पंचजनी था।

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 

प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठको ! आज-कल हम सब भागवत कथा सरोवर में गोता लगा रहे हैं।

पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि प्रियव्रत के पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक जो सुनते या सुनाते हैं उन दोनों को भगवान श्रीकृष्ण अपनी अनन्य भक्ति प्रदान करते हैं। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि, भगवान अपने भक्तों की सारी मनोकामना पूरी कर सकते हैं। उन्हे मुक्ति भी दे देते हैं, परंतु मुक्ति से भी बढ़कर जो भक्ति है उसे आसानी से नहीं देते।   

आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं—

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भरत चरित्र

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा- परीक्षित ! भरत चरित्र बड़ा ही पवित्र है उनके पिता ऋषभ देव ने अपने संकल्प मात्र से ही पृथ्वी का भार इन पर सौप दिया था। संसार का सम्राट बनकर सुंदर ढंग से राज्य किया। इनकी पत्नी का नाम पंचजनी था। पंचजनी ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया था। हमारे देश का प्राचीन नाम अजनाभ था। राजा भरत के समय से ही इसका नाम भारतवर्ष पड़ा। भगवान कृष्ण में इनकी अनन्य भक्ति थी। इन्होंने लगभग एक करोड़ वर्ष तक पृथ्वी का राज्य किया। अनेक महायज्ञ किए। जीवन के अंतिम समय में पुत्रों में राज्य बाँट दिया और घर छोडकर पुलहाश्रम में चले गए।

एक दिन गण्डकी नदी के किनारे स्नान करके ध्यान में बैठे थे कि एक गर्भिणी हिरनी पानी पीने आई अचानक सिंह कि भयंकर आवाज सुनाई दी। दहाड़ सुनते ही उसका कलेजा धड़कने लगा। अपनी जान खतरे में देखकर नदी के उस पार  जाने के लिए छलांग लगा दी। जिसके कारण उसका गर्भपात हो गया। उस हिरनी की तो मृत्यु हो गई किन्तु उसके नवजात मृग शिशु को राजा भरत ने उठाया और उसका लालन-पालन करने लगे। धीरे-धीरे उनका जप-तप सब छुट गया। उस हिरण के बच्चे में राजा भरत की आसक्ति बढ़ गई। सोत-जागते उठते-बैठते उनका चित उसी में लगा रहता अंत में मृग शिशु का चिंतन करते हुए अपना शरीर छोड़ा। शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित, अगले जन्म में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण के घर उत्पन्न हुए इस जन्म में भी उनको पूर्व जन्म की बात याद थी इसलिए अपने सम्बन्धियो से भी आसक्ति नहीं रखते थे। हर क्षण प्रभु का चिंतन करते रहते थे। दूसरों की नजर में अपने को पागल मूर्ख अंधे बहरे दिखते थे। वे हृष्ट पुष्ट गठीले शरीर के थे। धूल मिट्टी में पड़े रहते थे। लोग उनको पशु तुल्य समझते थे। उनके भाई पशुओं का खाद्य –पदार्थ खली भूसी घास देते। उसी को अमृत समझकर खा लेते थे।

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दृष्टांत:- एक डाकुओं का सरदार बेऔलाद था। कुछ डाकू जड़ भरत को भद्रकाली के मंदिर में संतान हेतु बलि देने के लिए ले जाते है। भद्रकाली प्रकट होकर चोरों का सिर काटकर रुधिर से स्नान करती हैं और जड़ भरत को अभय प्रदान करती हैं। जड़ भरत ने भद्रकाली से कहा- माँ डाकुओं का वध करने के बजाय उनकी बुद्धि शुद्ध कर दी होती तो बहुत अच्छा होता। 

