Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने आखिर ब्राह्मण की क्या परिभाषा बताई थी
अगर उन्होंने नख से सिर तक सभी ब्राह्मण कुल में जन्में मानवों को पूजनीय कहा है, तो ऐसे में उन्होंने रावण को पूजनीय क्यों नहीं कहा। जबकि रावण को तो उच्च कोटि का ब्राह्मण कहा गया है। गोस्वामी जी उसकी तो दिल भर कर निंदा करते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब श्रीरामचरित मानस की रचना आरम्भ की, तो वे भिन्न-भिन्न महान विभूतियों की वंदना में, विभिन्न प्रकार की चौपाईयों की रचना करते हैं। हमने भी जब बालकाण्ड की विस्तृत व्याख्या करने का प्रयास आरम्भ किया, तो ऐसा लगा, कि सभी पूजनीय महापुरुषों की वंदना का क्रम कुछ अधिक ही लंबा प्रतीत होता है। क्यों न हम सब वंदना को, संक्षेप में, एक साथ, एक ही प्रसंग में लिख कर समाप्त करें और सीधा श्रीराम जी के जीवन प्रसंगों की व्याख्या आरम्भ करें। तो हमने पाया, कि ऐसा करके, शायद हम गोस्वामी जी के इस ऐतिहासिक महान प्रयास के साथ अन्याय कर देंगे। सोच कर देखिए, अगर इस अलौकिक ग्रंथ के प्रारम्भ में वंदना क्रम की कोई विशेष प्रासंगिकता अथवा महत्वता न होती, तो गोस्वामी जी स्वयं भी वंदना क्रम को संक्षेप में ही लिख देते। फिर उन्होंने वंदनाओं को इतने विस्तार से क्यों लिखा? निश्चित ही वंदनाओं के प्रत्येक शब्द का कोई गहरा संदेश व अर्थ होगा। वैसे भी आध्यात्मिक क्षेत्र में, हम गोस्वामी जी से अधिक सयाने तो हो नहीं सकते न? इसलिए हमने यही निश्चय किया है, कि जितना हो सके, हम गोस्वामी जी के विचारों को, अधिक से अधिक सरलता व पूर्णता से, पाठक गणों के समक्ष रखेंगे।
गुरु वंदना के पश्चात ब्राह्मण-संत वंदना में गोस्वामी जी नत्मस्तक हैं। वे कहते हैं-
‘बंदऊँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना।।
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी।।’
अर्थात पहले मैं पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वंदना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ।
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इसमें गोस्वामी जी, जो प्रथम शब्द प्रयोग करते हैं, वह है, कि मैं पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ। आज के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो कुछ वर्गों को यह बात अच्छी न लगे। क्योंकि उनके लिए ब्राह्मणों को श्रेष्ठ व पूजनीय कहना, एक राजनीतिक मुद्दे जैसा हो गया है। उन्हें लगता है, कि गोस्वामी तुलसीदास जी एक विशेष जाति अथवा समुदाय को बढ़ावा दे रहे हैं। अगर ब्राह्मण पूजनीय हैं, तो क्या दूसरे वर्ण छोटे हो गए? जी नहीं! गोस्वामी जी के कहने का यह तात्पर्य तो कभी भी नहीं हो सकता है। लेकिन उन्होंने अगर कहा है, कि ब्राह्मण पूजनीय है, तो निश्चित ही ब्राह्मण पूजनीय होगा। लेकिन उन्होंने कैसे ब्राह्मण को पूजनीय कहा है, यह देखना दर्शनीय होगा।
अगर उन्होंने नख से सिर तक सभी ब्राह्मण कुल में जन्में मानवों को पूजनीय कहा है, तो ऐसे में उन्होंने रावण को पूजनीय क्यों नहीं कहा। जबकि रावण को तो उच्च कोटि का ब्राह्मण कहा गया है। गोस्वामी जी उसकी तो दिल भर कर निंदा करते हैं। पूरी श्रीरामचरित मानस में उन्होंने एक स्थान पर भी नहीं लिखा, कि रावण ब्राह्मण है, तो उसे सिर्फ इसी आधार पर हम पूजनीय मानें। कर्म भले ही उसके कितने भी निंदनीय हों। निःसंदेह गोस्वामी जी ऐसे ब्राह्मण की पूजा नहीं करते, जो जन्म से तो ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हो, लेकिन कर्म से निरा राक्षस हो। तो प्रश्न पैदा होता है, कि ऐसा ब्राह्मण फिर कौन होगा, जिसकी चर्चा गोस्वामी जी करते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर हमें श्रीमद्भगवत गीता जी में बड़ा सुंदर मिलता है। श्रीकृष्ण ब्राह्मण की परिभाषा देते हुए कहते हैं-
‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।’
अर्थात हे अर्जुन! जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं।
निश्चित ही श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण की एक स्पष्ट परिभाषा दे दी है। उन्होंने एक मापदण्ड दे दिया, कि अगर यह-यह लक्षण, किसी मानव में हैं, तो उसे बड़े से बड़े ज्ञानीजन भी पंडित मानते हैं। और ऐसे महामानव की वंदना होनी ही चाहिए। कारण कि अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति जब कर्म करता है, तो उस कर्म में उसकी कामना व संकल्प तो स्वाभाविक रूप से ही जुड़ा होता है। आखिर बिना कामना व संकल्प के कोई भी व्यक्ति कर्म करेगा ही क्यों? लेकिन तब भी, अगर कोई ऐसा कर पा रहा है, तो निश्चित ही वह कोई महाबली ही होगा। क्योंकि ऐसे कर्म वही करता है, जो स्वयं के हितों को पूर्ण रुप से तिलाँजलि देकर, पूर्ण रुपेण परहित के लिए ही जीवित है। ऐसा कोई अगर इस धरा पर है, तो निश्चित रूप से वह इस धरती का देवता ही तो है। उसे अगर ब्राह्मण शब्द से संबोधन प्राप्त हुआ, वह तब भी पूजनीय है, और अगर वह क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र शब्द से संबोधित होता, तो वह तब भी पूजनीय ही होता। ऐसे महान पात्र किसी शब्द के आधीन नहीं हुआ करते। निश्चित ही समाज को अगर ऊँचा उठाना है, तो ऐसे ब्राह्मणों का इस धरा पर होना अति आवश्यक है।
ब्राह्मण के साथ-साथ गोस्वामी जी संत की वंदना भी करते हैं, जिसकी चर्चा हम अगले अंक में करेंगे---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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