Gyan Ganga: जब बालि मृत्यु शैया पर श्रीराम जी से धर्म-अधर्म की बातें करने लगा

Shriram

किसी का पेट चीर देना तो स्पष्टतः अमानवीयता है, हिंसक प्रवृति का द्योतक है। उक्त पंक्ति के प्रथम दृष्टिपात में यह अनेकों दोषयुक्त आक्षेप उचित प्रतीत होते हैं। हो भी क्यों नहीं क्योंकि एक हत्यारे द्वारा किसी का पेट चीर देना दंडनीय अपराध की श्रेणी में ही तो आएगा।

कमाल है बालि मृत्यु शैया पर है और ऐसे में भी अपने धर्म-अधर्म पर चिंतन करने की अपेक्षा प्रभु के ध्र्माचरण पर ही अंगुली उठा रहा है। वह प्रभु को कहता है कि-

धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। 

मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।।

अर्थात मुझे व्याध की मानिंद छुपकर क्यों मारा। और यूं छुपकर मारने में पिफर आपका धर्म  कहाँ जा रहा है। यह तो साक्षात प्रकट अधर्म है। प्रभु बालि को जब यूं धर्म की बातें करते देख रहे हैं तो मन ही मन सोच रहे होंगे कि भई वाह! बिल्ली चूहे मारने के पाप और चोरी का दूध् पीने की हानि बता रही है। क्या यह किसी भी प्रकार से न्यायसंगत है? बालि जैसा अधर्मी भी जब धर्म का उपदेश करने लगे तो ध्र्म का विकृत स्वरूप आकार नहीं लेगा तो और क्या होगा? क्या कभी अधूरा ज्ञान रखकर ध्र्म की वास्तविक परिभाषा को समझा जा सकता है। इसे समझने के लिए हम एक पंक्ति का विश्लेषण करते हैं। जिसमें यह कहा जाए कि ‘किसी ने पफलां व्यक्ति का पेट चाकू से चीर दिया।’ निसन्देह प्रतीत होता है कि यह तो अधर्म है, पाप है। किसी का पेट चीर देना तो स्पष्टतः अमानवीयता है, हिंसक प्रवृति का द्योतक है। उक्त पंक्ति के प्रथम दृष्टिपात में यह अनेकों दोषयुक्त आक्षेप उचित प्रतीत होते हैं। हो भी क्यों नहीं क्योंकि एक हत्यारे द्वारा किसी का पेट चीर देना दंडनीय अपराध की श्रेणी में ही तो आएगा। 

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लेकिन जब आपको पता चले कि पेट काटने वाला कोई दुष्ट हत्यारा नहीं अपितु एक कुशल शल्य चिकित्सक है, जिसने मरीज के किसी असाध्य रोग के निवारण हेतु, उसके पेट को चाकू से चीरा है। और उपचार उपरांत पेट को पुनः टांके लगा कर सिल भी दिया। निसन्देह यहाँ भी पेट तो काटा गया लेकिन क्या उस शल्य चिकित्सक को भी आप हत्यारे की श्रेणी में रखेंगे या पिफर कृतज्ञता का भाव रखते हुए दोंने हाथ जोड़कर उनका ध्न्यवाद करेंगे? उत्तर से आप भलीभांति परिचित हैं। क्योंकि एक हत्यारा किसी का पेट चीर डाले तो निसन्देह उसकी मंशा वध कर देने की होती है। लेकिन अगर कोई डाकटर पेट चीरता है तो वह रोग निवृति करके जीवन प्रदान करता है। 

ठीक वैसे ही बालि रावण तथा हिरण्यकश्यपु जैसे दुष्ट, किसी को छुपकर मारे अथवा सामने आकर वह हत्यारे ही कहलाएँगे। लेकिन संत जन, भक्त जन व स्वयं ईश्वर अगर ऐसा करते हों तो इसमें जीव का कल्याण ही निहित होता है। श्रीराम जी ने बालि को छुपकर मारा तो इसमें अधर्म जैसा कुछ भी नहीं। आएँ इसे हम उदाहरण के माध्यम से समझे। जब हमारे सैनिक सीमा पर तैनात होकर, सीमापार से आने वाले आतंकवादियां से लड़ते हैं तो क्या वे अंधाधुंध चल रही गोलीबारी में छाती तानकर सामने खड़े हो जाते हैं? नहीं न! अपितु एक रणनीति के तहत वे बंकरों में छुपकर दुश्मन पर पफायरिंग करते रहते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि हमारे सैनिक स्वयं की जान गंवाए बिना दुश्मनों को धाराशायी करते हैं। और इसके पफलस्वरूप हम उन सैनिकों को अपमान की दृष्टि से नहीं अपितु सम्मान के भाव से देखते हैं। हम उन पर यह लांछन नहीं लगाते कि अरे! इन ने तो आतंकवादियों को छुपकर मारा, ये तो निंदा के पात्रा हैं। अपितु हम उनकी वीरता को नतमस्तक होते हैं, सरकार द्वारा उन्हें किसी भव्य सैनिक समारोह में शौर्य चक्र देकर सम्मानित किया जाता है। 

