कश्मीर पर बातचीत में दोनों कश्मीर भी भागीदार बनें

दोनों कश्मीर एक हों। दोनों कश्मीर भारत और पाक के बीच खाई बने हुए हैं। वे पुल बनें। गोंद बनें। जोड़ें। बात चले तो सबसे चले। एक-दो नहीं, चारों में चले। भारत, पाक, हमारा कश्मीर और उनका कश्मीर!

कश्मीर में मचे कोहराम को महीना भर हो गया लेकिन वह थमने का नाम नहीं ले रहा है। हिंसा की गंभीर घटनाएं पहले भी हुई हैं लेकिन बुरहान वानी की मौत ने कश्मीर ही नहीं, भारत की संसद को भी हिला दिया है। सिर्फ 60 लोग मरे ही नहीं, हजारों लोग घायल हुए हैं और सैकड़ों लोग छर्रों के कारण अंधे हो गए हैं। कश्मीर के मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की पुरजोर कोशिश पाकिस्तान कर रहा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और उसके विदेश मंत्री सरताज़ अजीज ने संयुक्त राष्ट्र संघ और अरब लीग से हस्तक्षेप का अनुरोध किया है। कश्मीर के पूर्व महाराजा डॉ. कर्णसिंह ने संसद में स्वीकार किया है कि कश्मीर अब भारत का आंतरिक मामला नहीं रह गया है। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती अजीब सांसत में फंस गई हैं। सत्ता में आने के पहले जिन तत्वों के प्रति वे सहानुभूति बताती रहती थीं, अब उनका मुकाबला उन्हीं से है। उन्हें कहना पड़ रहा है कि कश्मीरी नौजवानों की ये कुर्बानियां बेकार नहीं जाएंगी। नरेंद्र मोदी ने 32 दिन बाद अपना मौन तोड़ा और उन्होंने अटलजी के पुराने नारे की शरण ली। उन्होंने कहा कि कश्मीर का मामला हल जरूर होगा, इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के दायरे में रहकर लेकिन आज कोई नहीं जानता कि कश्मीर की जनता को संतुष्ट करने का गुरुमंत्र क्या है?

भारत की संसद में कश्मीर को लेकर जो बहस हुई, उससे साफ जाहिर होता है कि भारत के लोग कश्मीरियों को विदेशी या अजनबी या देशद्रोही नहीं समझते। वे कश्मीरियों के दुख में दुखी हैं। पाकिस्तान के लिए कश्मीर की खूंरेज़ी एक राजनीतिक मुद्दा है, कूटनीतिक मौका है, भारत-विरोधी बहाना है लेकिन भारतीयों के लिए वह गहरे दुख का विषय है। इसीलिए संसद में सभी दलों ने कश्मीर के घावों पर मरहम लगाने की अपील की है। एक भी सांसद ने यह नहीं कहा कि पत्थर या गोलियां या बम चलाने वालों को भून दो। उल्टे, सारे दलों ने एक जगह बैठकर यह सोचने का काम किया है कि कश्मीर के नौजवानों से हार्दिक संवाद कैसे कायम किया जाए। यह भारतीय लोकतंत्र की बड़ी उपलब्धि है। जब से नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, हमारे राजनीतिक दलों ने ऐसी एकता और परिपक्वता का परिचय पहली बार दिया है। इसी से पता चलता है कि कश्मीर की समस्या आज कितनी गंभीर है।

जो राजनीतिक दल बरसों से धारा 370 खत्म करने की रट लगाए हुआ था और जिसे घोर सांप्रदायिक और तंगदिल बताया जाता था, उसी के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि सरकार कश्मीर के सभी दलों और मध्यमवर्गीय (मॉडरेट) संगठनों से बात करेगी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह उग्रवादियों और अलगाववादियों से बात नहीं करेगी। यह स्वाभाविक है। सरकारें अक्सर ऐसे लोगों से बात नहीं करतीं, जो उसकी सत्ता को सीधी चुनौती देते हैं। वह लात का जवाब लात से देती है। वह मानती है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। बहुत हद तक यह बात ठीक हो सकती है। लेकिन यही एक मात्र रास्ता नहीं है। मेरा अनुभव यह है कि कभी-कभी बात का असर लात से भी ज्यादा और जबर्दस्त होता है। पिछले 50 वर्षों में मैंने भारत और पड़ौसी देशों के उग्रवादियों, आतंकवादियों और भारत-विरोधियों से निरंतर संवाद चलाया है।

