हिमालय के बेटे का क्या कुसूर था ? जेहादियों ने दिल्ली में क्यों ली जान ?

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तरुण विजय । Mar 5 2020 3:25PM

दिलबर सिंह नेगी। हिमालय का बेटा। पहाड़ से उतर कर दिल्ली में अपनी खुशी से नहीं बल्कि पहाड़ में बेरोजगारी का शिकार होकर अपने माता-पिता की सहायता के लिए आजीविका कमाने मैदान में उतर आया था। दिल्ली में पहाड़ के लोग बरसों से, शायद सदियों से ऐसा ही करते आये हैं।

दिलबर सिंह नेगी अपने घर का छोटा प्यारा लाड़ला और माता-पिता की आशा था। पौड़ी गढ़वाल के एक छोटे से गांव में उनका परिवार रहता है। दो भाई एक बहन। बहन छोटी। अभी पढ़ रही है। दूसरा भाई बारहवीं पास और वो भी काम की तलाश में है। बीस साल का दिलबर बहुत आशा के साथ दिल्ली काम ढूंढ़ते हुए आया था और एक मिठाई की दुकान में उसे सहायक की नौकरी मिल गई। मुश्किल से आठ-दस हजार महीना पगार। अभी छः महीने दिल्ली में आये हुए थे। होली पर घर जाने की सोचता था। 25 फरवरी को दिल्ली में दंगे शुरू हो गये थे। दिलबर जिस मिठाई की दुकान पर काम करता था उसका मालिक अनिल पाल शाम को ही दुकान छोड़कर चला गया। दो और कारीगर थे वे भी रात को ही चले गए। दिलबर सिंह ऊपर छत पर छिप गया था। अनिल पाल के अनुसार उसने दिलबर से कहा था कि तुम भी जल्दी निकल जाना। पर ऐसा हो नहीं पाया। इस क्यों और क्या को कोई जवाब देने वाला बचा नहीं। दिलबर को ढूंढ़ने के लिए जब सुबह अनिल पाल गया तो नाली में उसकी जली कटी लाश मिली।

दिलबर के बूढ़े और असमर्थ माता-पिता पहाड़ में इंतजार कर रहे थे। वे रात भर दिलबर से फोन पर सम्पर्क की कोशिश करते रहे। उन्हें सिर्फ एक आवाज सुनने का इंतजार था- मां ठीक हूं। यहां से कल चल दूंगा।

कोई आवाज नहीं आई। फोन की घंटी बजती ही रही। बस एक खबर मिली कि अब दिलबर कभी नहीं आएगा।

पहाड़ में जिसने भी यह खबर सुनी वह खुद को रोक नहीं पाया। दिलबर ने क्या किया था कि उसे दिल्ली में जिंदा जला दिया गया। लाश के भी टुकड़े कर दिये गये। आखिरी दर्शन तक कोई कर नहीं पाया। जिन्दा दिलबर तो नहीं पहुंचा, मरने के बाद भी उसका शरीर गांव तक नहीं ले जाया जा सका। कुछ बचा ही नहीं था तो गांव क्या ले जाते? दिल्ली की सेवा समितियों ने दिलबर के पार्थिव शरीर के कुछ हिस्से दिल्ली में ही अग्नि को सौंप दिए।

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दिलबर सिंह नेगी। हिमालय का बेटा। पहाड़ से उतर कर दिल्ली में अपनी खुशी से नहीं बल्कि पहाड़ में बेरोजगारी का शिकार होकर अपने माता-पिता की सहायता के लिए आजीविका कमाने मैदान में उतर आया था। दिल्ली में पहाड़ के लोग बरसों से, शायद सदियों से ऐसा ही करते आये हैं। बीस-पच्चीस लाख की आबादी हो गई है यहां। पहाड़ के हैं लेकिन पहाड़ जा नहीं पाते। मैदान में हैं लेकिन मैदान के हो नहीं पाते।

