Gyan Ganga: क्यों श्रीराम ने क्रोधित होकर सुग्रीव के वध की प्रतिज्ञा की थी

Lord Rama
सुखी भारती । Jun 15 2021 2:38PM

कुछ मूढ़ प्रवृति के प्राणी ऐसी वृति धारण कर लेते हैं कि श्रीराम जी ने अवश्य ही प्रतिकार से पीड़ित होकर ही यह प्रण लिया होगा। उनके भी अहंकार को कहीं न कहीं ठेस लगी होगी कि हमारे ही पराक्रम से तो सुग्रीव को राजपाट मिला है।

क्या किसी ने सूर्य भगवान को पूर्व दिश को छोड़, पश्चिम दिशा में से निकलते देखा है? या फिर क्या गंगा मईआ द्वारा किसी को अमृतत्व देने की बजाय अकाल मृत्यु प्रदान करते देखा है? नहीं न! क्योंकि ऐसी उल्टी धारा बहती ही नहीं है। ठीक ऐसे ही श्रीराम जी भी कभी क्रोध की मुद्रा होंगे, किसी को मारने का संकल्प करेंगे, क्या ऐसी विचित्र लीला करते प्रभु श्रीराम जी को किसीने देखा है? नहीं! लेकिन तब फिर क्यों प्रभु श्रीराम जी क्रोधित होकर सुग्रीव के वध की प्रतिज्ञा करते हैं। यह देख मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है, कि क्या प्रभु को भी क्रोध प्रभावित करता है? तो पिछले अंक में हमने जाना था कि प्रभु का सिमरण तो क्रोध को भी नाश कर देता है। फिर भला क्रोध की क्या बिसात कि क्रोध प्रभु का कुछ बिगाड़ पाये। लेकिन फिर भी मन में धँसा संशय का काँटा निकल ही नहीं पा रहा, कि प्रभु को आखिर क्रोध क्यों आया। लेकिन ज़रा गहराई से चिंतन करेंगे, तो पायेंगे कि जितना प्रभु ने सुग्रीव के लिए उपकार किया है, और बदले में सुग्रीव ने जिस प्रकार से प्रभु की कृपाआों का तिरस्कार किया है, उसे देखते हुए तो लगता है कि प्रभु का क्रोध करना भी न्याय संगत ही था। लेकिन यक्ष प्रश्न तो फिर वहीं रहा कि क्या प्रभु को क्रोध आता है अथवा नहीं, आता है तो क्यों आता है? चलिए इस विषय पर भी विस्तार से चर्चा कर लेते हैं। क्या हमें पता है, कि क्रोध के उदय का स्रोत किसे कहा गया है? तात्विक दृष्टि से आँकलन करेंगे, तो जब किसी व्यक्ति के अहंकार को चोट लगती है तो वह क्रोध की अग्नि से पीड़ित हो जाता है। उसके हृदयाँगण में प्रतिकार लेने की ज्वाला धधकने लगती है। ऐसे में वह भी ऐसे ही प्रण करता है कि मैं अमुक प्राणी को इस तय सीमा के अन्तर्गत मृत्यु के घाट उतार दूंगा। बाहरी दृष्टि से देखेंगे तो कुछ ऐसा ही प्रण तो श्रीराम जी ने भी किया। प्रभु ऐसा व्यवहार करते हैं मानों वे अतिअंत क्रोधित हों, और घोषणा करते हैं-

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‘जेहिं सायक मारा मैं बालि। 

तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली’

