समकालीन दिग्भ्रमित समाज के लिए भगवान परशुराम जैसा सामर्थ्य जरूरी

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गोपाल जी राय । May 6 2019 3:55PM

लोक मान्यता है कि भगवान परशुराम का जन्म मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रभु के जन्म से पहले वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) के दिन रात्रिकाल के प्रथम प्रहर में हुआ था। रोचक बात तो यह है कि उनके जन्म समय को सतयुग और त्रेतायुग का संधिकाल माना जाता है।

जब हम भगवान परशुराम को याद करते हैं तो उस परम तेजस्वी सत्ता का एहसास होता है जो अपने तपोबल और बाहुबल से समकालीन दिग्भ्रमित समाज को सही दिशा देने की अथक कोशिश करते हैं। तब उनके कतिपय साहसिक पहल से हर ओर सुख-शांति-समृद्धि की संस्थापना होती है। इस क्रम में वो अपने सम्मुख उपस्थित आपद धर्म का निर्वहन भी कुशलता पूर्वक करते हैं। 

यद्यपि उनकी कुछेक क्रूरता की सराहना कोई भी सभ्य समाज नहीं कर सकता है, लेकिन जिन परिस्थितियों में उन्होंने ऐसा किया होगा, यह तय है कि उसके अलावा उनके समक्ष कोई चारा भी नहीं रहा होगा। संभव है कि  लोहा ही लोहे को काटता है, जैसे अकाट्य सिद्धातों का उन्होंने वरण किया और देश-समाज की दिशा अपने फरसे से बदल दी। 

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यह कटु सत्य है कि उन्होंने कभी भी लकीर का फकीर बनकर कोई कार्य नहीं किया और न ही कभी किंतु-परन्तु के मायाजाल में उलझने की कुचेष्टा की। इसलिए कई मायनों में वो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और सोलह कलाओं में निपुण भगवान कृष्ण से भी अव्वल समझे जाते हैं। यह बात अलग है कि परवर्ती सत्ता पर काबिज सूर्यवंशी और चंद्रवंशी शासकों या उनके सान्निध्य में राज करने वाले राजाओं और उन पर आश्रित विद्वानों ने कभी भी भगवान परशुराम के जीवन कर्मों में निहित लोककल्याणकारी संदेशों के मर्म को समझने और उन्हें सराहने की सुचेष्टा नहीं की। जबकि, समकालीन मदमस्त सत्ता को जनकल्याणार्थ उन्होंने कई बार धोया था, अमूर्त रूप से धो रहे हैं और आगे भी सूक्ष्म रूप में धोते रहेंगे। ऐसा इसलिए कि वो उन सात देवों में एक शुमार किए जाते हैं जिनकी इहलौकिक व पारलौकिक सत्ता से कोई भी युग संदेशवाहक इंकार नहीं कर सकता है।

सच कहा जाए तो वर्तमान में दिग्भ्रमित भारत के लिए जिस साहसिक और सुदृढ़ नेतृत्व की दरकार महसूस की जाती रही1 है, उसमें भगवान परशुराम के जीवन चरित्र और शासकीय स्वभाव कई मायनों में उपयोगी समझे जाते हैं। क्योंकि उनके बहुतेरे लोक आदर्श अद्भुत हैं, अकल्पनीय हैं और अविस्मरणीय भी। आसेतु हिमालय में बनने वाले साम्राज्यों की यह अघोषित परम्परा रही है कि जब जब वक्त और व्यक्तित्व सीमा से अधिक बेदर्द हुआ, अंतस ऊर्जा से ऊर्जान्वित और देश-काल-पात्र से प्रोत्साहित कोई न कोई सशक्त और शानदार नेतृत्व तैयार हुआ, जिसने समकालीन अभिशप्त समाज को उसके लगभग सभी संत्रासों से मुक्ति दी और प्रशंसनीय परशुराम-राज्य की संस्थापना करने की अथक कोशिश भी की।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि सनातन परंपरा में कुल सात ऐसे चिंरजीवी देवता हैं, जो युगों-युगों से इस पृथ्वीलोक पर मौजूद हैं और किसी न किसी रूप में इस सृष्टि की रक्षा और सम्यक संचालन करते रहने को प्रयत्नशील रहते हैं। इन्हीं में से एक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम भी हैं, जो उनके आवेशावतार समझे जाते थे। उन्होंने आवेश में ही सही, लेकिन बड़े बड़े युगांतकारी कार्य किये हैं।

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लोक मान्यता है कि भगवान परशुराम का जन्म मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम प्रभु के जन्म से पहले वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) के दिन रात्रिकाल के प्रथम प्रहर में हुआ था। रोचक बात तो यह है कि उनके जन्म समय को सतयुग और त्रेतायुग का संधिकाल माना जाता है। वास्तव में, वे भगवान शिव के परमभक्त थे और न्याय का देवता भी। इसलिए उनके जीवन संघर्षों से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