श्रीलंका के तमिल उग्रवादियों, नेपाल के माओवादियों, मिजो बागियों, खालिस्तान के खूंखार हिंसकों, अफगानिस्तान के मुजाहिदीनों, कश्मीरी हुर्रियत के नेताओं और पाकिस्तान के हाफिज सईद जैसे भारत-विरोधी अतिवादियों से मैं सीधी बातचीत करता रहा हूं। इससे उनका एकदम हृदय-परिवर्तन हो गया, ऐसा दावा मैंने कभी नहीं किया लेकिन हमारे तर्कों, रवैए और शिष्ट व्यवहार ने उन पर असर जरूर डाला है। जो भारत को तोड़ने का नारा दिया करते थे और हमारे शीर्ष नेताओं की हत्या की कसम खाया करते थे, वे भारत के मित्र बने हैं। वे नरम पड़े हैं। उन्होंने हिंसा का रास्ता छोड़ा है। वे शायद लात के डर से हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ते लेकिन बात के असर ने उनका रास्ता बदलवा दिया। मैं तो कहता हूं कि अतिवादियों क्या, आतंकवादियों से भी बात करने में कोई बुराई नहीं है। क्या आतंकवादी उस दुश्मन राष्ट्र से भी ज्यादा खतरनाक होता है, जो हमसे युद्ध लड़ता है। जब हमसे युद्ध लड़ते हुए राष्ट्र से हम बात करते हैं तो आतंकवादियों से बात करने में हम परहेज क्यों करते हैं? आतंकवादी तो विदेशी नहीं होते। वे तो अपने हैं। भारतीय नागरिक हैं। बस गुमराह हैं। उन्हें सही रास्ते पर लाना हमारे समाज और सरकार की जिम्मेदारी है। यह दुर्भाग्य है कि हमारी सरकारों के पास पिछले कुछ वर्षों से ऐसे लोग ही नहीं रहे, जो आतंकवादियों से और भारत के घोषित दुश्मनों से सीधी बात कर सकें। कश्मीर के नौजवानों से हमारे नेता तो बात करेंगे ही, उनकी बातें से भी ज्यादा असर कुछ संतों, समाजसेवियों, सत्पुरुषों और मुल्ला-मौलवियों का हो सकता है। वे आगे क्यों नहीं आते? वे कोई पहल क्यों नहीं करते?

प्रधानमंत्री ने वही बात अधूरी दोहराई, जो बरसों से मैं भारत और पाकिस्तान के अखबारों और टीवी चैनलों पर कहता रहा हूं। मैं कहता हूं कि ‘कश्मीर की आजादी हां, लेकिन अलगाव ना।’ यही बात प्रधानमंत्री नरसिंहरावजी ने लाल किले से थोड़े दूसरे शब्दों में कही थी। सारे कश्मीर ही नहीं, यदि एक कश्मीरी की आजादी के लिए भी मुझे लड़ना पड़े तो मैं लड़ूंगा। वह श्रीनगर में उसी तरह आजाद रहे, जैसे मैं दिल्ली में रहता हूं और मियां नवाज शरीफ लाहौर में रहते हैं। यदि उनकी आजादी में कोई कमी हो तो वह उसे खुलकर बताएं। उनकी भारत से अलग होने की मांग उन्हें गुलामी की खाई में ढकेल देगी। वे क्या स्वत्रंत राष्ट्र बनकर जिंदा रह सकते हैं? वे चारों तरफ जमीन से घिरे हैं। उनके पास कश्मीर से बाहर निकलने का रास्ता नहीं है। वे भारत और पाकिस्तान या चीन के मोहताज़ रहेंगे। उनके पास उद्योग-धंधे नहीं है। फौज नहीं है। बेरोजगारी है। यह खूबसूरत इलाका अगर स्वतंत्र राष्ट्र बन जाए तो इसकी हालत मंडी में खड़े बिकाऊ माल की तरह हो जाएगी। यह दस खसम की खेती बन जाएगा। अभी कश्मीरी यह वहम पाले हुए हैं कि वे भारत के गुलाम हैं। तब दसियों देशों की गुलामी के लिए वे मजबूर हो जाएंगे। यही हाल पाकिस्तान द्वारा कब्जाए हुए कश्मीर का होगा। यदि हमारे कश्मीर के कुछ उग्रवादी नेता उसे पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं तो मैं उनसे पूछता हूं कि क्या आपको पाकिस्तान का अंदरुनी हाल पता है? पाकिस्तान के 45 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं याने नंगे-भूखे रहते हैं। 1990 तक वे लोग भारत से आगे थे। अब 20-25 साल के आतंकवाद ने पाकिस्तान की हालत खस्ता कर दी है। उससे जुड़कर आप उसका सिरदर्द क्यों बढ़ाना चाहते हैं? यदि आप मुसलमान होने के कारण पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं तो भारत के शेष 18-20 करोड़ मुसलमानों का क्या होगा? उनसे पूछिए, क्या उनमें से एक भी पाकिस्तान का नागरिक बनना चाहता है? आप भारत के लोकतंत्र को लात मारकर पाकिस्तान के फौजी बूटतंत्र के तले रौंदे जाना क्यों चाहते हैं? पाकिस्तानी कश्मीर के कई ‘प्रधानमंत्रियों’ और विरोधी नेताओं से कई बार मेरी जमकर बात हुई है। वे पाकिस्तान के पंजाबियों की दादागीरी की अक्सर शिकायत करते हैं। एक कश्मीरी विद्वान ने अपनी किताब में लिखा था कि हमारा कश्मीर गर्मियों के दिनों में पाकिस्तानी पंजाबियों के लिए एक विराट वेश्यालय बन जाता है। लेकिन भारतीय कश्मीरियों की तरह पाकिस्तानी कश्मीरी आजाद नहीं हैं कि वे आंदोलन कर सकें, हिंसा कर सकें या खुले-आम आजादी या अलगाव की बात कर सकें।