शुकदेव जी कहते हैं---- इसी प्रसंग मे राजा रहुगण की भेंट जड़ भरत से होती है। एक बार राजा रहुगण पालकी में बैठकर कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक कहार की जरूरत पड़ी। संयोग से तगड़ा तंदुरुस्त जड़ भरत मिल गए राजा ने सोचा यह कहार के लिए उपयुक्त रहेगा बैल गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है। ऐसा सोचकर जड़ भरत को पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरत इस काम के योग्य नहीं थे फिर भी बिना कुछ कहे सुने चुपचाप पालकी उठाकर चलने लगे। कोई जीव पैर से कुचल न जाए इसलिए नीचे देखकर चलते थे। इस कारण उनका पैर आगे पीछ हो जाता पालकी टेढ़ी सीधी उपर नीचे हो जाती थी। रहुगण ने कहा –अरे कहारो ! ठीक से चलो पालकी ऊपर नीचे क्यो करते हो? दूसरे कहारो ने कहा- महाराज हम तो ठीक से ही चल रहे हैं। ये जो नया कहार आया है, बराबर नहीं चलता पता नहीं नीचे क्या देखते रहता है। इसकी चाल हमलोगो से मेल नहीं खाती। रहुगण नाराज होकर जड़भरत को बहुत बुरा-भला कहने लगे। रहुगण को अपने राजापन का अभिमान था। उन्होने बहुत अनाप-शनाब कह डाला और महात्मा भरत का तिरस्कार किया। प्रथम बार ब्राह्मण भरत ने मुँह खोला---

त्वयोदितं व्यक्तमविप्रलब्धम भर्तु: स मे स्याद्यदि वीर भार:  

गंतुर्यदि स्यादधिगम्यमध्वा पीवेति राशौ न विदाम प्रवाद: ॥  

हे राजन! आपने जो कुछ कहा वह शरीर के लिए कहा आत्मा को उससे कोई लेना-देना नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बाते नहीं किया करते। यदि मैं वास्तव मे जड़ हूँ तो मुझे शिक्षा देना पिसे हुए आटे को दुबारा पीसने के समान व्यर्थ है। इस प्रकार तत्व ज्ञान का उपदेश देकर मौन हो गए और कंधे पर पालकी रखकर चुप चाप चलने लगे। तत्व ज्ञान सुनने के बाद रहुगण की आंखे खुल गईं। जड़ भरत की ज्ञान पूर्ण बातें सुनकर रहुगण ने कहा----

कस्तवम निगूढ़: चरसि द्विजानाम विभर्षि सूत्रम कतमोवधूत । 

कस्यासि कुत्रत्य इहापि कस्मात् क्षेमाय नश्चेदसि नोत शुक्ल:।।              

सोचने लगे जिसको मैं जड़,मूर्ख और मजदूर समझ रहा हूँ यह मेरी बेवकूफी है। ये कोई सिद्ध संत हैं। तत्काल पालकी से नीचे उतर पड़े राजमद दूर हो गया। वे जड़ भरत के चरणों में गिर पड़े और हाथ जोड़कर बोले— महाराज अपने वास्तविक रूप को छिपाकर मूर्खों की भाँति विचरण करने वाले आप कौन हैं? जड़ भरत ने कहा –

अहं पूरा भरतो नाम राजा विमुक्त दृष्ट श्रुत संग बंध:  

आराधनं भगवत ईहमानो मृगोभवं मृग संगाद्धतार्थ: ।।

पूर्व जन्म में मैं भरत नाम का राजा था। विरक्त होकर भगवान के भजन में लगा रहता था, फिर भी एक मृग शावक में आसक्ति हो गई इसलिए अगले योनि जन्म में मृग बनना पड़ा। इसलिए अब मोह-माया से दूर रहकर गुप्त रूप मे पागल मूर्ख की तरह रहता हूँ। तू भी भगवान की लीलाओं के कथन और श्रवण करके संसार सागर को पार करके परम पद को प्राप्त कर सकता है। जड़ भरत पूर्व जन्म में अपना ज्ञान उस भयभीत मृगी को नहीं दे पाए थे, वही ज्ञान उन्होने राजा रहुगण को दिया। 

                                       

जय श्री कृष्ण ----- 

                                             

क्रमश: अगले अंक में --------------

 श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 

- आरएन तिवारी

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