Gyan Ganga: हनुमानजी को अंगूठी देने के बाद क्या समझा रहे थे भगवान श्रीराम

Hanumanji
सुखी भारती । Aug 19 2021 4:52PM

श्रीरामजी ने श्रीहनुमानजी से कहा, 'मेरे पास तो तुम जैसे भक्तों का भी अभाव नहीं, जिन्हें मैं अपनी पीड़ा सुना कर, अपना मन हलका कर सकता हूँ। लेकिन श्रीसीता जी तो निश्चित ही नितांत अकेली होंगी। कोई उन्हें भोजन के लिए पूछता भी होगा अथवा नहीं।'

भगवान श्रीराम जी अपने प्यार व दुलार की वर्षा करते थक नहीं रहे हैं। और वानर, भालू व अन्य वन्य प्राणी भक्त भी, इस दैवीय बारिश में भीगने का सुअवसर छोड़ नहीं रहे थे। भगवान श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी को मुद्रिका तो प्रदान कर ही दी थी। जिसे श्रीहनुमान जी ने सप्रेम अपने श्रीमुख में धारण कर लिया था। लेकिन अब श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी को अपनी एक विशेष आज्ञा का वहन करने के लिए आदेश दिया। आज्ञा यह कि श्रीहनुमान जी को श्रीसीता जी तक, श्रीराम जी के कुछ अति गूढ़ व महत्वपूर्ण संदेशों को पहुंचाना था। श्रीराम जी पवनसुत को आज्ञा देते हुए कहते हैं-

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‘बहु प्रकार सीतहि सीतहि समुझाएहु।

कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।।

हनुमत जन्म सुफल करि माना।

चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना।।’

भगवान श्रीराम जी श्रीहनुमान जी को आज्ञा देते हैं, कि हे पवनसुत! तुम शीघ्र जाओ! और श्रीसीता जी से भेंट करो। उन्हें बस मुख्यतः दो ही बातें कहना। पहली यह, कि वे तनिक भी न घबरायें। मैं शीघ्र अति शीघ्र उन्हें लेने आऊँगा। हो सकता है, कि श्रीसीता जी को लगे कि मुझ में बल का ही अभाव हो गया है। तभी तो मैं उन्हें लेने के लिए अभी तक उपस्थित नहीं हो सका। हमारे बल की क्या थाह है, यह तो तुम भली भाँति जानते हो हनुमंत। हालाँकि हमारे बल का अनुमान तो हमारे शत्रु को भी होगा, जो देवी सीता जी को अपहरण करके ले गया है। तभी तो वह हमारी अनुपस्थिति में ही श्रीसीता जी को ले कर गया है। लेकिन वह हमारे बल की जब भी चर्चा करता होगा, तो उसके मुख से हमारे लिए उपहास ही निकलता होगा। वह यह बार-बार दृढ़ भाव से कहता होगा, कि मैं कितना निर्बल व मूर्ख हूँ। कारण कि मैं अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाया। मेरी प्रिय श्रीसीता जी, जब उस दुष्ट से मेरे प्रति यह वाक्य सुनती होंगी, तो उनके मन को बहुत आघात पहुंचता होगा। श्रीसीता जी का हृदय तो अति कोमल है। शत्रु की ऐसी भाषा से वे व्यथित होती ही होंगी। यह भी संभव है कि परिस्थितिवश श्रीसीता जी के मन में भी मेरे बल को लेकर कहीं किंतु परंतु उठता हो। लेकिन यह तो सुनाने वाले पर निर्भर करता है, कि वह किस विषय को, किस ढंग व भाव से प्रस्तुत करता है। मुझे विश्वास है कि उसी स्थान पर, अगर तुम मेरे बल की चर्चा सुनाओगे, तो निश्चित ही तुम्हारे सुनाने में, श्रद्धा की मीठी चाशनी होगी। जिसे सुनने के पश्चात, श्रीसीता जी के हृदय में शंका का नहीं, अपितु विश्वास का ही महाउदय होगा। और भक्ति मार्ग पर विश्वास ही तो वह कवच है, जिसके सहारे भक्त भवसागर पार करता है। हे हनुमंत लाल! आप संत हो और संत के मिलन पर ही साधक के हृदय में विश्वास का उदय होता है। पहला संदेश जब तुम भलीभाँति दे दोगे, तो मेरे दूसरे संदेश को बड़े ध्यान पूर्वक देना। वह संदेश श्रीसीता जी के प्रति मेरे विरह से भीगा है। उन्हें कहना कि वे ऐसा बिल्कुल भी न सोचें, कि मैं अपनी प्रियत्मा को भूल गया होऊँगा। उन्हें कहना कि मैं पल-पल उन्हें ही स्मरण करता रहता हूं। ऐसी कौन-सी घड़ी है, जब मैं उन्हें याद नहीं करता। जब भी पवन की ठंडी लहर दौड़ती है, तो मुझे लगता है, कि मेरी सीता जी ने हमें याद कर, आह भरी होगी। बदले में हम भी ठंडी आह भर कर आपको समर्पित हो जाते हैं। 