यहाँ भी कुछ मूढ़ प्रवृति के प्राणी यही वृति धारण कर लेते हैं, कि श्रीराम जी ने भी यहाँ अवश्य ही प्रतिकार से पीडि़त होकर ही यह प्रण लिया होगा। उनके भी अहंकार को कहीं न कहीं ठेस लगी होगी, कि हमारे ही पराक्रम से तो सुग्रीव को राजपाट मिला है। और अब उसकी इतनी हिम्मत कि हमीं से धोखा करे। शायद वह भूल गया है, कि हम क्या से क्या कर सकते हैं? हमने तो महाबलि बालि तक को मार गिराया, तो सुग्रीव भला कौन से बाग की मूली है। हम कल ही उसे मृत्यु के घाट उतार देंगे। सज्जनों, निश्चित ही अहंकारी व्यक्ति की ऐसी ही भाषा होती है। वह भी ऐसे ही भयंकर दावे व बड़ी-बड़ी डींगे हाँकता है। यहाँ हमने भी अपनी मानव बुद्धि का औजार चलाया और निष्कर्ष निकाल दिया कि लो जी! श्रीराम जी भी अन्य जीवों की तरह ही, अहंकार से पीड़ित हैं। यद्यपि सत्यता तो यह है, कि श्रीराम जी में अहंकार की वृति लेश मात्र भी नहीं है। अपितु उनके तो स्मरणमात्र से ऐसे अवगुणों का नाश हो जाता है-

‘जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। 

ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा।।’

श्रीराम जी संग सुग्रीव के बिताये विगत काल के प्रसंगों पर अगर हम दृष्टिपात करें, तो प्रभु के किसी भी संस्मरण में यह नहीं झलकेगा, कि श्रीराम जी कहीं स्वयं को कुछ विशेष सिद्ध करने की चेष्टा कर रहें हों। श्रीराम जी को अगर अहंकार ही होता, तो क्या रघुकुल नायक होने के पश्चात भी प्रभु श्रीराम जी दुदुंभि राक्षस के कंकाल को उठाने का यह नीच सा कर्म करते? क्या वे एक लकड़हारे की भांति वनों में ताड़ के वृक्षों को काटते फिरते? निश्चित ही इसका उत्तर नहीं है। श्रीराम जी यहाँ स्पष्ट कह देते कि हे सुग्रीव हमें भला तुम्हारी क्या आवश्यक्ता! उल्टे हमारी आवश्यक्ता तो तुमको है। क्योंकि बालि से भयक्राँत व प्रताड़ित मैं नहीं, अपितु तुम हो। बालि के अत्याचारों से छुटकारा तुम्हें चाहिए, हमें नहीं। यद्यपि बालि तो हमें भगवान की संज्ञा देता है, पूजनीय दृष्टि से निहारता है। भला हम उसे क्यों मारने लगे? आखि़र उसने हमारा व्यक्तिगत बिगाड़़ा ही क्या है। रही बात कि हमें सीता जी की खोज हेतु दोनों में से किसी की भी आवश्यक्ता है, तो यह तुम्हारा भ्रम है। क्योंकि संपूर्ण सृष्टि में घूमकर भी देख लिया जाये, तो हमें किसी की भी आवश्यकता नहीं है। अगर हमें वास्तव में ही किसी के सहयोग की आवश्यक्ता होती, तो हे सुग्रीव! हम आपके रूप में एक हारे, शोषित व भीरू व्यक्ति की ही आस कयों पालते? क्योंकि रावण को पराजित व झुकाने के लिए बालि से उपयुक्त पात्र, भला और कौन हो सकता था? लेकिन हमने उसे त्याग, तुम्हें सेवा का अवसर दिया। क्योंकि तुम शोषित थे, पीड़ित थे, और हार चुके थे। और हार चुके जीवों के गले में जीत का हार डालना, यही तो हमारा स्वभाव है। ऐसा कोई किंचित भर भी भ्रम न पाल ले कि तुमसे, हमारा कोई स्वार्थ था, और उसकी पूर्ति जब नहीं हुई तो हम रूष्ट होकर तुम्हें मारने का संकल्प लेने लगे। हमारा किसी से क्या स्वार्थ। हाँ! इतना स्वार्थ अवश्य है कि प्रत्येक जीव अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण करने के पश्चात ही संसार से विदा ले, मोक्ष को प्राप्त करे। सज्जनों केवल श्रीराम जी ही क्यों! महापुरुषों ने तो कहा है कि संसार में यह चारों भी मात्र इसीलिए देह धारण करते हैं कि इनका केवल परमार्थ करना ही एकमात्र लक्ष्य था-

