दूसरों के घोटाले उजागर करते करते मीडिया खुद ही टीआरपी घोटाला कर बैठा
आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है। टीआरपी की इस ठगी के बारे में बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है।
चौबीस घंटे सबकी खबरें देने वाले टीवी न्यूज़ चैनल अगर खुद ही ख़बरों में आ जाए, तो इससे बड़ी हैरानी व अचंभित करने वाली ख़बर क्या होगी। परंतु पिछले कुछ घंटों में ऐसा ही नज़ारा टीवी पर हम सब देख रहे हैं। पर ये तो सीधा-सीधा उन करोड़ों दर्शकों की आस्था के साथ धोखा है, जो टीवी मीडिया पर विश्वास करते हैं। जिनके लिए टीवी पर दिखाई जाने वाली न्यूज़ व व्यूज़ दोनों ही सत्य हैं। जिनको टीवी व उसकी लोकप्रियता तय करने वाले टीआरपी सिस्टम व उसके खेल के बारे में कुछ नहीं पता। जिनको नहीं पता कि जिस चैनल की जितनी टीआरपी, उसके पास उतने ही अधिक विज्ञापन। और जो जितने विज्ञापन दिखा रहा है वो उतना ही अधिक लाभ कमा रहा है। टीवी मीडिया अपनी अस्सी प्रतिशत इन्कम इन्हीं विज्ञापनों के माध्यम से ही प्राप्त करता है। इसलिए टीवी के प्रत्येक कार्यक्रम में संबंधित विषय कम और विज्ञापनों की भरमार हमको ज्यादा दिखाई देती है। भले ही मीडिया से जुड़े लोग इस टीआरपी के खेल को जानते हों, लेकिन आज दर्शकों को भी बड़े पैमाने पर इसकी सच्चाई जानने का मौका मिला है। अब दर्शकों को भी टीवी टीआरपी का प्रोपेगंडा समझ आ जाएगा। उन्हें भी ध्यान आएगा कि प्रत्येक टीवी चैनल ज्यादा विज्ञापन पाने के लिए इस टीआरपी की दौड़ में अपने को सबसे आगे दिखाने में कैसे लगा हुआ है। दर्शकों को पत्रकारिता भाव, मूल्य, आदर्श, मानवता ये सब शब्द इस टीआरपी के आगे अब कहीं धूमिल होते हुए दिखाई देते हैं।
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आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है। टीआरपी की इस ठगी के बारे में बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है। टीआरपी यानी ‘टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स’। ये टीआरपी ही तय करती है कि कौन-सा टीवी चैनल सबसे लोकप्रिय है। अगर टीआरपी की वजह से चैनलों को मिलने वाले धंधे की गिनती कर ली जाए तो यह घपला अरबों रुपए तक पहुंचेगा। टीआरपी की तथाकथित मेरिट लिस्ट कैसे बनाई जाती है? एक संस्था है टैम यानी ‘टेलीविजन ऑडियंस मिजरमेंट’ और दूसरी है इनटैम। पहली वाली संस्था में इंडिया का इन लगा दिया गया है। दोनों के पास टीवी से जोड़ कर रखने वाले पीपुल मीटर नाम के बक्से हैं जो यह दर्ज करते रहते हैं कि किस टीवी पर कौन-सा चैनल कितनी देर तक देखा गया और टीआरपी तय हो जाती है। डिवाइस में लगे मीटर से निकली प्रत्येक मिनट की जानकारी मॉनिटरिंग टीम के जरिए इंडियन टेलीविजन ऑडियंस मेजरमेंट एजेंसी, अर्थात् इनटैम को भेजी जाती है। इसका आकलन करने के लिए एक दर्शक के द्वारा लगातार देखे जाने वाले कार्यक्रम और समय को रिकॉर्ड किया जाता है और उसके आधार पर प्राप्त डाटा को तीस से गुना कर कार्यक्रम का एवरेज रिकॉर्ड निकाल लिया जाता है। इस एवरेज को आधार बना कर पॉपुलर चैनलों के साथ साप्ताहिक अथवा मासिक टॉप दस की सूची तैयार होती है। ऐसा नहीं कि टीवी चैनलों के धुरंधर मालिकों और विज्ञापन एजेंसियों के चंट संचालकों को इस धोखाधड़ी का पता न हो कि टीआरपी असल में देश का असली सच नहीं बताती है।