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हमें पता है कि आपके दिव्य व सुंदर नयन, आठों पहर अश्रुयों से भीगे रहते होंगे। कारण कि हमारी बिरह में आप जितना झुलस रही होंगी, उसकी कल्पना हम ही कर पा रहे हैं। ठीक इधर हमारे नयन भी हमसे पल प्रति पल यही प्रश्न करते रहते हैं, कि जब श्रीसीता जी की आँखें कभी नहीं सूखती, तो भला हमें क्या हक है, कि हम सूखे रेत की तरह सूखे रहें। इसलिए हे सीते! कोई भले यह देख पाये अथवा न देख पाये। लेकिन हमारे नेत्र, आपके विरह के कारण ही सदैव नम रहते हैं। हे हनुमंत! साथ में यह भी कहना कि मैं पल-पल उस घड़ी को कोसता रहता हूँ, कि मैंने क्यों अपनी जानकी जी को, अपने से दूर होने दिया। क्यों एक मायावी हिरण के पीछे लग, आपसे दूर हो बैठा। मैंने क्यों आपको नहीं कहा कि हे सीते, आप इस छोटे से स्वर्ण के हिरण के पीछे नाहक ही ललायत हैं। आप कहें, तो तीनों लोकों में जितना भी स्वर्ण है, वह सब मैं आपके चरणों में लाकर रख दूं। लेकिन अफसोस कि मैं ऐसा न कर सका। हे महाबली पवनसुत हनुमान! मेरे हृदय की वेदना मैं और किससे कहूँ। तुम तो मेरे हृदय की प्रत्येक धड़कन के साक्षी हो। मेरे परम भक्त होने के नाते तुम्हें पता है, कि अब और बिरह की अग्नि में जलना हमसे सहन नहीं हो रहा। इस पीड़ा में मैं अगर अकेला ही होता, तो मैं इतना असहाय महसूस न करता। लेकिन समस्या यह है कि पीड़ा के इस दंश को, मुझसे कहीं अधिक, मेरी प्रिय सीता जी झेल रही हैं। मेरे पास तो तुम जैसे भक्तों का भी अभाव नहीं, जिन्हें मैं अपनी पीड़ा सुना कर, अपना मन हलका कर सकता हूँ। लेकिन श्रीसीता जी तो निश्चित ही नितांत अकेली होंगी। कोई उन्हें भोजन के लिए पूछता भी होगा अथवा नहीं। छप्पन प्रकार के भोज जिन्हें आठों पहर परोसे रहते थे, उन्हें भोजन के नाम पर क्या परोसा जाता होगा, कुछ भी पता नहीं। कुछ भी कहते नहीं बन रहा। इसलिए हे पवनसुत हनुमान! तुम शीघ्र अति शीघ्र प्रस्थान करो और श्रीसीता जी की सुधि लेकर शीघ्रता से वापिस लौट कर आओ ताकि हम अपनी प्रियतमा से पुनः भेंट कर सकें।

श्रीहनुमान जी ने प्रभु से यह सेवा पाकर अपने आपको धन्य माना और हृदय में प्रभु को धारण कर, वे सेवा में कूच करने को तत्पर हो उठते हैं- ‘हनुमत जन्म सुफल करि मारा। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना।।’ आगे वानरों की श्रीसीता जी की खोज में क्या-क्या घटनायें घटती हैं, जानेंगे अगले अंकों में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!

-सुखी भारती

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