वे जो क्षण दिलबर के आखिरी क्षण थे वे कितने भयावह, त्रासद और कारूणिक रहे होंगे। उन क्षणों में उसके मानस में किसका चित्र घूम रहा होगा। वह आखिरी बात किससे करने के लिए तड़पा होगा। उन क्षणों को क्यों पछतावे से याद कर रहा होगा जब वह शायद सुरक्षित निकल सकता था। वह भारत का देशभक्त नागरिक था। तिरंगे के लिए जान देता था। वह पक्का हिंदू था और जब इस देश में हिंदू बहुमत है, हिंदू हितरक्षक सरकार है तो उस समय उस देश की राजधानी में उसे इस तरह तड़पा तड़पा कर मारा गया मानो दिल्ली का वो हिस्सा कराची या लाहौर बन गया हो।

कांग्रेस, कम्युनिस्ट, आप सब मुस्लिम लीग बन गये। वही कांग्रेस जो 1984 में सिखों के लिए जिन्ना और सुहरावर्दी बन गई थी। चुन-चुनकर इस तरह से सिखों को मारा गया कि हिन्दुस्तान की दिल्ली दरिन्दा बन गई और उसके बाद बयान आया कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।

यह यहीं क्यों होता है? और देशभक्तों को कब तक अपनी देशभक्ति की कीमत अपना घर लुटाकर, इज्जत गंवाकर, अपनों की नृशंस हत्यायें अपनी आंखों के सामने देखकर चुकानी पड़ती रहेगी? 1947 के बाद कितनी बार 1947 दोहराये जायेंगे? कितनी बार रिफ्यूजी बनना पड़ेगा? अपने ही देश में, आजाद देश में, वतन परस्तों के देश में, संविधान और लोकतंत्र की कसमें खाने वालों के देश में, दुनिया भर में अपनी प्रगति का डंका बजाने वाले उस देश में जहां नये हिन्दुस्तान, नये विकास के नारे हवा में गूंज रहे हों, उस देश में यदि दिलबर सिंह नेगी को अपने तमाम पहाड़ के सपने बीस साल की उम्र में जलाकर मर जाना पड़े तो उसे देश की सड़कें और चांद पर जाते उपग्रह पहाड़ में बैठे उसके माता-पिता के सामने किस महानता का दृश्य उपस्थित करेंगे?

दिलबर सिंह नेगी युद्ध में शहीद होता, आतंकवादियों से लड़ते हुए अपनी जान दे देता, विदेशी हमलावरों से गुत्थमगुत्था होते हुए घायल हो जाता, न बच पाता तो भी उसके भाई-बहन, माता-पिता यह सोचकर मन को शांत करने की कोशिश करते कि उनका भाई देश के काम आया।

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दिलबर सिंह नेगी भारत के भविष्य की, भारत के खुशनुमा यौवन की, भारत के पहाड़, भारत की गंगा, भारत के शिवालय की आशा था। उसकी सुगंध था। दिलबर को अभी जाना नहीं था। उसे देश के इस्लमी जिहादियों ने अपने ही नमक से विश्वासघात करते हुए मार दिया।

वे तमाम सेकुलर पत्रकार जो आंख के ऐेस हिंदु विरोधी अंधे हा गये हों कि उन्हें दिलबर सिंह नेगी, अंकित शर्मा, रतन लाल दिखते ही नहीं, वह दिलबर के अपराधी हैं। शायद पाकिस्तान की फौज कुल मिलाकर भी भारत की इतनी क्षति नहीं कर सकती थी, जितनी क्षति झूठ, फरेब, कपट और विश्वासघाती, निर्दयता के साथ सेकुलर पत्रकारों ने अपने चैनलों और समाचारों से की है।

दिलबर को क्यों मरना पड़ा, इसका जवाब लेना ही होगा। जल्दी ही। हिमालय अपने बेटे के करूण अंत पर चुप नहीं बैठेगा।

-तरूण विजय

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