यह बात दीगर है कि भगवान परशुराम के क्रोध से स्वयं विघ्नहर्ता गणेश भी नहीं बच पाये थे। ब्रह्रावैवर्त पुराण के मुताबिक, जब भगवान परशुराम अपने आराध्य देवाधिदेव शिव के दर्शनार्थ कैलाश पर्वत पहुंचे तो भगवान गणेश ने अज्ञानता वश उन्हें शिव से मुलाकात करने से रोक दिया, जिससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने फरसे से उनका एक दांत तोड़ दिया। तभी से भगवान गणेश एकदंत कहलाए। हालांकि, भगवान शिव ने दोनों को शिव रहस्य समझाकर की उन दोनों की भ्रांति दूर की।

देखा जाए तो भगवान परशुराम प्रेम विभक्ति युग रामायण काल और सम्पत्ति विभक्ति युग महाभारत काल जैसे दो युगों की सिलसिलेवार पहचान हैं। क्योंकि रामायण त्रेतायुग और महाभारत द्वापर का वृतांत है। पुराणों के मुताबिक, एक युग लाखों वर्षों का होता है, जिससे भगवान परशुराम की शाश्वतता का एहसास होता है। उनने न सिर्फ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी की लीला, अपितु महाभारत का जनसंहारक युद्ध भी देखा। हालांकि, अब भी उनके अस्तित्व का एहसास सभी को है जिससे संसार की अमूर्त सत्ता को संचालित करने की अकाट्य अनुभूति भी मिलती है।

एक बार जब रामायण काल में माता सीता के स्वयंवर में धनुष टूटने के पश्चात भगवान परशुराम गुस्साए तो उनका गुस्सेल भ्राता लक्ष्मण जी से संवाद हुआ। जिसके बाद मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने भगवान परशुराम  को अपना सुदर्शन चक्र सौंपा था। जिसे उन्होंने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण को प्रदान किया। यह घटना देवत्व के शक्ति सामर्थ्य के विवेकसम्मत हस्तांतरण का उदाहरण समझी जा सकती है।

भगवान परशुराम का विद्या प्रेम अद्भुत है। उन्होंने सूत पुत्र कर्ण और भीष्म पितामह को भी अस्त्र-शस्त्र की मर्यादित शिक्षा दी थी। लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि कर्ण ने भगवान परशुराम से झूठ बोलकर चतुराई पूर्वक अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। तब उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि जिस विद्या को उसने मिथ्या प्रलाप कर हासिल की है, वही विद्या वह युद्ध के समय भूल जाएगा और कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं चला पाएगा। माना जाता है कि उनका यही श्राप अंतत: कर्ण की मृत्यु का कारण बना। इसका पीछे उनकी भावना यह रही होगी कि एन केन प्रकारेण झूठ को हतोत्साहित किया जाए और ऐसा ही किया भी।

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अमूमन, भगवान परशुराम ने कभी अकारण क्रोध नहीं किया। लोक श्रुति है कि जब सम्राट सहस्त्रार्जुन का अत्याचार और अनाचार अपनी सीमा पार कर गया तब उन्होंने उसे दंडित किया। क्योंकि जब उनको अपनी मां से पता चला कि ऋषि-मुनियों के आश्रमों को नष्ट करने तथा उनका अकारण वध करने वाला दुष्ट राजा सहस्त्रार्जुन ने जब उनके आश्रम में भी आग लगा दी एवं कामधेनु छीन ले गया, तब उन्होंने पृथ्वी को दुष्ट क्षत्रियों से रहित करने का प्रण लिया। 

फिर उन्होंने सहस्त्रार्जुन की अक्षौहिणी सेना और उसके सौ पुत्रों के साथ उसका भी वध कर दिया। उसके बाद भगवान परशुराम ने 21 बार घूम-घूमकर दुष्ट क्षत्रियों का विनाश किया। मेरी राय में, इसके पीछे उनका मकसद शासकीय अत्यचार को किसी भी प्रकार से रोकना था। समझा जाता है कि तब क्षत्रिय ही शासक होते होंगे और राजसी ठाट-बाट के दम्भ में आकर शेष समाज के शोषण-दमन-उत्पीड़न को अपना सार्वभौमिक अधिकार समझ बैठे होंगे, जिसे समाप्त करने का उन्होंने एक नहीं, बल्कि कई बार सफल प्रयास किया।

बता दें कि भगवान परशुराम की माता का नाम रेणुका और पिता का नाम जमदग्नि ॠषि था, जो उनकी चौथी संतान थे। उनसे बड़े तीन भाई थे। उन्होंने पिता की आज्ञा पर अपनी मां का वध कर दिया, जिसके कारण उन्हें मातृ हत्या का पाप भी लगा, जो बाद में भगवान शिव की घोर तपस्या करने के बाद दूर हुआ। इससे साफ है कि किसी भी विवेकशील पुत्र के लिए उसका पिता ही सर्वश्रेष्ठ होता है, न कि माता। ऐसी समझदारी भाव सभी में विकसित होना चाहिए। कहा जाता है कि भगवान शिव ने उन्हें मृत्युलोक के कल्याणार्थ परशु नामक एक कालजयी अस्त्र प्रदान किया, जिसके कारण वे परशुराम कहलाए, जिनका हरेक रूप समाज के लिए वंदनीय है।

- गोपाल जी राय

(लेखक डीएवीपी/बीओआईसी के सहायक निदेशक हैं)

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