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‘तरवर सरवर संत जन चौथा वर्षा मेह।

परमार्थ के कारने चारों धारे देह।।’

तरवर अर्थात् पेड़, भले ही सदैव बड़े ही मीठे फल प्रदान क्यों न करे। लेकिन कभी भी पेड़ उन फलों का स्वयं भक्षण नहीं किया करते। सरोवर भी जल से भले कितना ही किनारों तक भी लबालब क्यों न हो, लेकिन तब भी, सरोवर अपना जल कभी भी सेवन नहीं करता। बादल मानवता का कल्याण करने हेतु बरसते हैं, तो बहुत ऊँचाई से गिरते हैं। निश्चित ही इस क्रिया में उन्हें चोट भी लगती होगी। लेकिन चोट के भय से, क्या उन्होंने कभी बरसना छोड़ा? ठीक ऐसे ही संत जन अथवा प्रभु भी जब देह धारण करते हैं, तो उनका उद्देश्य भी विशुद्ध परमार्थ ही होता है। सृष्टि निर्माता होकर भी वे संसार में सेवक से होकर विचरण करते हैं। जबकि सत्यता यह होती है कि उनकी सेवा में लगने से जीव का ही कल्याण निहित होता है। जैसे वैद्य की औषधि ले लेने में मरीज़ का ही हित छुपा होता है। मरीज़ अगर वैद्य को त्याग भी दे, तो वैद्य के पास तो और भी पीड़ित व मरीज़ होंगे, जिनके उपचार में वैद्य को लगना है। लेकिन उस मरीज़ के पास अब सिवा बिमारी व लाचारी के और क्या रह जायेगा? हम तर्क दे सकते हैं कि अगर वैद्य के पास अनेकों अन्य मरीज़ हैं, तो मरीज़ के पास भी कौन से दूसरे वैद्य नहीं। बिल्कुल होंगे। लेकिन मरीज़ ने जब ठान ही लिया है कि मैं किसी वैद्य से उपचार करवाऊँगा ही नहीं, तो फिर तो भले ब्रह्मा ही क्यों न आ जायें, वह मरीज़ स्वस्थ ही नहीं हो सकता। 

एक बात और! ऐसे मूढ़ मरीज़ के पास, एक नहीं तो कोई दूसरा सांसारिक वैद्य हो सकता है, जो इस नश्वर तन का उपचार करता है। लेकिन बात जब आत्मिक उपचार की हो तो वहाँ दो, चार अथवा कई वैद्य नहीं होते। अपितु एक ईश्वर अथवा गुरु ही वैद्य होते हैं। और सुग्रीव के लिए एकमात्र वे वैद्य थे, भगवान श्रीराम। जो सुग्रीव की चौरासी का चक्र काट सकते थे, और उन्हें त्यागकर कहीं जाने का अर्थ था, स्वयं के विनाश को साक्षात निमंत्रण। और भगवान श्रीराम जी सुग्रीव के साथ भला यह कैसे होने दे सकते थे। इसलिए साम, दाम, दण्ड़, भेद, जैसे भी हो, प्रभु श्रीराम जी सुग्रीव को लोक कल्याण पथ पर लाना ही चाहते थे, और उनका क्रोध इसी महान उद्देश्य की एक कड़ी थी। इन समस्त प्रमाणों व तर्कों के आधार पर निश्चित ही अब हम ताल ठोककर कह सकते हैं कि श्रीराम जी की प्रत्येक लीला में परहित ही सर्वोपरि होता है। श्रीराम जी ने सुग्रीव को जब मारने का संकल्प लिया, तो यहाँ भी श्रीराम जी का उद्देश्य जीव का कल्याण ही था।

श्रीराम जी सुग्रीव का वध करते हैं अथवा नहीं, जानेंगे अगले अंकों में---(क्रमश)---जय श्रीराम!

-सुखी भारती

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