गोगा नवमी विशेषः साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक माने जाते हैं वीर गोगाजी

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Prabhasakshi

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को सांपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है। गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है।

राष्ट्रीय एकता व सांप्रदायिक सदभावना के प्रतीक वीर गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं। वीर गोगाजी को जाहरवीर गोगा जी के नाम से भी जाना जाता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूरी श्रद्धा के साथ पूजते है। राजस्थान में हनुमानगढ़ जिले के गोगामेड़ी गांव में गोगाजी की समाधि स्थल पर प्रतिवर्ष भाद्रप्रद मास के शुक्ल पक्ष में मेला भरता है। जो लाखों भक्तों के आकर्षण का केंद्र है। यह मेला एक माह तक चलता है। गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है। जहां एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगामेड़ी के मेले में देश के कोने-कोने से श्रद्धालु आकर वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगापीर व जाहरवीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहाते है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं। फिर गोगाजी की समाधि पर आकर धोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छडियों की विशेष पूजा करते हैं।

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को सांपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है। गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है। लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चैहान, गुग्गा, जाहर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।

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राजस्थान की लोक संस्कृति में वीर गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गांव-गांव में खेजड़ी, गांव-गांव में गोगावीर। वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है। गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियां मांगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।

गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है। इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। मुख्य द्वार पर  बिस्मिला अंकित है। मंदिर के मध्य में गोगाजी का मजार (कब्र) है। साम्प्रदायिक सदभावना के प्रतीक गोगाजी के मंदिर का निर्माण बादशाह फिरोजशाह तुगलक ने कराया था। संवत 362 में  फिरोजशाह तुगलक हिसार होते हुए सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हा-हाकार मच गया। तुगलक कि सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान हस्ती आई हुई है। वो प्रकट होना चाहती है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया और पक्की मजार बन गई। तत्पश्चात मंदिर का जीर्णोद्वार बीकानेर के महाराज काल में 1887 व 1943 में करवाया गया।

गोगाजी का यह मंदिर आज हिंदू, मुस्लिम, सिख व ईसाईयों में समान रूप से श्रद्वा का केन्द्र है। सभी धर्मो के भक्तगण यहां गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादव मास में उमड़ पडते हैं। राजस्थान का यह गोगामेडी नाम का छोटा सा गांव भादव मास में एक नगर का रूप ले लेता है और लोगों का अथाह समुद्र बन जाता है। गोगा भक्त पीले वस्त्र धारण करके अनेक प्रदेशों से यहां आते हैं। सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश व बिहार के भक्तों की होती है। नर-नारियां व बच्चे पीले वस्त्र धारण करके विभिन्न साधनों से गोगामेडी पहुंचते हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें पूरबिये कहते हैं। भक्तजन अपने-अपने निशान जिन्हे गोगाछड़ी भी कहते हैं लेकर मनौती मांगने नाचते-गाते ढप व डमरू बजाते व कुछ एक सांप लिए भी आते हैं। गोगा को सापों के देवता के रूप में भी माना जाता है। हर धर्म व वर्ग के लोग गोगाजी की छाया चढ़ाकर नृत्य की मुद्रा में सांकल खाते व पदयात्रा करते तथा गोरखनाथ टीले से लेटते हुए गोगाजी के समाधि स्थल तक पहुंचते हैं। नारियल, बताशे का प्रसाद चढ़ाकर मनौती मांगते र्हैं।

जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक श्रद्धालु अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है। 

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गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चूरू) चैहान वंश के राजपूत शासक जैबर की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरू गोरखनाथ के वरदान से भादो शुदी नवमी को हुआ था। इनके जन्म की भी विचित्र कहानी है। एक किवदंती के अनुसार गोगाजी का मां बाछल देवी निरूसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नही मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडी के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और कहा कि  वे अपनी तपस्या पूरी होने पर उन्हें ददरेवा आकर प्रसाद देंगे जिसे ग्रहण करने पर उन्हे संतान की प्राप्ति होगी। 

तपस्या पूरी होने पर गुरू गोरखनाथ बाछल देवी के महल पहुंचे। उन दिनों बाछल देवी की सगी बहन काछल देवी अपनी बहन के पास आई हुई थी। गुरू गोरखनाथ से काछल देवी ने प्रसाद ग्रहण कर लिया और दो दाने अनभिज्ञता से प्रसाद के रूप में खा गई। काछल देवी गर्भवती हो गई। बाछल देवी को जब यह पता चला तो वह पुनरू गोरखनाथ की शरण मे गई। गुरू बोले देवी मेरा आशीर्वाद खाली नहीं जायेगा तुम्हे पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होगी। गुरू गोरखनाथ ने चमत्कार से एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत भादो माह की नवमी को गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

गोगादेव की जन्मभूमि ददरेवा पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर माथा टेकने और मन्नत मांगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है। मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रधा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए।

मेले के दिनों में गोगामेड़ी में एक अपूर्व आध्यात्मिक वातावरण बन जाता है और प्रशासनिक व्यवस्था कायम हो जाती है। विभिन्न संगठनो के स्वयं सेवक भी भक्तों की सुविधा के लिए जुट जाते हैं। अधिकांश भक्त रेल मार्ग से पहुंचते हैं। हालांकि रेल विभाग भक्तों की सुविधा के लिए अनेक विशेष रेलगाडियां चलाता है तो भी रेलों में भीड़ अभूतपूर्व होती है। गोगामेड में इन्ही दिनों पशुओं का मेला भी लगता है, जहां लाखों पशुओं की खरीद-फरोख्त होती है। गोगामेड़ी साम्प्रदायिक सदभाव व राष्ट्र की अनेकता में एकता की अनूठी मिसाल है।

रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहतें हैं।)

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