फिल्मी-जगत का गुस्सा जायज है, कुछ लोगों ने पूरे उद्योग को ही बदनाम कर दिया

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सभी चैनलों पर 1994 के ‘केबल टेलिविजन नेटवर्क रुल्स’ सख्ती से लागू किए जाने चाहिए। उनको अभिव्यक्ति की पूरी आजादी रहे लेकिन यह देखना भी सरकार की जिम्मेदारी है कि कोई चैनल लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन न कर पाए और करे तो वह उसकी सजा भुगते।

देश के 34 फिल्म-निर्माता संगठनों ने दो टीवी चैनलों और बेलगाम सोशल मीडिया के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकदमा ठोक दिया है। इन संगठनों में फिल्मी जगत के लगभग सभी सर्वश्रेष्ठ  कलाकार जुड़े हुए हैं। इतने कलाकारों का यह कदम अभूतपूर्व है। वे गुस्से में हैं। कलाकार तो खुद अभिव्यक्ति की आजादी के अलम बरदार होते हैं। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत के मामले को लेकर भारत के कुछ टीवी चैनलों ने इतना ज्यादा हो-हल्ला मचाया कि वे अपनी मर्यादा ही भूल गए। उन्होंने देश के करोड़ों लोगों को कोरोना के इस संकट-काल में मदद करने, मार्गदर्शन देने और रास्ता दिखाने की बजाय एक फर्जी जाल में रोज़ घंटों फंसाए रखा।

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सुशांत ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उसकी हत्या की गई है, इस मनगढ़ंत कहानी को लोक-लुभावन बनाने के लिए इन टीवी चैनलों ने क्या-क्या स्वांग नहीं रचाए ? इन्होंने सुशांत के कई साथियों और परिचितों पर उसे ज़हर देने, उसे नशीले पदार्थ खिलाने, उसके बैंक खाते से करोड़ों रु. उड़ाने और उसकी रंगरलियों के कई रसीले किस्से गढ़ लिए। यह सारा मामला इतना उबाऊ हो गया था कि आम दर्शक सुशांत का नाम आते ही टीवी बंद करने लगा था। इन बेबुनियाद फर्जी किस्सों के कारण उस दिवंगत कलाकार की इज्जत तो पैंदे में बैठी ही, फिल्मी जगत भी पूरी तरह बदनाम हो गया। यह ठीक है कि फिल्मी जगत में भी कमोबेश वे सब दोष होंगे, जो अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं लेकिन इन चैनलों ने ऐसा खाका खींच दिया जैसे कि हमारा बॉलीवुड नशाखोरी, व्यभिचार, ठगी, दादागीरी और अपराधों का अड्डा हो।

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सच्चाई तो यह है कि फिल्मी जगत पर जैसी सेंसरशिप है, किसी क्षेत्र में नहीं है। इसीलिए भारतीय फिल्में राष्ट्र निर्माण में बेजोड़ भूमिका अदा करती हैं। मुंबई के कलाकार मजहब, जाति और भाषा की दीवारों को फिल्मों में ही नहीं लांघते, अपने व्यक्तिगत जीवन में भी जीकर दिखाते हैं। सुशांत-प्रकरण में हमारे टीवी चैनलों ने अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) बढ़ाने और विज्ञापनों से पैसा कमाने में जिस धूर्त्तता का प्रयोग किया है, वह उनकी इज्जत को पैंदे में बिठा रही है। यह ठीक है कि जिन नेताओं और पार्टी प्रवक्ताओं को अपना प्रचार प्रिय है, वे इन चैनलों की इस बेशर्मी को बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन देश में मेरे-जैसे लोग भी हैं, जो इन चैनलों के बेलगाम एंकरों को ऐसी ठोक लगाते हैं कि वे जिंदगी भर उसे याद रखेंगे। देश के कुछ टीवी चैनलों का आचरण बहुत मर्यादित और उत्तम है लेकिन सभी चैनलों पर 1994 के ‘केबल टेलिविजन नेटवर्क रुल्स’ सख्ती से लागू किए जाने चाहिए। उनको अभिव्यक्ति की पूरी आजादी रहे लेकिन यह देखना भी सरकार की जिम्मेदारी है कि कोई चैनल लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन न कर पाए और करे तो वह उसकी सजा भुगते।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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