टीआरपी के इस खेल की चर्चा पूर्व में भी कई बार उठी है, लेकिन हर बार वो चर्चा ही बन कर रह जाती है। टीआरपी के फेर में पिछले सप्ताह मुंबई में दो मराठी चैनलों के मालिक गिरफ्तार हुए हैं और एक तेज तर्रार चैनल भी इसके घेरे में आया है। मुंबई पुलिस के मुताबिक 2000 घरों में टीआरपी के द्वारा अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का ये खेल चल रहा था और प्रत्येक घर को 400 से 500 रुपये इसके लिए दिये जाते थे। टीआरपी को लेकर ये स्थिति अगर मुंबई की है तो स्वाभाविक है बाकी स्थानों पर भी इस प्रकार के माफ़िया सक्रिय होंगे। इससे एक बात तो सिद्ध है कि टीआरपी के नाम पर एक बहुत बड़ा षड्यंत्र पूरे देश भर में चल रहा है। जिससे मीडिया की साख पर आंच आ रही है।
कभी-कभी लगता है कि ये टीवी के संपादक नहीं, टैम की कठपुतलियां हैं। आखिर इन टीआरपी के मारे बेचारे टीवी संपादकों को मिल-बैठकर यह मांग क्यों नहीं करनी चाहिए कि टैम वाले टीआरपी रिपोर्ट त्रैमासिक दिया करें। ये टीवी संपादक मिलते-बैठते भी तभी हैं जब सरकार इन्हें आंख तरेरती है, रेगुलेट करने की बात करती है। तब ये भाई लोग फौरन इकट्ठा होकर, सरकार के मंत्री के साथ बैठक कर, या अपनी मीटिंग में मंत्री को बुलाकर मीडिया की रक्षा करने संबंधी भारी-भरकम लोकतांत्रिक शब्द उगलने लगते हैं। इन टीवी संपादकों को अपने न्यूज चैनलों को टैम के हाथों संचालित होने से बचाने के लिए टीआरपी रिपोर्ट छह महीने या तीन महीने में जारी किए जाने की जोरदार मांग करनी चाहिए। इन्हें टैम की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने, ग्रामीण इलाकों को भी टीआरपी दायरे में लाने, टीआरपी मापने की प्रक्रिया को ज्यादा वैज्ञानिक बनाने, टैम की कार्यप्रणाली पर नजर रखने के लिए टीवी जर्नलिस्टों और बुद्धिजीवियों की कमेटी बनाने की मांग करनी चाहिए। टैम वाले चौतरफा दबाव पर मानेंगे, न मानेंगे तो टीवी संपादकों के आह्वान पर पूरी टीवी इंडस्ट्री के जर्नलिस्ट सड़कों पर आ जाएंगे। तब टैम वाले डर के मारे कम से कम अपने अंदर बदलाव तो करेंगे। जिस दिन टीवी के संपादक और टीवी पत्रकार प्रिंट वालों को साथ लेकर टैम रिपोर्ट साप्ताहिक करने की जगह त्रैमासिक करने की मांग पर सड़कों पर आ गए तो सरकार का भी दबाव टैम पर बढ़ जाएगा। पर संपादकजी लोग ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिससे टामियों का कोई बाल बांका होता हो, यह बात तो बिलकुल पक्की है क्योंकि इन महान संपादकों को कोई दूसरा कुछ करने के लिए समझाए और कुछ करने के लिए सुझाव दे, इन्हें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होता और न होगा।
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ऐसा लगता है जैसे टीवी मीडिया टीआरपी के चक्कर में अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से नहीं कर पा रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि टीवी को टीआरपी के इस कुचक्र से अपने आप को निकालना होगा और यह कार्य स्वयं टीवी से जुड़े पत्रकार व बड़ी संस्थाएं ही कर सकती हैं। कहीं ऐसा न हो भस्मासुर की तरह टीवी इंडस्ट्री खुद ही टीआरपी की इस दौड़ में अपनी थोड़ी बहुत बची हुई विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दे। अपने आप को लोकतंत्र का रक्षक व प्रहरी बताने वाले टीवी मीडिया को अब अपने इस कथन को सिद्ध करना होगा। उसे अपनी भूमिका, विश्वसनीयता व सार्थकता को दर्शकों के दिलों में प्रयास पूर्वक पुनः स्थापित करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि मीडिया संस्थाएं व सरकार जनता के सरोकारों को ध्यान में रखते हुए, इस टीआरपी को लेकर कुछ पैमाने तय करें। जिससे मीडिया वास्तव में अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वहन भी ठीक से करता हुआ दिखे व दर्शकों में भी उसका विश्वास बना रहे।
-डॉ. पवन सिंह मलिक
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक हैं)
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