Gyan Ganga: हनुमानजी ने माता सीता के समक्ष अपना छोटा रूप ही क्यों धारण किया था?

Hanumanji
सुखी भारती । Mar 11 2022 5:01PM

श्रीहनुमान जी भले ही कितने भी योजन का आकार धारण कर सकते थे। लेकिन माता सीता जी के समक्ष, वे गौण रूप ही धारण करते हैं, जोकि बिल्कुल छोटा है। कारण कि जगत जननी के समक्ष उपस्थित होना हो, तो स्वयं को बड़ा नहीं, अपितु छोटा बनाकर ही उपस्थित होना चाहिए।

श्रीराम जी जैसा धैर्य भला किस में होगा। निश्चित ही ऐसा धीरज या तो ईश्वरीय अवतार में होता है, या फिर किसी पूर्ण संत में। श्रीहनुमान जी के व्यक्तित्व में दोनों दिव्य विभूतियों का ही मिश्रण है। वे अवतार इसलिए हैं, क्योंकि वे भगवान शंकर के साक्षात अवतार हैं। और संत व महान तपस्वी होने में तो संदेह ही नहीं। किसी पीड़ित प्राणी का मानसिक उपचार कैसे किया जाता है, यह भला उनसे अधिक अच्छे से कौन जान सकता है। वे किसी भी कीमत पर माता सीता जी का हौसला गिरने नहीं देना चाहते। और माता सीता जी ऐसी दयनीय आँतरिक मनोदशा से जूझ रही हैं, कि उन्हें पल प्रतिपल संदेह आन घेर लेता है। पर संत के वचन तो हैं ही साक्षात प्रकाश पुँज, जिनके प्रभाव से संदेह रुपी अँधकार टिक ही नहीं पाता है। श्रीहनुमान जी जानते हैं, कि माता सीता जी के दुख का स्थाई निवारण, बिना श्रीराम जी के पावन मिलन के तो होना संभव ही नहीं है। ऐसे में श्रीहनुमान जी माता सीता जी को, फिर एक साहसी कदम की बात कहते हैं। वे कहते हैं, कि हे माता! आप विश्वास मानें, मैं चाहुँ तो आपको अभी यहाँ से ले जाऊँ। लेकिन मुझे श्रीराम जी की शपथ है, कि उन्हें मुझे इसकी आज्ञा नहीं दी है। अतः आप बस कुछ दिन और धीरज धरें। प्रभु श्रीराम जी वानरों की विशाल लेकर रावण की इस अपावन नगरी में आयेंगे, और समस्त वानरों का वध कर आपको ले जायेंगे। नारद आदि समस्त ऋर्षि-मुनि तीनों लोकों में उनका यश गायेंगे-

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‘अबहिं मातु मैं ताउँ लावई।

प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई।।

कछुक दिवस जननी धरु धीरा।

कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।

तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।’

जैसे ही माता सीता जी ने यह सुना, तो वे फिर प्रश्नों के जाल में, मानो उलझी-सी प्रतीत हो रही हैं। उन्हें शायद यह प्रतीत हुआ, कि श्रीहनुमान जी भावावेश में आकर कुछ अधिक ही हुँकार तो नहीं भर रहे? कारण कि इस समय श्रीहनुमान जी का रूप इतना छोटा था, कि ऐसा प्रतीत होता था, कि कोई साधारण व्यक्ति भी उन्हें अपने पाँव तले आकर कुचल जाये। और ऐसे में यह कहना कि हे माता, आप निश्चित रहें, प्रभु वानरों की सेना लेकर आयेंगे, और आपको लेकर चले जायेंगे। यह कुछ अतिश्योक्ति नहीं होगा? यह विचार कर माता सीता जी, पवनसुत से फिर प्रश्न करती हैं, कि हे हनुमंत लाल, आपका यह दावा सुनकर मेरे मन में बड़ा भारी संदेह हो रहा है, कि तुम सब मिलकर क्या राक्षसों को पराजित कर पाओगे? क्या बाकी वानर भी तुम्हारी भाँति ही, यूँ नन्हें-नन्हें से ही हैं?

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‘मोरें हृदय परम संदेहा।

सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा।।

कनक भूधराकार सरीरा।

समर भयंकर अतिबल बीरा।।’

श्रीहनुमान जी ने जैसे ही, माता सीता जी के यह वचन सुने, तो उन्होंने अपने शरीर के आकार को असीमत कर दिया। उनका सरीर सोने के पर्वत के समान चमकता हुआ, अत्यंत विराट व विशाल था। जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यंत बलवान व वीर था। यह देख कर श्रीसीता जी के मन में विश्वास पैदा हो गया, कि वानर इन विशालकाय राक्षसों का सामना करने में समर्थ हैं। इसके पश्चात श्रीहनुमान जी ने तत्काल ही अपना रूप छोटा कर लिया-

‘सीता मन भरोस तब भयऊ।

पुनि लघु रुप पवनसुत लयऊ।।’

तात्विक चिंतन करने पर समझ आती है, कि क्या माता सच में इतनी हतोत्साहित हैं, कि वे बात-बात पर श्रीहनुमान जी पर संदेह व्यक्त करती हैं। तो इसका वास्तविक ऊत्तर है ‘नहीं’। कारण कि जो स्वयं जगत जननी हों, भला उन्हें क्या नहीं पता कि मेरे किस अंश में, कितना बल है। बस वे तो संसार के समस्त साधकों के समक्ष, एक आध्यात्मिक संदेश को प्रगट करना चाहती हैं। संदेह यह, कि अगर साधक वाकई में भक्ति व शक्ति को प्राप्त करना चाहता है। तो उसे दोनों ही गुणों में निपुण होना चाहिए। उसे ऐसा नहीं, कि मात्र छोटा ही होना आना चाहिए। समय आने पर उसे बड़ा होना भी सीखना चाहिए। सौभाग्य से यह गुण तो श्रीराम जी के समस्त वानरों में, कूट-कूट कर भरा होता है। श्रीहनुमान जी भले ही कितने भी योजन का आकार धारण कर सकते थे। लेकिन माता सीता जी के समक्ष, वे गौण रूप ही धारण करते हैं, जोकि बिल्कुल छोटा है। कारण कि जगत जननी के समक्ष उपस्थित होना हो, तो स्वयं को बड़ा नहीं, अपितु छोटा बनाकर ही उपस्थित होना चाहिए। लेकिन जब माता ने कहा, कि लंका में तो बड़े भारी राक्षस हैं, जो अतिअंत बलवान हैं। भला बाकी वानर, जो कि तुम्हारी ही भाँति छोटे हैं, तो ऐसे में भला, तुम सब उन दुष्ट व विशाल राक्षसों का सामना कैसे करोगे। तो श्रीहनुमान जी ने अपने आकार को बड़ा बनाकर दिखा भी दिया, कि हे माता, हम ऐसे साधक हैं, कि जहाँ बड़े होना हो, वहाँ बड़े से भी बड़े हो जाते हैं। और जहाँ छोटे होना हो, वहाँ छोटे से भी छोटा होने में हमको कोई संकोच नहीं।

आगे माता सीता जी एवं श्रीहनुमान जी के मध्य क्या वार्ता होती है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती

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