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अगर हम यह कहे कि सैनिकों का आतंकवादियों को बंकरों में छुपकर मारना धर्म था, तो आतंकवादियों का भला क्या धर्म, वह तो समस्त मानव जाति के शत्राु हुआ करते हैं। या यूं कहें कि आतंकवादी तो समाज के पाँव में चुभे हुए शूल होते हैं और शूल को अगर निकालना हो तो पूफल का प्रयोग नहीं किया जाता अपितु शूल से ही उस शूल को निकाला जाता है। जैसे एक शूल पाँव को कष्ट दे रहा था और दूसरे शूल ने पाँव की पीड़ा को हर लिया। श्रीराम जी ने बालि के साथ यही तो किया। क्योंकि बालि के पापों व अत्याचारों की सूची इतनी लंबी व कलुषित थी, कि मृत्यु दंड से कमतर उसके लिए कोई दंड मान्य ही न होता। और ऐसे आतंकवादी को छुपकर मारना कोई पाप नहीं अपितु श्रीराम जी की युद्ध  कला व रण नीति का ही हिस्सा था। और इसके लिए श्रीराम जी को सवालों के कटघरे के खड़े करना सीधे, सीधे अक्षमय अपराध है। यद्यपि हमें उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए, उनके चरणों में सदैव नतमस्तक होना चाहिए। 

अज्ञानता का स्तर तो देखिए कि लाखों वर्षों के उपरांत भी मुट्ठी भर लोग आज भी इस कुंठित भाव से ग्रसित हैं। गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं कि अगर श्रीराम जी व उनकी दिव्य लीलाओं को समझना है तो हमें इस चैपाई पर चिंतन-मनन अवश्य करना पड़ेगा-

जे श्री संबल रहित नहिं संतन्ह न प्रिय साथ।

तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।

गोस्वामी जी एक राहगीर का उदाहरण देते हैं कि, जैसे एक राहगीर को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने के लिए राह खर्च, किसी का साथ, और लक्ष्य के प्रति प्रेम का होना आवश्यक है। ठीक वैसे ही ईश्वरीय राह का पथिक अपने साथ श्र(ा रूपी राह खर्च अवश्य रखे। अकेला कभी न चले किसी संत सत्गुरु का साथ व सान्निध्य अवश्य प्राप्त करे। अपने परम लक्ष्य श्रीराम जी के प्रति उसके मन में अगाध् प्रेम हो। अगर यह तीन स्तर पर पथिक, अपने आप को पूर्ण पाता है तभी वह प्रभु की लीलाओं को कुछ-कुछ समझ पाता है। लेकिन वर्तमान समाज की तो अवस्था ही बड़ी दयनीय है। साधू संतों के प्रति उनमें कोई भाव ही नहीं। घरों में पिफल्मी सितारों की तस्वीरों की तो भरमार होगी लेकिन श्रीराम जी व अन्य इष्ट, देवी देवताओं की मूर्तियां ढूंढने से भी नहीं मिलती। अगर हैं भी तो वे मूर्तियां अत्यंत लघु रूप में किसी पर्दे में छुपी हुई मिलती हैं। व्हटस्एप व अन्य शोशल मीडिया प्लेटपफार्म पर भी, हमारे इष्ट देवों के अपमान व उपहास में अनेकों व्यंग्य व चुटकुले होते हैं। और हमें लगता ही नहीं कि इसमें कुछ अनुचित भी है। ऐसे कुसंस्कारों की ओढ़नी ओढ़कर भला श्रीराम जी के पावन व दिव्य चरित्रा को हम कैसे समझ सकते हैं। इसलिए बालि भी श्रीराम जी को नहीं समझ पा रहा था। लेकिन श्रीराम जी बालि को और क्या समझाते हैं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम

- सुखी भारती

डिस्क्लेमर: प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।


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