तो फिर हल क्या है? दोनों कश्मीर एक हों। दोनों कश्मीर भारत और पाक के बीच खाई बने हुए हैं। वे पुल बनें। गोंद बनें। जोड़ें। बात चले तो सबसे चले। एक-दो नहीं, चारों में चले। भारत, पाक, हमारा कश्मीर और उनका कश्मीर! कश्मीरी नौजवानों को एक बात मैं कहना चाहता हूं। तुम्हारे हाथ में पत्थर है, तुम पत्थर चलाओगे। फौजी के हाथ में बंदूक है, वह बंदूक चलाएगा। पत्थर और बंदूक हजार साल भी चलते रहे तो कश्मीर का कोई हल नहीं निकलेगा। जरूरी है कि वे तशददुद (हिंसा) का रास्ता छोड़ें। कश्मीर से बाहर आएं। सारे भारत में घूमें और आम जनता के गले में अपनी बात उतारें। भारत लोकतंत्र है। यदि जनता उनके साथ होगी तो सरकारों को झुकना ही पड़ेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बलूचिस्तान, गिलगित और पाक-अधिकृत कश्मीर के बारे में जो बहस शुरू की है, वह स्वागत योग्य है। लेकिन इस नई विदेश नीति के दो पहलू हैं। एक पहलू तो वह है, जो सबको आसानी से समझ में आ जाता है। बिना समझाए ही समझ में आ जाता है। वह यह है कि यदि पाकिस्तान हमारे कश्मीर में तरह-तरह से दखलंदाजी कर रहा है तो अब हम चुप नहीं बैठेंगे। अब हम भी जवाबी कार्रवाई करेंगे। अब हम भी बलूचिस्तान, गिलगित, स्कर्दू, पाकिस्तानी कश्मीर आदि इलाकों में दखलंदाजी करेंगे। खुले-आम करेंगे। हम भी वहां आतंकवाद को पनपाएंगे, अलगाव की ताकतों को बढ़ावा देंगे, पाकिस्तान को तोड़ने की कोशिश करेंगे। याने हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे।

अपने आप को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग मोदी की इस नीति पर फिदा हो रहे हैं। कांग्रेस पार्टी भी चकरा गई है। वह मोदी का डटकर समर्थन कर रही है। उसे पता है कि यदि वह नहीं करेगी तो उप्र के चुनावों में उसकी दाल पतली हो सकती है लेकिन कांग्रेस के ही पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद उल्टी चक्की चला रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी ने बलूचिस्तान का मामला छेड़कर पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर पर भारत के दावे को कमजोर कर लिया है। पाकिस्तानी मामलों के कई भारतीय जानकारों का कहना है कि मोदी का यह नया पैंतरा ‘जैसे को तैसा’ व्यवहार देना है। आम आदमी पूछ रहे हैं कि मोदी को क्या हो गया है। वे पल में तोला और पल में माशा होते रहते हैं?

इस सारे मामले का दूसरा पहलू भी है और वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह क्या है? पहले यह देखें कि मोदी ने कहा क्या है? मोदी ने यही तो कहा है कि अरे पाकिस्तानियों! आप हमारे कश्मीर में मानव अधिकारों के उल्लंघन की बात कर रहे हो। पहले ज़रा अपने गिरेबान में तो झांकों। तुम्हारे कश्मीर, तुम्हारे बलूचिस्तान, तुम्हारे गिलगित में क्या हो रहा है? (हमारे कश्मीर में गोलियां तो चलती हैं) लेकिन तुम्हारे बलूचिस्तान में तो जहाजों से लोगों पर बम बरसाए गए हैं। इसमें मोदी ने सारी सच्चाई कही है। गलत क्या कहा है? मोदी ने जो कुछ कहा, उसका अर्थ यह कतई नहीं है कि भारत पाकिस्तान को तोड़ना चाहता है या वह वहां बगावत भड़काना चाहता है। मैं तो भारत के कर्तव्य को बिल्कुल उल्टा समझता हूं। दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश होने के नाते यह देखना भारत का फर्ज है कि पड़ौसी देशों में शांति रहे, एकता रहे और वे संपन्न हों। उसका बर्ताव दादा (बिग ब्रदर) का नहीं, भाईजान (एल्डर ब्रदर) का हो। लेकिन सरकारों को कभी-कभी रोकना मुश्किल हो जाता है। वे जवाबी कार्रवाई करने पर आमादा हो जाती हैं। न हों तो उनका टिकना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई भी सरकार हिंसा और बगावत की पहल क्यों करे?

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़